गाँठ / सुधांशु गुप्त
वह एक सड़क पर चल रहा है। एकदम सीधा। आसपास की दुनिया से बेखबर। कहीं से कोई आवाज़ उसके कानों में नहीं पड़ रही है। या यह भी हो सकता है कि उसे ही कुछ सुनाई न दे रहा हो। वह चल रहा है। एकदम सीधा। अचानक उसे अहसास हुआ कि किसी चीज़ के घिसटने की आवाज़ आ रही है। उसने इधर-उधर देखा। कहीं कोई नहीं था। वह ‘सब लेन’ पर चल रहा था। उसने अपने बाईं तरफ देखा। गाड़ियाँ, स्कूटर, बाइक्स, रिक्शा, ई-रिक्शा उससे उल्टी दिशा में भागे जा रहे थे। घिसटने की आवाज़ का उन सबसे कोई लेना-देना नहीं था। आवाज़ उसे अपनी ही भीतर से आती लग रही थी। उसने अपने को ग़ौर से देखा। यह देखने की कोशिश की कि आवाज़ कहाँ से आ सकती है। ख़ुद को देखते हुए उसकी नज़र अपने पैरों पर गई। उसने चमड़े की अँगूठे वाली चप्पल पहनी हुई थी। वह पैरों को उठा कर नहीं चल रहा था। बल्कि घसीट कर चल रहा था। पैर उठाना उसे भारी-सा लग रहा था। फिर भी चलने का यह तरीका उसे पसन्द नहीं आया। माँ हमेशा कहती हैं कि पैर घसीट कर नहीं चलना चाहिए। ‘क्यों’ के जवाब में वह कहतीं, इससे चप्पल जल्दी घिस जाती है और चलने वाला व्यक्ति थका हुआ लगता है।
थक तो वह गया ही है। अब अगर वह थका हुआ लगता है तो लगने दो। चप्पल ज़्यादा चले इसमें उसकी ना पहले कोई रुचि थी, ना अब है। पहले वह फौजियों की तरह चलता था। पैदल चलने का उसे बड़ा शौक था और पैदल चलते समय वह क़दम गिना करता था। ताकि दूरियाँ आसानी से कट जाएँ। एक..दो...तीन... चार...पाँच..छह। जब सौ क़दम हो जाते तो वह दाएँ हाथ की मुट्ठी बन्द करता और छोटी उँगली मुट्ठी से बाहर निकाल लेता। इस तरह वह बन्द मुट्ठी से उँगलियां बाहर निकाल लेता और सौ...दो सौ...तीन सौ क़दम गिन लेता। वह उत्साह और युवावस्था के दिन थे। क़दमों को गिनना भी उसने एक काम बना लिया था। लेकिन सब पीछे छूट गया। पैदल चलने और क़दमों को गिनने की आदत भी छूट गई। आदतें छूट जाती हैं तो याद ही नहीं रहता कि ऐसी कोई आदत कभी थी !
अचानक उसके मन में आया, देखा जाए कि क्या वह अब भी पैर उठाकर, क़दमों को गिनता हुआ चल सकता है। क्या क़दम उठाकर चलने की उसकी आदत बिल्कुल छूट चुकी है। पहले उसने बायाँ पैर ऊपर उठाया और आगे रखा। फिर दायाँ पैर उठाकर बाएँ के बराबर रखा। उसे अच्छा लगा। वह इसी तरह चलने लगा। चलने की कोशिश करने लगा। अच्छी बात यह थी कि उसके आसपास कोई नहीं था। कोई नहीं था जो उसकी चाल में आए इस बदलाव को देख सके। वह इसी तरह पैर उठाकर चलता रहा। कुछ क़दम। पता नहीं सड़क पर कुछ था या वह इस तरह पैर उठाकर चलना वह भूल चुका था। अचानक उसका दायाँ पैर मुड़ गया। अँगूठे में दर्द की एक तेज़ लहर उठी। उसने झुक कर पैर के अँगूठे को देखा। अँगूठे का ऊपरी हिस्सा कुछ छिल गया था। हल्की सी खाल उतर गई थी। लेकिन दर्द के बावजूद अँगूठे से खून नहीं निकल रहा था। उसने दाएँ हाथ के अँगूठे से पैर के अँगूठे