ग़ालिब के घर मुशायरा / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
नींद ने पलकों पर कदम रखा ही था कि ख़ामोशी काँच की तरह टूट कर कमरे में बिखर गई। उसमें एक मेरी आवाज़ भी शामिल थी, जो चुभ गई। नींद के तलवों से लहू निकल आया। किसी ने कहा –
“हैलो!”
“जी, फरमाइए।”
“ग़ालिब बोल रहा हूँ।”
“अस्सलाम-वालेकुम।”
“कैसे हो बेटा?”
“बस आपकी दुआ है।”
“मेरी हवेली पर एक मुशायरा है, तुम्हें कल आना है।”
“जी ज़रूर, आपकी खिदमत में हाज़िर रहुंगा।”
...और अचानक मैं अपने आपको ग़ालिब की हवेली में मौजूद पाता हूँ। यह हवेली ईंटों से बनी अर्द्धवृताकार मेहराबे, तराशे हुए दिल्ली के नियमित कटे क्वार्ज़ाइट पत्थरों से बने चौकोर खंभों पर टिकी है। विभाजन तथा बाद के जोड़–तोड़ से इमारत ने अपनी मौलिकता को खो दिया है। इस महान शायर को श्रद्धांजलि स्वरूप दिल्ली सरकार ने इसे एक यादगार के रूप में पुर्नजीवित किया है। सरकार के द्वारा इस हवेली पर 2 दिसम्बर 1999 को कब्जा कर लिया गया तथा 27 दिसम्बर 2000 को इसका उदघाटन करने के साथ ही इसे जनता के लिये खोल दिया गया। यह हवेली कासिम जान की इमारतों में से एक है जो रिहायशी और कारोबारी निर्माण की वजह से अभी तक अपना प्राचीन स्वरूप बनाए हुए है। सन 1860 ई. में ग़ालिब इस हवेली में आये और अपने अंतिम समय तक रहे।
मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू शायरी के एक मशहूर शायर हैं जिन्होंने आधुनिक उर्दू गध को भी अपनी लेखन-क्षमता से गीला रखा। वे उर्दू एवं फारसी भाषा की कविता के लिए बहुत प्रसिद्ध हुए। उन्होंने अरब देश (पश्चिम एशिया एंव अफ्रीका) में भी लोकप्रियता हासिल की। ग़ालिब का जन्म 27 दिसम्बर 1797 में आगरा (उत्तर प्रदेश) के एक सामान्य तुर्की-मुस्लिम परिवार में हुआ। उनके पिता असदुल्लाह बेग खान राज्यसेना में एक सिपाही थे। उनकी माता इज़्ज़्त-उन-निसा बेगम एक घरेलू औरत थी। ग़ालिब का असली नाम मिर्ज़ा (मोहम्म्द) असादुल्लाह बेग़ खान था।
1802 ई. में जब ग़ालिब पाँच साल के थे तो रियासत अलवर (राजस्थान) में लड़ाई के दौरान उनके पिता मारे गये। तब वे अपने चाचा नसरउल्लाह बेग खान के साथ रहने लगे जिनकी मृत्यु पॉच साल बाद गई। तब उनका जीवन-यापन परिवार के पेंशन से चलने लगा तथा साथ में उनके भाई मिर्ज़ा युसूफ भी रहते थे। 19 अगस्त 1810 को 13 वर्ष की उम्र में उनका निकाह दिल्ली के इलाही वख़्श खान ‘मारूफ’ की बेटी उमराव बेगम के साथ कर दी गई। 1812-13 में वह आगरा छोड़कर हमेशा के लिए दिल्ली आ गए। वह पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान मोहल्ले के एक छोटे-से घर में रहने लगे।
ग़ालिब के सात बच्चे हुए पर एक भी जिन्दा न रह सका। उन्होंने अपनी पत्नी के भतीजे को गोद लिया मगर वह भी मर गया। दत्तक पुत्र की मौत के बाद ग़ालिब ने एक नज़्म लिखी जो उनकी संग्रह में है। 1807-08 ई. में शायरी का आग़ाज हुआ और ‘असद’ के नाम से लिखने लगे। फिर 1816 ई. में ‘गालिब’ तख़्ल्लूस (उपनाम) रखा। 6 अप्रैल 1833 ई. में दीवान संपादित हुआ पर पहला संस्करण अक्टूबर 1841 में प्रकाशित हुआ। उन्होंने 1826-27 में बकायदा फारसी शायरी का आग़ाज किया। फारसी का दीवान 29 अप्रैल, 1835 ई. में सम्पादित हुआ और पहला संस्करण 1845 में प्रकाशित हुआ।
ग़ालिब बहुत बड़े शायर और फारसी के विद्वान थे। उर्दू शायरी की वजह से वे ज्यादा चमके और इस मुकाम को पाया। प्रारम्भ में उनके स्टाइल को समझना मुश्किल था इसलिए लोगों को समझने में दिक्कत हुई। उसके बाद उन्होंने लिखने के ढंग में परिवर्तन किया और लोगों के दिल में बस गए। ग़ालिब कविता/शायरी और गद्य के अलावे ख़त भी लिखते थे। उनके ख़त लिखने का अंदाज अद्वितीय था। वह आधुनिक, साधारण और सीधा लिखते थे। इसलिए उन्हें ‘आधुनिक गद्य का पिता’ भी कहा जाता है। उनका गद्य देश के राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति को दर्शाता था। उनके कार्यों का कई भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद किया गया है।
मिर्ज़ा ग़ालिब ने मुग़ल सलतनत में 1847 ई. में प्रवेश किया। 4 जुलाई, 1850 ई. को तैमूरी खानदान का इतिहास लिखने पर नियुक्त हुए। इसी वर्ष ‘नज़्म-उद-दौला’, ‘दबीर-उल-मुल्क’ और ‘निज़ाम-जंग’ के खिताब से बहादुर शाह जफर ने नवाज़ा। 1854 ई. में वह मुगल राजकुमारों के शिक्षक के रूप में चुने गए जिसके बदले उन्हें सलाना वेतन मिलता था। इसी वर्ष ‘ग़ालिब’ दरबार कवि के रूप में भी कार्यरत हुए। ग़ालिब ने एक सुख सम्पन्न जीवन जीया। जीवन के अंतिम दिनों में उनकी आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय हो गई। 72 वर्ष की आयु में ग़ालिब का इंतकाल 15 फरवरी, 1869 को दिल्ली में हो गया। बस्ती निज़ामुद्दीन में लीहारु खानदान की हड़वाड़ में दफ़्न हुए।
...अचानक मुशायरे की आवाज़ सुनकर मेरे क़दम हवेली के दूसरे कमरे में दाखिल हुए जहाँ ‘ग़ालिब’ अपनी ग़ज़ल पढ़ रहे थे –
ये न थी हमारी किस्मत कि विसाले-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता
हुए हम जो मर के रूस्वा हुए क्यों न गर्के-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता