ग़ज़ल का भारतीय पुनर्पाठ:-नित्यानंद श्रीवास्तव जी की शोध- अवधारणा / पूनम चौधरी

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साहित्य सदैव सत्य का अनुरागी होता है। सभी का हित साधने वाली परिकल्पना ही भारत ने साहित्य में स्वीकार की है। मुगल काल से लेकर ब्रिटिश दासता का समय जितना अंधकार भरा है, उससे अधिक भयावह आजादी के बाद का वह भारत वर्ष है जहाँ सत्ता ने अपने हित के हिसाब से साहित्य की दिशा व दशा तय कराई। कितनी ही अवधारणाएँ उस सत्ता के स्वाद और लाभ के लिए घटाई और बढ़ाई गईं, यहाँ तक कि उनका रूप रंग भी बदल दिया गया। आज जब साहित्य का प्रबुद्ध वर्ग साहित्य के लिए प्रतिबद्ध है, तो निश्चय ही यह सब घालमेल सामने आ रहे हैं और अभी और भी आने शेष हैं। एक विशेष पंथ ने जिस तरह निरंतर सांस्कृतिक व साहित्यिक शक्ति का क्षरण और उसे दिग्भ्रमित करने की कुत्सित मानसिकता दिखाई इसके प्रतिवाद का भी यह सही समय है। ऐसे समय में नित्यानंद जी की 15 वर्षों की अथक साधना के प्रतिफल के रूप में 'हिंदी ग़ज़ल का अक्षर पथ' पुस्तक का आना सुखद भविष्य का संकेत है।

‘हिंदी ग़ज़ल नितांत हमारे भारत भूमि का प्रासाद है’

यह विद्वान् नित्यानंद श्रीवास्तव जी की एक नितांत मौलिक एवं अभूतपूर्व स्थापना है, जो पिछले 5 दशक से समकालीन कविता में हिंदी ग़ज़ल की उपस्थिति एवं उसके स्थान को लेकर चले आ रहे संघर्ष को विराम देगी। हिंदी साहित्य में ग़ज़ल विधा की उपस्थिति को लेकर स्थितियाँ कभी सहज नहीं रही। उर्दू के नाम से गजल जहाँ सभी के लिए स्वीकार्य व कंठ हार बनी रही, वहीं हिंदी गजल सर्वदा अपेक्षा और आयातित का तमगा लिए अपने अस्तित्व के लिए जूझती रही। यह सुखद ईश्वरीय संयोग है कि 2025 वर्ष दुष्यंत जी का शताब्दी वर्ष है। ऐसे समय में 'हिंदी गजल का अक्षरपथ 'पुस्तक का आना, हिंदी गजल के पाठकों और निष्ठावान साधकों के लिए अत्यंत गौरव का क्षण है। लेखक ने पूरी निष्ठा और परिश्रम के साथ हिंदी ग़ज़ल की उत्पत्ति से जुड़ी तमाम भ्रांतियों का तार्किक व प्रमाण सहित निराकरण किया है। हिंदी गजल की मौलिकता को लेकर चल रही युगों की संदेहास्पद व त्रुटि पूर्ण स्थापनाओं का अंत कर दिया है। हिंदी गजल भारत भूमि की ही उपज है, जो वैदिक ऋचाओं की भाँति ही पूज्य प्राचीन और नितांत अपनी पूँजी है। हिंदी साहित्य को छंद शास्त्र जितना प्रिय और पवित्र है, हिंदी गजल भी उतनी ही सुचिता मौलिकता व अपार संभावनाओं को समाहित किए भारत भूमि की ही धरोहर है।

गजल की उत्पत्ति 1400 वर्ष पूर्व न होकर वेदों के सदृश ही प्राचीन व वैज्ञानिक है। गजल वास्तव में फारस से आयातित विधा नहीं है। उसकी उत्पत्ति व इतिहास भारतवर्ष की साहित्यिक व सांस्कृतिक परंपरा से जुड़ा है। नित्यानंद जी प्रमाणों के साथ यह सिद्ध करते हैं, कि भारतवर्ष से ही यह विधा ईरान तक पहुँची है। सभी सुधी और प्रबुद्ध गजल अध्येताओं की दृष्टि में यह एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है, जिसमें गजल के इतिहास और भविष्य को बदलने की इच्छा,तर्क, शक्ति, प्रमाण और मौलिकता उपलब्ध है।