को दबाया। ख़ून फिर भी दिखाई नहीं दिया। पहले ऐसा नहीं होता था। उसे युवावस्था में बहुत चोटें लगती थीं। कभी घुटने में, कभी अँगूठे में और कभी हाथ में। कहीं से भी कुछ छिलता तो ख़ून बहने लगता। विवाह के सालों बाद तक पत्नी कहती रही कि तुम्हें तो चोट खाने की आदत है। पत्नी सही कहती है। चोट खाने का अपना सुख है। ड्रॉअर खुली छोड़कर वह तेज़ी से कुर्सी से उठता और खुली हुई ड्रॉअर से टकरा जाता। जाँघ पर चोट लगती। घर में कोई भी काम करता तो चोट ही खाता। वह चोटों की ज्यादा परवाह नहीं करता था। हार कर पत्नी ने उसे कोई भी काम कहना छोड़ दिया। उसने करना। वक़्त बीतता रहा...बीतता रहा...। बीत गया। उसे चोट लगनी बिल्कुल ही बन्द हो गई। ख़ून निकलना बिल्कुल बन्द हो गया। उसने एक बार फिर पैर के अँगूठे को देखा। ख़ून अब भी नहीं निकल रहा था। उसे अजीब-सा लगा। अब चोट लगने पर ख़ून क्यों नहीं निकल रहा ! खून न निकलने का उसे हल्का- सा अफ़सोस हुआ।
उसे याद आया पहले जब भी उसे चोट लगती थी तो एक गाँठ सी बन जाती थी। पैर में चोट लगने पर जाँघ में और हाथ पर चोट लगने पर बगल में। वह गाँठ तब तक रहती थी, जब तक चोट पूरी तरह ठीक न हो जाए। उसने अपनी जाँघ पर गाँठ की खोज की। लेकिन कोई गाँठ नहीं थी। उसे लगा गाँठ के लिए एक दो दिन इन्तज़ार करना होगा। चोट लगने के साथ ही गाँठ नहीं बनती। यह भी नहीं पता कि इतनी मामूली चोट पर गाँठ होगी या नहीं। दरअसल शरीर पर लगने वाली हर चोट का संकेत होती है गाँठ। इस गाँठ का मतलब होता है शरीर में कहीं कोई चोट लगी है। अब उसका कहीं जाने का मन नहीं हुआ। वह कहाँ जा रहा था, यह भी उसे याद नहीं रहा। वह वापस घर के लिए लौटने लगा। उसे लगा दर्द की वज़ह से वह कुछ लँगड़ा रहा है। कुछ तो उसे सचमुच चलने में दिक्कत हो रही थी, कुछ उसने जानबूझकर भी अपनी लँगड़ाहट को बढ़ा लिया। कभी-कभी आपको चोट लगना अच्छा लगता है। यह भी क्या कि व्यक्ति हमेशा ही ठीक रहे। गाँठ और चोट का रिश्ता तो बना ही रहना चाहिए। वह वापस घर की ओर लौटने लगा।
अचानक उसने देखा कि उसके बराबर से एक 25-26 साल का एक युवक ग़ुज़र रहा है। वह लँगड़ाकर चल रहा था। उसके बाएँ पैर में कुछ गड़बड़ थी। वह बायाँ पैर जब रखता तो दाएँ हाथ से बाईं जाँघ को दबाता। और ख़राब पैर को आगे बढ़ा पाता। शायद वह जाँघ की गाँठ को दबा रहा हो। वह तेज़ नहीं चल रहा था। उसे आसानी से देखा जा सकता था। पैर में लँगड़ाहट उसकी चाल में एक लय पैदा कर रही थी। ऐसा लग रहा था वह नृत्य करता हुआ चल रहा है। वह उसे देखता रहा। उसे देखते रहने के लिए उसने अपनी चाल धीमी कर दी। उसे यह भी अहसास हुआ कि उसने अपनी चाल में जो लँगड़ाहट पैदा की थी, वह अचानक गायब हो गई है।
वह घर वापस आया तो उसने अपने पैर में दोबारा लँगड़ाहट पाई। हालांकि उसके पैर में कोई दर्द नहीं हो रहा था। पत्नी ने उसे देखा तो पूछा, ‘क्या हुआ पैर में...?’
