ग़मख्वार / भीकम सिंह

Gadya Kosh से
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‘‘गिल्ली- डंडे के खेल में जमीन पर दूरी नापने में बेईमानी करना, नैना के अहाते में पदना और पदाने का अभ्यास करना, अमरूद के पेड़ पर चढ़कर टहनियाँ काटना और शकूर चाचा को पता ना लगना’’, अपनी अधपकी दाढ़ी को खुजलाते हुए उसे आज स्मरण हो आया।

ज़ज भी वह ओस भीगी सुबह में अँधेरा ओढ़कर सोई हुई पगडंडी पर चलने में वही उमंग महसूस कर रहा है। आज का दिन उसकी स्मृतियों के दृष्टिकोण से स्वर्णिम दिन है। वह खेत में खड़ा लंबी -लंबी साँसे खींचता रहा, जब उसने पूरी सुबह अपने भीतर भर ली तो चुपचाप उकडू बैठ गया और खेत की आँखों में एकटक झाँकता रहा।

सुबह के सात बजे हैं, खेत सुस्ता रहा है, किरणों ने ओस को झुलसाना शुरू कर दिया है। उसने खेत के खुरदरे हाथों का स्पर्श कर नाड़ी देखी और जरा चिंतित लहजे में कहा,"तुम ज्यादा उर्वरक ले रहे हो?"

खेत ने कोई जवाब उसकी नजरों पर नहीं टाँका।

वह कृषि वैज्ञानिक है, खेतों के पास जाकर उनका इलाज करता है। फफूँद, जीवाणु, विषाणु, कीट जैसे घातक रोगों के बहुत खेत होते हैं। सबके सब हारे -थके परम्परागत फसल पर भरोसा करने वाले। इन जानलेवा रोगों का उसके पास इलाज है फसल-चक्र; लेकिन जिस बीमारी से खेत आजकल जूझ रहे हैं। उसका उपचार उसके पास नहीं है। उस बीमारी ने कई खेतों को अकाल मौत के हवाले कर दिया, जिससे यह खेत भी पीड़ित है।

वह बीमारी को पकड़ने की नाकाम कोशिश करता रहा, फिर जाने क्या हुआ... एक भयंकर शोर आया -जे सी बी और महँगी कारों का, तो उसे लगा खेत उसका हाथ पकड़ने की कोशिश कर रहा है। जैसे कह रहा है, “यही है बीमारी, मुझे इससे बचाओ। मैं सोसाइटी की चाहरदीवारी के भीतर कैद होना नहीं चाहता।”

वह खेत के लिए चिंतित हो गया, फिर मुकदमा और स्टे इतने त्वरित अंदाज में हुआ कि खेत स्वस्थ होकर उसे दुलारने लगा।

खेतों की पगडंडियों में अब उसकी चर्चा है।

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