गजल का आद्य प्रारूप शुद्ध भारतीय है। हमारा विश्व कल्याण व हर ओर से अच्छे विचारों के स्वागत के संकल्प ने ही इस सुंदर विधा को गजल स्वीकार किया। लेखक ने पुस्तक को दो भागों में विभाजित कर पाठकों की विचारण हेतु विमर्श के कई कोण सृजित किए हैं। लेखक को भारतीय सांस्कृतिक व साहित्यिक परिवेश में आए विचलन की निरंतर चिंता व अकुलाहट है। जीवन, रचना और समीक्षा तीनों ही विषयों पर हुआ क्षरण लेखक की चिंतन दृष्टि में है; इसीलिए प्रबुद्ध पाठकीय चेतना को नए सिरे से चिंतन हेतु आमंत्रित कर हिंदी ग़ज़ल का अक्षर पथ की घोषणा विद्वान नित्यानंद जी अपनी पुस्तक में कर रहे हैं।

भारतीय वाङ्मय में सामवेद की परिकल्पना वेद मंत्र और ऋचाओं के शुद्ध गायन से संबंध है यहाँ लेखक ने गजल के गेयता भाव साम्य के लिए पूर्वाचिक व उत्तराचिर्क नाम देकर उसकी सार्थकता को सिद्ध किया है। लेखक की दृष्टि बराबर छंद के महत्त्व पर रही है। कविता की शुष्कता के लिए छंदहीन दृष्टि ही उत्तरदायी है। लेखक ने इतने विस्तार और दृष्टि संपन्नता से छंद के महत्त्व पर अध्याय लिखे हैं, जिससे सामान्य पाठक भी इससे परिचित हो पाएगा।

उत्तरार्चिक में हिंदी ग़ज़ल की आलोचना के महत्त्वपूर्ण आलेख है। अभी जो समकालीन कविता में हिंदी ग़ज़ल का संघर्ष चल रहा है, उस पर लेखक ने विवेकपूर्ण तर्क सम्मत विचार किया है और इस संघर्ष की ज़मीन को हिंदी ग़ज़ल के लिए समतल बनाने में उनके यह आलेख अत्यंत महत्त्व के सिद्ध होंगे। गजल हर प्रारूप में शुद्ध भारतीय है। वैदिक साहित्य की वैज्ञानिकता और प्राचीनता जिस तरह निर्विवाद है, इसी तरह गजल के बीज सूत्र भी वैदिक साहित्य से चले आ रहे हैं। गजल, छंद, स्वर और संगीत अथवा ये कहें की समस्त व्याकरण सब वैदिक साहित्य से निःसृत है।

फारसी की तुलना में कहीं अधिक वैज्ञानिक व्यवस्था वैदिक छंदों की है, इस दृष्टि से देखें तो कम से कम 8000 वर्ष पूर्व गजल का प्रारूप वैदिक ऋचाओं में उपलब्ध है। वैदिक साहित्य के बाद महर्षि वाल्मीकि की रामायण में गजल के सूत्र उपलब्ध होते हैं। अयोध्या कांड के 75वें सर्ग में प्रयुक्त काव्यरूप अद्भुत है।कवि द्वारा 38श्लोकों में एक ही पाद 'यास्योर्योनुमते गतः' की आवृत्ति महर्षि वाल्मीकि के छंद लय और संगीत के समन्वित कौशल का दिग्दर्शन है। आर्त्तस्वर चाहे क्रौंच युग्म का हो या मानव के अंतबाह्य संघर्ष का- वह महर्षि वाल्मीकि के इस छंद- संयोजन में साध लिया गया है। इसी छंद संयोजन की एक कृति गजल कविता का यह आद्य- प्रारूप भी है। रामायण के बाद गजल कविता का प्राक्-रूप पालि भाषा की प्रसिद्ध कृति ‘थेरी गाथा’ में मिलता है। इसमें थेरी अम्बपाली और थेरी रोहिणी की गाथाएँ गजल कविता के प्रारूप में कही गई हैं।