‘कुछ नहीं चलते हुए पैर मुड़ गया..।’
पत्नी ने अँगूठे की ओर देखते हुए कहा, ‘आप चलते भी तो पैरों को घिसट-घिसट कर हो...लेकिन कुछ नहीं हुआ है...मैं बोरोप्लस दे देती हूँ, लगा लेना।’
पत्नी बोरोप्लस लाकर उसके पास रख गई। वह अपने कमरे में एक कुर्सी पर आकर बैठ गया। उसने एक बार फिर अँगूठे को देखा। सचमुच अँगूठे में कुछ नहीं हुआ था। हल्का-सा अँगूठा मुड़ा था। बस। पत्नी को यह समझते देर नहीं लगी। पत्नी के सामने झूठ बोलना बहुत मुश्किल है। उसने बेमन से उँगली पर निकालकर थोड़ी सी बोरोप्लस अँगूठे पर लगा ली। उसने देखा कि अँगूठा अब थोड़ा ठीक लग रहा था। उसे यह अच्छा नहीं लगा। अच्छा होता यदि अँगूठे में से ख़ून निकलता। पत्नी दवाई लगाकर पट्टी बाँधती। दो तीन दिन वह लँगड़ाकर चलता। उसकी जाँघ में कोई गाँठ बन जाती। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ था।
उसके और पत्नी के बीच आधे कमरे की दूरी है। पत्नी अपने कमरे से ही हर आदेश देती है।
आवाज़ धीमे-धीमे दूरियों का सफ़र तय करके उसके कानों तक पहुँची।
‘अरे ज़रा अकबर को बुला लेना, बेड की प्लाई बदलवानी है और आपकी कंप्यूटर टेबल भी खराब हो गई है...वह भी ठीक कर जाएगा...।’
अकबर। 30 साल की उम्र होगी। वह लकड़ी का काम करता है। दरवाज़ा न खुल रहा हो, जाम हो गया हो, टेबल छोटी या ब़ड़ी करवानी हो -- हर काम वह सलीके से करता है। पैसे भी ज़्यादा नहीं माँगता। पत्नी उसके काम से ख़ुश रहती है। हमेशा हंसता- बोलता रहता है।
एक दिन उसने अकबर से कहा, यार तुम्हारा नाम अक़बर है और काम तुम बढ़ई का करते हो....।
उसने इस बात का बुरा नहीं माना। हंसते हुए जवाब दिया, ‘मेरा नाम और मेरा काम यह बताता है कि दुनिया कितनी बदल गई है…अब अकबर को बढ़ईगिरी करनी पड़ रही है...।’
सचमुच दुनिया बदल रही थी। बदल गई थी।
अकबर। उसने मन में सोचा। मोबाइल उठाया और फ़ोन मिला दिया। फ़ोन पर न कोई बेल गई, न दूसरी तरफ से कोई आवाज़ आई। हो सकता है फ़ोन का स्विच ऑफ़ हो या ख़राब हो गया हो। उसे याद आया कि कुछ दिन पहले ही दिल्ली में हिंसा हुई थी। मज़हब को दरकिनार करते हुए लोग मारे गए थे। बच्चे, बूढ़े, युवा और महिलाएँ। दशकों बाद दिल्ली में इस तरह के दंगे हुए थे। मन में यह ख़याल आया कि कहीं...अकबर भी...। लेकिन उसने अपने इस ख़याल को पूरा नहीं होने दिया। पर ख़याल तो पूरा हो ही चुका था। मन में यह संदेह अपनी जड़ें जमा चुका था कि कहीं अकबर भी दंगों का शिकार न हो गया। लेकिन अब किया क्या जा सकता है। फ़ोन मिल नहीं रहा। क्या उसकी बस्ती में जाकर उसे खोजा जाए! उसके मन में एक अजीब सा डर बैठ गया। कहीं अकबर भी दंगों की....। ऐसा बिल्कुल हो सकता था। आजकल माहौल ही ऐसा चल रहा है। कहीं भी किसी को मार दिया जाता है। मॉब लिंचिंग की कितनी घटनाएँ देश में हो रही हैं। किसी को चोरी के आरोप में बिजली के खंबे से बांँधकर बुरी तरह पीट-पीटकर मार दिया जाता है, किसी को बच्चा चोरी के आरोप में भीड़ मार डालती है तो कोई गोहत्या के आरोप में मारा जाता है। चारों तरफ़ समाज में लोग मर रहे हैं। हमने एक अजीब सी दुनिया बनाई हैं, जहाँ झूठ, हत्या और बलात्कार का ही बोलबाला दिखाई पड़ता है। लोग एक दूसरे को मारने पर उतारू हैं। झूठ की नई नई दुकानें खुल रही हैं। झूठ खूब बिक रहा है। ऊँचे दामों पर। ऐसा पहली बार हो रहा था कि हत्यारों को सम्मानित किया जा रहा था। चारों तरफ शक और शुबहा का मौहाल था। आप फ़ोन पर भी आका का नाम लेकर गाली दें तो डर लगता था कि कहीं आपका फ़ोन रिकॉर्ड न हो रहा हो। कहीं आपके ख़िलाफ़ एफ़आईआर न हो जाए। कहीं आपको गिरफ़्तार करके जेल में न डाल दिया जाए। अब हर आदमी हर आदमी पर सन्देह कर रहा था। हर तरफ़ शँकाएँ और आशँकाएँ सिर उठा रही हैं।
उसने पत्नी से छिपकर अकबर को फिर फ़ोन किया था। लेकिन स्थितियाँ बदली नहीं थीं। ना कोई बेल जा रही थी और न ही कहा जा रहा था कि फ़ोन स्विच ऑफ़ है। पत्नी उसके कमरे में आई। उसने कहा कुछ नहीं लेकिन जो कहना चाहा वह बता गई। शायद वह भी अकबर के बारे में पूछना चाहती थी। तो पूछा क्यों नहीं? क्या इसलिए नहीं पूछा कि उसके मन में भी वही आशंका होगी...क्या वह भी अकबर के दंगों में....। उसके मन का सन्देह लगातार बढ़ रहा था। वह जानता था कि यह सन्देह अकारण नहीं है। दिल्ली दंगों में काफ़ी लोग मारे गए थे। अकबर जहाँ रहता था वहां भी दंगों की लपटें पहुँची थी। तो यह बिल्कुल संभव था। यह भी संभव था कि वह बच गया हो। बच निकला हो। लेकिन संभव और असंभव के बीच बहुत चौड़ी खाई थी। इस खाई को पार करना आसान नहीं था। जहाँ अकबर रहता था, जहाँ दंगे हुए थे, वहाँ जाने से वह डर रहा था। पता नहीं अकबर के इन्तकाल की ख़बर सुनकर वह कैसे रिएक्ट कर बैठे। वह अकबर के बारे में ही सोच रहा था। अगर ऐसा हुआ तो उनके घर के दरवाज़े कौन ठीक करेगा। पत्नी किसी और के काम पर यक़ीन कर भी पाएगी या नहीं। वह उसी सोच में डूबा था कि अचानक फ़ोन की घण्टी बजी। पता नहीं कितनी देर से फ़ोन बज रहा था। उसने फुर्ती से फोन उठाया, क्या हाल है भाई?
फोन करने वाला कासिम था। उसे लगा वह समय आ गया है जब उसे अकबर के इन्तकाल की ख़बर सुननी पड़ेगी।
उसने जवाब दिया, मैं ठीक हूं भाई आप कैसे हो...कॉलोनी में सब ख़ैरियत है ना... ?
कासिम ने बुझी हुई आवाज़ में जवाब दिया, कहाँ ख़ैरियत है भाई...कुछ भी ख़ैरियत नहीं है...आप तो सब जानते हैं...कितने लोग मारे गए हैं दंगों में...कितने तो यार दोस्त ही थे...।
वह अकबर के बारे में पूछना चाहता था, लेकिन उसमें हिम्मत नहीं हुई। कासिम ने ही फिर कहा, भाई वो अकबर था ना, जो लकड़ी का काम करता था, उसका भी इन्तकाल हो गया...दुकान जल गई, घर जल गया...वह दुकान और घर को बचाने के चक्कर में...।
पता नहीं कासिम कब तक बोलता रहा। उसे कुछ सुनाई नहीं दिया।
इस बीच पत्नी कमरे के दो चक्कर काट चुकी थी। शायद वह भी सुन रही हो कि दंगों में लोग मारे गए हैं। शायद उसे भी इस बात का इल्म हो गया हो कि अकबर अब नहीं रहा। लेकिन पत्नी ने कुछ पूछा नहीं। उसने कुछ नहीं बताया। वह अन्दर जाकर किचन में अपन काम करने लगी। लेकिन किचन से किसी तरह का शोर नहीं आ रहा था। कोई आवाज़ नहीं थी। वह अकबर के इन्तकाल की ख़बर से सहमा हुआ था।
तभी पत्नी ने कमरे में प्रवेश किया और पूछा, ‘ क्या हुआ अकबर को?’