आम्रपाली ने कुल 19 गाथाएँ कहीं हैं, जिनमें ‘सच्चवादि वचनम अनश्चथा’ का सम तुकांत मिलता है। पाली अथवा प्रथम प्रकृति में रची गई यह कथा संगीत स्वर सिद्ध है। यह बात निश्चय पूर्वक रेखाकित की जा सकती है कि आम्रपाली स्वयं नृत्य और संगीत आदि कलाओं में पारंगत थी अतः यह बात विचारणीय है कि यह काव्य रूप उन दिनों भी यानी आज से लगभग ढाई हजार साल पहले लोक प्रचलित रहा होगा। ढाई हजार साल पहले का समय भी रेखांकित किया जाना चाहिए कारण यह है कि आज हमारे अपने समय की तमाम उन्नत विकसित और अपने आप को वैज्ञानिक घोषित करने वाली सभ्यताएँ इतने दीर्घ समय के अपने इतिहास को नहीं जानती और जानकारी के अभाव में इसे अंधकार युग के रूप में घोषित कर देती हैं।

वाक्य खंडो की आवृत्ति की यह परंपरा संस्कृति के स्रोत काव्य और संस्कृत भक्ति गीतों में यथावत् मिलती है।

पंचाक्षरं पवन-पावनमच्युतं तं

भव्यं भवानीपतिमेकमुपास्महे।

भिक्षाशनं दिशि दिशि परिभ्रमन्तं

नानारतिं हृदि वहन्तमभाग्यवन्त

आदि शंकराचार्य के इस संस्कृत छंद में फारसी उर्दू गजल में जिसे 'हुस्न ए मतला' कहा जाता है उसका प्राक् रूप विद्यमान है। आज के मध्य पूर्व एशियाई देश यथा तुर्की ईरान- इराक आदि प्राचीन आर्यावर्त के ही हिस्से थे। इस सीमा विस्तार के परिपेक्ष्य में ग़ज़ल के भारतीय प्राक् रूपों की स्थिति समझी जा सकती है। 'कृष्णश्रय 'भक्ति युग की महत्त्वपूर्ण रचना है। वल्लभाचार्य भक्ति युग के प्रवर्तक आचार्य में से एक हैं साथ ही इस कृति की रचनाकार भी। वल्लभाचार्य इसमें काव्य रूप को वैदिक संस्कृति एवं लौकिक परंपरा से प्राप्त करते हैं और संवेदना को अपने समकाल से। इस रचना में 'मलेच्छ' शब्द आधुनिक विद्वानों और अखबारी शैली वाली मनोवृति इस्लामी मतनुयायियों से जोड़कर देखते है। ऐसी शैली वाले चिंतकों से कहा जाना चाहिए कि मलेच्छ शब्द का अर्थ यहाँ भारतीय महाद्वीप में रहने वाले मतान्तरित मुसलमान से नहीं है; बल्कि इसका अर्थ आक्रणकारी समूह और प्रवृत्तिगत विचलनों से है। यह स्वभावगत विचलन सामान्य मनुष्य से लेकर कर्मकांडी आचार्य तक देखे जा रहे हैं। यह वल्लभाचार्य की पीडा है। भक्ति काल के अन्य आचार्य की भाँति वल्लभाचार्य भी सामान्य जनता के संताप और दुख निवारण के लिए परंपरा के अनुशीलन से जोड़ते हैं। कृष्ण किसी आध्यात्मिक चमत्कार के प्रतीक नहीं है, उनसे जुड़ना परंपरा की संपूर्ण कर्मशीलता से जुड़ना है और सिर्फ जुड़ना ही नहीं बल्कि उसमें समाहित हो जाना है। कहा जा सकता है कृष्णाश्रय ग्रंथ होने के साथ-साथ अपने अंतर्वस्तु में समकालीन यथार्थ की अभिव्यक्ति करता है और एक विशिष्ट छंद- विधान के साथ जिसे गजल का भारतीय प्रारूप कहा जाना चाहिए।