उसने बुझे मन से जवाब दिया, ‘दंगाइयों ने उसका घर और दुकान जला दिए। वह इन्हें बचाने की कोशिश कर रहा था...लेकिन ख़ुद भी जल गया....उसे बचाया नहीं जा सका.... ’
‘ पता नहीं दुनिया को क्या हो गया है...’ पत्नी ने कहा और किचन में चली गई। दोनों ही इस स्थिति का सामना नहीं कर पा रहे थे।
क्या हो गया था दुनिया को। क्या हो गया है दुनिया को। क्यों पूरा समाज हिंसक होता जा रहा है। क्यों चारों तरफ मारकाट मची है। क्यों समाज इतना चोटिल हो गया है, ज़ख्मी हो गया है। अगर समाज चोटिल है तो उसके शरीर पर कोई गाँठ क्यों नहीं दिखाई देती। समाज के इस तरह चोटिल होने से किसके शरीर पर गाँठ बननी चाहिए। कौन है जो समाज का प्रतिनिधित्व करता है। सही अर्थों में तो समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग अब रहे ही नहीं। सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गांधी। सब मर चुके हैं। फिर कौन समाज का प्रतिनिधित्व करेगा। कौन समाज के इस छलनी होते शरीर के घावों के संकेत देगा। किसके शरीर का गाँठ यह बताएगी कि समाज को चोट लगी है। घर में बैठना मुश्किल हो गया। वह घर से बाहर निकल आया।
वह पैर घिसट-घिसट कर ही चल रहा था। लेकिन उसे बुरा नहीं लगा। वह चाहता था कि एक बार फिर से उसका पैर मुड़ जाए। अँगूठे में खून निकल आए। उसकी जाँघ में कोई गाँठ बन जाए। कम से कम वह तो समाज के चोटिल होने का संकेत दे। अकबर की मौत हो गई। और भी न जाने कितने लोग दंगों की भेंट चढ़ गए। तो कहीं तो इसके संकेत मिलने चाहिए। नियम सबके लिए यकसां होने चाहिए। अगर एक व्यक्ति को चोट लगने पर गाँठ बनती है तो समाज के चोटिल होने पर भी गाँठ बननी चाहिए। लेकिन यह गाँठ किसके शरीर में बनेगी !
वह चल रहा है। कहां जा रहा है पता नहीं। चलने से उसके पैरों से घिसटने की आवाज़ आ रही है। वह कुछ देर यूंही चलता रहा। बेमक़सद। कभी कभी कहीं न पहुंचने के लिए भी चलना चाहिए। अचानक उसने पाया कि वह एक विशालकाय हनुमान मंदिर के पास पहुंच गया है। वह जीवन में कभी मंदिर नहीं गया। फिर अचानक मंदिर के सामने कैसे पहुंच गया। उसका मन हुआ कि मंदिर में चल कर देखा जाए। क्या पता किसी देवता की आंखों से समाज की चोट दिखाई दे रही हो। ठीक उसी तरह जिस तरह वर्जिन मैरी की आंखों से कभी कभी ख़ून टपकता है। वह खून भी तो इसी बात का प्रतीक होना चाहिए कि समाज चोटिल है। अर्जेंटीना के एक चर्च में कुछ लोगों ने वर्जिन मैरी की प्रतिमा से खून टपकने की घटना का दावा किया था। चर्च के पादरी और अन्य स्थानीय लोगों ने मूर्ति की आंखों से लाल रंग का तरल पदार्थ गिरते हुए देखा था। इस चर्च की देखभाल करने वाले का यह भी दावा था कि उसने वर्जिन मैरी को सपने में देखा था। हो सकता है यह सब झूठ ही हो। लेकिन इसे प्रतीक तो मानना ही चाहिए। उनकी आंखों से खून टपकने का सीधा सा अर्थ है कि समाज किसी बड़े दुख से गुज़र रहा है। किसी बड़ी चोट से। हो सकता है भारत के चर्च में भी ऐसा कभी हुआ हो। वह कभी चर्च नहीं गया।
उसने पाया कि वह मंदिर के विशाल गेट के सामने खड़ा है। लोहे का गेट है। उसके एक तरफ से श्रद्धालुओं के जाने का रास्ता बना हुआ है। वह गेट के भीतर घुस गया। गेट के दायीं तरफ आपको चप्पल उतारनी पड़ती है। भगवान के दर्शन के बाद आप अपनी चप्पल वापस ले सकते हैं। उसने चप्पलें उतार कर दे दी हैं। कुछ दूर चलने पर ही आगे दायीं तरफ शिर्डी का साईं बाबा की मूर्ति लगी है। यह एकदम नई मूर्ति है। उसने सुना था कि इस मंदिर में सारे देवी देवता मौज़ूद हैं। शिर्डी के साईं बाबा की मूर्ति नई लग रही है। उसने शिर्डी के साईं बाब की तरफ देखा है। शिर्डी के साईं बाबा की प्रतिमा शांत भाव से बैठी है। वह किसी आसन पर विराजमान हैं। उन्होंने अपना दायां हाथ घुटने पर रखा था। हथेली पर ओम का निशान बना हुआ था। वह एकदम निरपेक्ष भाव से बैठे थे। मानो उन्हें समाज और संसार से कोई लेना देना नहीं हो। समाज में जो हो रहा था उसका कोई चित्र उनकी आंखों में नहीं था, खून बहने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।
वह शिर्डी के साईं बाबा को छोड़कर आगे बढ़ गया। कुछ कदम चलने पर उसने देखा सामने ही एक लंबा सा मंच बना हुआ है। वह भी इस मंच पर चढ़ गया। मंच पर ही भक्त पूरी श्रद्धा से नीचे बैठे हुए थे। उसने सामने की ओर देखा। क्रमशः सभी देवी देवताओं की मूर्तियां वहां विराजमान थीं। भगवान शिव, भगवान राम-सीता, भगवान कृष्ण, हनुमान जी...सब के चेहरों पर दिव्य मुस्कराहट है...कहीं ऐसा नहीं लगता कि समाज में जो कुछ हो रहा है उसका इन पर कोई असर हो रहा। आंखों से खून टपकने की बात तो छोड़ दीजिए, इन सबकी आंखों में स्थायी गौरव और ईश्वर होने का ही भाव है। सभी भक्त इन सबके सामने हाथ जोड़ते, होंठों में कुछ बुदबुदाते और फिर इन प्रतिमाओं के सामने बिछी दरी पर बैठ जाते। उसने न किसी प्रतिमा के सामने हाथ जोड़े न हो होंठों में कुछ बुदबुदाया। बस उसके ज़हन में एक ही बात आ रही थी, क्या कभी इनकी आंखों से खून टपक सकता है। क्या कभी ये देवता भी समाज की चोटों को अपनी भाव भंगिमाओं से, अपनी आंखों से प्रदर्शित करेंगे। क्या कभी यहां आने वाले श्रद्धालु इनसे समाज की चोटों को ठीक करने की मांग करेंगे, क्या कभी इन के शरीर में कोई गांठ निकलेगी। इस आसक्त वातावरण में वह ज्यादा देर नहीं रुक पाया। वह समझ गया कि इन प्रतिमाओं से किसी तरह की उम्मीद रखना व्यर्थ है। वह लौट आया।
बिना खाना खाए ही वह बिस्तरे पर लेट गया। पत्नी ने भी खाने के लिए नहीं कहा। हो सकता है उसने भी न खाया हो। अबकर की मौता का उसे भी दुख होगा। रात को पता नहीं उस कब तक नींद नहीं आई। उसके मन मस्तिष्क में सभी देवी देवताओं की प्रतिमाएं घूमती रहीं उसे यह भी याद आया, एक बार वह मुंबई गया था। काफी साल पहले। मुंबई में उसके पास रहने की कोई जगह नहीं थी। उसके एक दोस्त ने बड़ी मुश्किल से कुर्ला में