पूरा भक्ति युग उत्थान और बदलाव का युग है। इन भक्त कवियों ने संगीत और कविता दोनों को राज दरबारों से मुक्त कर आम जनता तक पहुँचाया। इन सभी प्रारूपों में गजल महत्त्वपूर्ण है,जिसे यह कवि लोक की उर्वर भूमि से और भारतीय भाषायी परिवेश की साहित्यिक परंपरा से प्राप्त करते हैं।आवश्यकता इस पूरे भक्ति काव्य व अध्ययन परंपरा के नवीन अनुसंधान की है।

हिंदी ग़ज़ल का विकास क्रम अमीर-खुसरो से प्रारंभ होकर कबीर और कबीर से सीधे आधुनिक काल पर आ जाता है; किंतु लेखक नित्यानंद जी ने इसके क्रमिक विकास को पुनः नवीन दृष्टि से सृजित किया है, जो निश्चय ही विस्मृत और प्रसन्न करने वाला है। अमीर खुसरो से दो सौ वर्ष पूर्व जयदेव की अष्टपदी में ग़ज़ल की तकनीक और कथा के स्पष्ट संकेत मिलते हैं। यही विद्यापति के काव्य से प्राप्त होता है,उनके गीत- बंधों में ग़ज़ल की शैल्पिक संरचना की स्पष्ट पहचान होती है। वहाँ काफिया और हुस्न ए मतला की उपस्थिति दर्शनीय है। महत्त्वपूर्ण यह नहीं कि भारतीय परिवेश में इन गीत बन्धों को क्या कहा गया, महत्त्वपूर्ण यह है कि गजल के ये समरूप भारतीय भाषा परिवार में आयातित व नवीन नहीं है। और भी उद्धरणों से लेखक ने अपनी स्थापना को पुष्ट और सिद्ध किया है।

कबीर के काव्य में प्रयुक्त चांचर, इस लोकगीत को कबीर ने आध्यात्मिकता का बाना पहनाया। इसमें कबीर ने जो रचनाएँ की उनमें रदीफ और काफिया की तकनीक गजल की है, जिसे लोक से कबीर प्राप्त करते हैं। लोकगीतों के रूप में इस प्रारूप की उपस्थिति निश्चित रूप से खुसरो से भी पहले की सिद्ध होती है। कहरा,बेलि, बिरहुली, हिंडोला आदि लोक प्रसिद्ध शैलियाँ अपनी तकनीक में ग़ज़ल की उपस्थिति को ही सुनिश्चित करती है।स्रोत काव्य परंपरा में तुलसी ने भी साहित्य रचा। स्रोत काव्य के साथ-साथ छंद व संगीत विधान की भी तुलसी ने गजलें लिखीं। भक्ति के साथ समकालीन वेदना व संत्रास का स्वर भी इस भारतीय परंपरा में तुलसी को विशिष्ट बनाता है।

अष्टछाप के विद्वान कवि विट्ठलनाथ के शिष्य गोविंद स्वामी से लेकर संत परशुराम, रज्जब, संत मलूक दास, संत गुलाब साहब, अमृत राय, संत चरण दास तक उदाहरण देकर लेखक इस परंपरा की कड़ियाँ इस तरह जोड़ते हैं कि संशय का प्रश्न ही नहीं उठता। उनकी गजलों का भाषायी रूप लोक से प्राप्त है। यह पूरा विश्लेषण इस अर्थ में महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि लेखक ने उनकी रचनाओं के माध्यम से ब्रज से खड़ी बोली और खड़ी बोली से उर्दू तक की यात्रा का जो विकास रेखांकित किया है, वह हिंदी साहित्य के इतिहास पर कई दृष्टियों से पुनर्लेखन की आवश्यकता को सिद्ध करता है।

भक्ति से रीति और रीति से आधुनिक काल के मध्य बहुत कुछ ऐसा है, जो स्पष्ट नहीं है या यह कहें जानबूझकर छुपा दिया गया है। ये छूटी हुई कड़ियाँ गहन अनुसंधान और विश्लेषण से एक नया और क्रमबद्ध साहित्य सबके सामने ला सकती है। हिंदी गजल को उसका छूटा और टूटा इतिहास ही जुड़कर सम्मान के आसन पर आसीन कराएगा।

निष्कर्ष रूप से यह तथ्य लेखक ने अन्वेषित किया है कि ग़ज़ल का आद्य प्रारूप भारत में ही मिलता है। यहाँ की कई बोलियों, भाषाओं में एक समान प्रवृत्ति के छंद- विधान इस प्रारूप में है। इन प्रारूपण की विशेषता यही है कि इसमें वाक्य खंडो की आवृत्ति होती है, जबकि फारसी आदि में प्रायः समान ध्वनि वाले तुकांत पदों की आवृत्ति होती है, इसे ही ‘काफिया+रदीफ़’ कहते हैं। भारतीय प्रारूप जिसमें एक वाक्य खंड की आवृत्ति होती है, अपेक्षाकृत अधिक कठिन कवि कर्म है। फारसी आदि में रूप की दृष्टि से सरलीकरण हो गया है। सरलीकरण की इस द्वंदात्मक स्थिति का अध्ययन भाषायी, सांस्कृतिक, भौगोलिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से करना आवश्यक है।

भारतेंदु हरिश्चंद्र में हिंदी गजल रचना धर्मिता और उर्दू की रचनाधर्मिता का समन्वय है; बल्कि यूँ कहे कि हिंदी ग़ज़ल की विकास- यात्रा में भारतेंदु साहित्य त्रिवेणी के समान है जहाँ स्रोत, गीत व उर्दू परंपरा की गजलें एक साथ उपस्थित है। हिंदी के सुव्यज्ञ पाठक भारतेंदु हरिश्चंद्र की 'रसा उपनाम' से लिखी गजलों से परिचित है।स्रोत काव्य परंपरा में उनकी उपस्थिति उल्लेखनीय है।भारतेंदु के बाद स्वामी रामतीर्थ ने असली गजलें लिखी हैं, उनकी गजलों में आध्यात्मिक संवेदना और देशभक्ति के स्वर प्रमुख हैं। इस दौर में प्रेमघन और प्रताप नारायण मिश्र भी हिंदी गजल विकास यात्रा को रेखांकित करते हैं।

आधुनिक युग के द्वितीय चरण यानी भारतेंदु युग के बाद महत्त्वपूर्ण हिंदी गजलकारो में गुप्त जी, प्रसाद और सूर्यकांत निराला के योगदान महत्त्वपूर्ण है। निराला ने अरबी फारसी के छंद शास्त्र पर आधारित गजलों के अलावा हिंदी की लोक धुन पर आधारित प्रयोग भी किए हैं। लोकगीतों की शैली का स्मरण भी करें, तो इस प्रकार कबीर और तुलसी से निराला तक हिंदी ग़ज़ल की अपनी ऐतिहासिक उपस्थित रेखांकित की जा सकती है। निष्कर्ष यह है कि दुष्यंत के पूर्व हिंदी ग़ज़ल की अपनी अनिवार्य ऐतिहासिक उपस्थिति है।

लोक संवेगों की गहरी पड़ताल अधिकतर भक्त कवियों ने की है। लोक संगीत और प्रतिरोध के संबंध स्वर भक्ति और रीतिकालीन हिंदी गजल रचनाशीलता के बहुरंगी आयाम है। दुष्यंत कुमार उनके समकालीन और बाद की पीढ़ी के गजलकार जाने अनजाने हिंदी ग़ज़ल की इसी जमीन से मौलिकता प्राप्त करते रहे सिर्फ कथ्य ही नहीं शिल्प भी और इस अर्थ में यह काव्य- रूप भारतीय आर्य परिवार की भाषा परिवार की कविता यात्रा की स्वाभाविक और नितांत निजी उपलब्धि है। इसका स्रोत अरबी के कसीदे में ढूँढना उचित नहीं।