ही एक कमरे का जुगाड़ किया था। यूं तो कमरा ठीक था, लेकिन उसमें एक ही दिक्कत थी। उसमें सभी देवी देवताओं की मूर्तियां रखी हुई थीं। वर्जिन मैरी भी यहां थी। लेकिन एक मूर्ति को देखकर तो उसे बहुत ज्यादा डर लगा था। उसके कई हाथ थे, जीभ बाहर निकली हुई थी। पूरी रात उसे यही लगता था कि ये सारी मूर्तियां अचानक जीवित हो उठेंगी। इस वजह से वह पूरी रात नहीं सो पाता। लेकिन मूर्तियां कभी जीवित नहीं हुईं। जैसी वे रात में होतीं वैसी ही सुबह मिलतीं। पता नहीं अब वह कमरा कैसा होगा। क्या पता अब भी उसमें सारी मूर्तियां रखी हों। हो सकता है, उनमें से किसी आंखों से खून टपकने लगा हो या यह भी हा सकता है कि समाज की मौजूदा स्थितियों को देखते हुए किसी के शरीर में कोई गांठ उग आई हो...जांघ पर या बगलों में या किसी और जगह।
उसने अपनी जांघों पर हाथ लगाकार गांठ तलाश करने की कोशिश की है, लेकिन कहीं कुछ नहीं था। उसने दुख में आंखें बंद कर लीं। अचानक उसे लगा वह मुंबई के कुर्ला वाले कमरे पर पहुंच गया है। सारे देवी देवता अपनी-अपनी जगह छोड़कर उसकी ओर बढ़ रहे हैं...काली की जीभ खून से तर है..वर्जिन मैरी की आंखों से खून टपक रहा है...कृष्ण दायें हाथ की तर्जनी पर चक्र उठाए हुए हैं...हनुमान ने एक बड़ा सा पहाड़ उठा रखा है..भगवान राम सबको आशीर्वाद दे रहे हैं...धीरे धीरे सब उसकी ओर बढ़ रहे हैं...उसे लग रहा है, उसका दम घुट जाएगा...वह हिलने की कोशिश करता है...लेकिन वह हिलडुल नहीं पा रहा है...वह चीखना चाहता है लेकिन उसकी आवाज़ गायब हो चुकी है...वह कुछ भी बोल नहीं सकता...अचानक सारी मूर्तियां उसे चारों तरफ से घेर लेती हैं...सब उसके ऊपर झुक आई हैं...वह अपने दायें हाथ को हटाकर तेजी से उन सबको रोकने की कोशिश करता है...अचानक उसकी नींद खुल जाती है...उसे अहसास होता है कि उसका दायां हाथ दिल के पास रखा था....जब भी ऐसा होता है, उसे कोई न कोई भयानक सपना जरूर दिखता है...उसने देखा कि सूर्य की रोशनी दरवाजों से होती हुई भीतर आ रही है...भोर का समय है...कहते हैं भोर का सपना सच होता है...तो क्या अब हमारे देवी देवताओं की आंखों से भी खून टपकेगा...या उनके शरीर भी समाज पर आए इस संकट का कोई संकेत देंगे...क्या उनकी जांघों में भी कोई गांठ बनने वाली है...क्या उनकी बगल में कोई गांठ बनेगी...। कौन जाने...।
लेटे लेटे ही अचानक उसका दायां हाथ जांघ पर गया है। वहां कुछ दर्द सा हो रहा है। उसने अंगूठा लगाकर देखा, वहां एक गांठ सी उभर आई है। उसे अच्छा लगा। फिर उसने बायें हाथ से दायीं जांघ को छुआ। वहां भी उसे दर्द महसूस हुआ। उसने पाया कि वहां भी एक गांठ उग आई है। उसने अपनी बगलों में हाथ लगाकर देखा, वहां भी गांठें उग गई थीं। तो इस तरह हर व्यक्ति के शरीर में गांठें उगेंगी...। यही गांठें बताएंगी कि समाज चोटिल हो चुका है। लेकिन उसके पास अन्य लोगों के शरीरों पर इन गांठों को देखने का कोई ज़रिया नहीं था!