इस्लाम के आगमन से पहले अरबी साहित्य के विषय में जानकारियाँ बहुत कम है । एक तो इस दिशा के सूत्र बहुत कम हैं, दूसरे पता नहीं किन कारणों से विद्वान् इस ओर उत्साहित नहीं हुए। इस्लामिक अरब से भारत का आर्थिक,सांस्कृतिक और आध्यात्मिक संबंध बहुत गहरा था। इस संबंध में इतिहास के विद्वान निरंतर अध्यनरत हैं और इसी संदर्भ में कुछ साहित्यिक साक्ष्य गजल के काव्य रूप के संदर्भ में अवलोकनार्थ है। प्राचीन अरबी कविताओं का प्रसिद्ध संग्रह -‘शायर उल ओकुल’

इस ग्रंथ का संकलन एवं संपादन बगदाद के पाँचवें और सर्वाधिक प्रसिद्ध खलीफा हारून अल रशीद के दरबारी एवं सुप्रसिद्ध अरबी कवि अबू अमीर अब्दुल अस्माई ने किया था, जिसे अरबी साहित्य का कालिदास कहा जाता है। इस महान ग्रंथ का प्रथम अंग्रेजी संस्करण 1932 में बेरोज से प्रकाशित हुआ। 'शायर उल ओकुल' ग्रंथ तीन भागों में बनता है- प्रथम में गैस्लामी अरबी कवियों का जीवन-वृत्त और उनकी कविताएँ हैं, दूसरे भाग में इस्लाम के जनक हजरत मोहम्मद की वाणी से लेकर बनी उमरिया वंश के खलीफाओं के काल तक के कवियों की जीवन -गाथा और रचनाएँ संकलित हैं। इसी 'शायर उल ओकाल' में पैगंबर हजरत मोहम्मद से 23 वर्ष पहले के एक कवि लबी बिन अख्तर बिन ए तुर्फा की निम्नांकित कविता काव्य रूप की दृष्टि से और विशेषकर कथा की दृष्टि से पठनीय है । इतने लंबे समय पूर्व लबी ने वेदों की अनूठी काव्य प्रशंसा की है तथा प्रत्येक वेद का अलग-अलग नाम उच्चारण किया है-

अया मुबारेकल अरज़ युशैये नोहा मीनारे हिन्द -ए।

वा अरादकल्लाह मज्ज़योनेफ़ेल जिकरतुन..

वहलतज़ल्लीयतुन ऐनाने सेहबी अरवे अतुन ज़ीकरा

वहाज़ेही योन ज़जेलुर्रसूल बिनल हिंदतुन।।

अर्थात् -'ए हिंद भारत की पुण्य भूमि तू धन्य है, क्योंकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझे चुना, वह ईश्वर का ज्ञान प्रकाश जो चार प्रकाश स्तंभों (चार वेद समान) संपूर्ण जगत को प्रकाशित करता है, यह भारतवर्ष में ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रकट हुए। परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता है कि वेद,जो मेरे ज्ञान है, उनके अनुसार आचरण करो। वे ज्ञान के भंडार साम और यजुर् हैं ,जो ईश्वर ने प्रदान किया। इसलिए है मेरे भाइयों इनको मानो; क्योंकि यह हमें मोक्ष का मार्ग बताएँगे और इनमें से ऋक् और अथर्व में जो हमें भारत की शिक्षा देते हैं,जो इनकी शरण में आ गया वह कभी अंधकार को प्राप्त नहीं होगा।'

उपर्युक्त कविता में काव्य रूप गजल का है। विषय है भारत के प्रति श्रद्धा भाव और कुल मिलाकर इस कविता की प्रकृति स्रोत काव्य के सन्निकट है। यह निश्चित रूप से गंभीर शोध का विषय है।शायर उल ओकुल के विषय में जानकारी प्रोफेसर हरवंश लाल ओबेरॉय के शोध पत्र से ली गई है, इसी शोध पत्र पर मद्रास विश्वविद्यालय द्वारा डी. लिट् की उपाधि हरबंस लाल ओबराय को प्रदान की गई। इस सूचना से एक तथ्य स्पष्ट होता है कि उत्तर वैदिक काल और सरस्वती सिंधु सभ्यता के कालखंड तक तथा उसके कुछ और बाद तक भी भारत और पश्चिम एशिया के देशों के बीच नियमित आवागमन था।सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंध भी बहुत गहरे थे। रामविलास शर्मा ने अपने अध्ययनों में से प्रमाणित भी किया है. ऐतिहासिक सूचना के लिए जिज्ञासu को उनकी पुस्तक और अतीत विषयक अद्यतन अनुसंधान को देखना चाहिए। ऐतिहासिक विवरण और नबी की उपयुक्त अरबी कविता से एक अनुमान, एक आत्मिक निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि भारतीय व्यापारिक कामगार और शिल्पियों का समूह अपने साथ भारतीय लोकगीत स्रोत काव्य और संगीत की कुछ मोहक ध्वनियाँ भी वहाँ ले गया होगा ,कुछ साहित्यिक प्रतिश्रुतियाँ भी वहाँ गई होंगी, यह काव्य रूप गजल का रहा होगा।

यह सब विवरण नित्यानंद श्रीवास्तव जी की' हिंदी गजल के अक्षर पथ 'में इतने ढंग से वर्णित किए गए हैं कि निश्चय ही नित्यानंद जी को साधुवाद देने का मन करता है। गजल जिसे हम आज तक उर्दू की थाती मानकर पूजते आए हैं और हिंदी गजल को भी हम उर्दू की देन मानकर व्यवहार करते हैं। आज दोबारा यह समय है कि इस पुस्तक के प्रकाश में हम पुनः एक बार अपने शोध निष्कर्ष को अपने ज्ञान को और अनुसंधान को पुष्ट करें ताकि यह स्थापित किया जा सके कि ग़ज़ल की भारतीयता केवल भाषायी नहीं अपितु सांस्कृतिक, वैचारिक और आत्मिक है।

नित्यानंद श्रीवास्तव की यह स्थापना – ‘हिंदी ग़ज़ल नितांत हमारे भारत भूमि का प्रासाद है’ केवल एक कथन नहीं, एक ऐतिहासिक दायित्व की पुनर्परिभाषा है। यह पुस्तक न केवल हिंदी ग़ज़ल के लिए एक पथप्रदर्शक दस्तावेज़ है, बल्कि यह भारतीय साहित्यिक चेतना को उसकी मूल जड़ों से जोड़ने का कार्य भी करती है। यह उस सांस्कृतिक-साहित्यिक न्याय की पुनरावृत्ति है जो स्वतंत्र भारत में सत्ता और विचारधाराओं की खींचतान में विलुप्त हो गई थी। 'हिंदी ग़ज़ल का अक्षरपथ' एक साहित्यिक घोषणा है, एक विमर्श है, और एक सांस्कृतिक उत्तरदायित्व भी।

नित्यानंद जी ने जिस श्रम, प्रमाण और आत्मीयता के साथ हिंदी ग़ज़ल को पुनः भारतीय पहचान प्रदान की है, वह सराहनीय ही नहीं, ऐतिहासिक भी है। इस पुस्तक के माध्यम से उन्होंने ग़ज़ल को न केवल भाषायी आग्रहों से मुक्त किया है, बल्कि उसे भारत की उस परंपरा में पुनः प्रतिष्ठित किया है।ग़ज़ल, जिसे अब तक अरबी और फारसी की सांस्कृतिक विरासत के रूप में देखा और स्वीकार किया जाता रहा है, आज हिंदी में अपनी एक नई भूमि, एक नया भाषिक-सांस्कृतिक परिवेश और मौलिक आत्मा पा रही है। डॉ. नित्यानंद श्रीवास्तव की यह स्थापना – ‘ग़ज़ल का आद्य प्रारूप भारतीय है।’ किसी सामान्य विमर्श का हिस्सा नहीं, बल्कि एक व्यापक साहित्यिक दृष्टिकोण, शोध-सम्मत परिप्रेक्ष्य और सांस्कृतिक पुनराविष्कार का साहसी घोष है। यह स्थापना केवल परंपरा का निषेध नहीं करती; बल्कि परंपरा को उसकी सीमाओं से मुक्त करके उसे नवीन अर्थ देती है। यह मान्यता उन समस्त पूर्वग्रहों को चुनौती देती है जो ग़ज़ल को केवल फारसी की कोख से उत्पन्न मानते हुए हिंदी में उसे केवल एक 'अनूदित अनुभूति' की तरह प्रस्तुत करते रहे हैं।

हिंदी ग़ज़ल को अपनी मिट्टी, अपने श्रमजीवी समाज और अपने सांस्कृतिक संदर्भों से जोड़ने का जो प्रयास डॉ. नित्यानंद श्रीवास्तव ने किया है, वह हिंदी साहित्य को न केवल भाषिक दृष्टि से समृद्ध करता है; बल्कि उसे आत्म-सम्मान और मौलिकता की नई ऊँचाई भी प्रदान करता है।

'हिंदी ग़ज़ल का अक्षर पथ' पुस्तक वस्तुतः एक सांस्कृतिक घोषणा है, एक भाषिक जागरण है, और एक भावनात्मक प्रतिरोध भी। यह उस मानसिकता को चुनौती देता है जो भारतीय साहित्य को बार-बार विदेशी साँचों में ढालकर ही मूल्यवान् मानने की भूल करता रहा है। ग़ज़ल के छंद-विधान, उसके बहर, रदीफ़-काफ़िया जैसे अनुशासनों के भीतर हिंदी की बोली-बानी,उसका छंद विधान, उसकी सांस्कृतिक व्यंजना, उसकी पीड़ा और उसका सौंदर्य जब बोलता है, तो वह किसी भी फारसी या उर्दू ग़ज़ल से अधिक सशक्त, आत्मीय और व्यापक प्रतीत होती है।

डॉ. श्रीवास्तव ने हिंदी ग़ज़ल को एक स्वाधीन आत्मा दी है — जो केवल तुकों में नहीं, बल्कि विचार में स्वतंत्र है; जो केवल छंदों में नहीं, बल्कि अर्थों में जीवंत है। उन्होंने ग़ज़ल को हिंदी की धरती पर उगाया है, जहाँ इसकी जड़ें लोकधर्मी परंपरा में हैं, तने समकालीन अनुभवों में, और फूल भविष्य की संभावनाओं में।

डॉ. नित्यानंद श्रीवास्तव की यह स्थापना, वास्तव में हिंदी साहित्य की आत्मनिर्भरता का घोष है। यह ग़ज़ल को उसकी सांस्कृतिक परतों से उबारकर उसे जनता के हृदय में पुनः प्रतिष्ठित करने की एक मूल्यवान् साहित्यिक यात्रा है — और यह यात्रा जितनी वैचारिक है, उतनी ही भावात्मक भी।आज आवश्यकता है कि हिंदी ग़ज़ल के इस नए विमर्श को समझा जाए, स्वीकार किया जाए और हिंदी ग़ज़ल को उसकी सच्ची ज़मीन — उसकी अपनी हिंदी मिट्टी — पर खड़ा किया जाए। तभी हम यह कह सकेंगे कि हिंदी ग़ज़ल अब केवल एक भाषा की परिधि नहीं, बल्कि एक आत्मा की पुकार है — भारतीय आत्मा की।

हिंदी ग़ज़ल का अक्षर पथः नित्यानन्द श्रीवास्तव, पृष्ठः184 , मूल्यः499 रुपये, सस्करण: 2024, सर्वभाषा ट्रस्ट, जे-49, स्ट्रीट नं-38, राजापुरी, मेन रोड, उत्तम नगर, नई दिल्ली— 110059

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