गाँधी-चिन्तन और हिन्दी-साहित्य / लालचंद गुप्त 'मंगल'

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युगान्तरकारी महापुरुष महात्मा गाँधी के चिन्तन-दर्शन को, किशोरलाल मशरूवाला ने, अपने 'गांधीविचार दोहन' ग्रन्थ में, तीन भागों में विभक्त किया है-वर्ण-व्यवस्था, ट्रस्टीशिप और विकेन्द्रीकरण। विनोबा भावे के अनुसार, गाँधी जी समाज की बँधी-बँधाई कल्पनाओं को तोड़ने के स्थान पर, उनका परिष्कार कर, उन्हें विकसित रूप प्रदान करना चाहते थे। 'वर्ण-व्यवस्था' के अन्तर्गत उन्होंने पारिश्रमिक की समानता, होड़ का अभाव तथा आनुवंशिक संस्कारों से लाभ उठाने वाली शिक्षण-योजना का प्रस्ताव किया। 'ट्रस्टीशिप' के अन्तर्गत, आत्म-विश्वास के साथ, समस्त प्राणीमात्र के कल्याणार्थ, कार्य करने पर बल दिया तथा 'विकेन्द्रीकरण' के अन्तर्गत उद्योगों का ही नहीं, राजसत्ता का विकेन्द्रीकरण भी उनका अभीप्सित था। गाँधी जी के अनुसार, इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सत्य, अहिंसा और सेवा आदि विशिष्ट साधन अनिवार्यतः अपेक्षित हैं। इस प्रकार, बकौल देवीशंकर अवस्थी, 'सर्वोदय' गाँधी का सामाजिक आदर्श है, 'सत्याग्रह' जीवनादर्श है और 'रामराज्य' शासनादर्श है।

वस्तुतः, गाँधी जी का समूचा चिन्तन मानवतावाद पर आधारित है। 'सत्य' और 'अहिंसा' उनके प्रमुख सिद्धान्त हैं। गाँधी जी के अनुसार, 'सत्य' ही वह तत्त्व है, जिसका अस्तित्व है। सत्य के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु की सत्ता नहीं है। यह अखण्ड, एकरस और सम्पूर्ण चराचर में व्याप्त है। इसी सत्य का दूसरा नाम परमेश्वर है, अर्थात् सत्य ही ईश्वर है। तब यह बात स्वतः सिद्ध हो जाती है कि समूची सृष्टि एक ही परमसत्य से अनुप्राणित है, अतः प्राणी-मात्र का अस्तित्व एक-समान है। ध्यातव्य है कि एकता के इस सिद्धान्त में गाँधी जी के दो मौलिक तत्त्वों की स्थापना होती है-एक, प्राणिमात्र के प्रति समभाव और दूसरा, एक मनुष्य के जीवन का दूसरे प्राणियों के जीवन पर अनिवार्य प्रभाव। गाँधी जी के अनुसार, जब सभी में एक ही आत्मा अनुस्यूत है, तो निखिल विश्व के मनुष्य ही नहीं, समस्त जीवधारी मूलतः अभिन्न हैं। ऐसी स्थिति में मानव-मानव में भेद-वर्ण, जाति, सम्प्रदाय, राष्ट्र, रंग आदि में भेद-मिथ्या हैं। स्पष्ट है कि समभाव-समबुद्धि का यह गाँधीवादी सिद्धान्त मनुष्य को ईश्वर की सृष्टि का स्वामी नहीं, सेवक बनाता है।

गाँधी जी के दूसरे मौलिक तत्त्व के अनुरूप मनुष्य अपने मूल रूप में आत्मा है और उसका भौतिक जीवन उसके आध्यात्मिक जीवन का स्थूल प्रदर्शन-मात्र है। सूक्ष्म रूप में उसका जीवन उसी आत्मा की क्रिया है, जो चराचर में अनुस्यूत है। इसलिए जो घटना एक शरीरधारी पर घटती है, उसका प्रभाव समस्त जड़-पदार्थ और उसकी आत्मा पर पड़ता है। यही कारण है कि यदि एक मनुष्य का आध्यात्मिक विकास होता है, तो उससे सारे संसार का लाभ होता है और यदि एक व्यक्ति का पतन होता है, तो उस अंश में सारे संसार का पतन होता है।

जहाँ तक 'अहिंसा' का सम्बन्ध है, गाँधी जी ने स्थान-स्थान पर कहा है कि अहिंसा सत्य का ही दूसरा पहलू है-यह सत्य का भाव-पक्ष है। अहिंसा कोई स्थूल वस्तु नहीं है, जो हमारी दृष्टि के सामने हो। 'किसी को मारना' इतना तो है ही; लेकिन इससे आगे कुविचार-मात्र हिंसा है, उतावलापन हिंसा है, मिथ्या' भाषण हिंसा है, द्वेष हिंसा है, किसी का बुरा चाहना हिंसा है तथा जगत् के लिए जो वस्तु आवश्यक है, उस पर कब्ज़ा करना भी हिंसा है।

यहाँ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गाँधी जी ने सिद्धान्तों के लिए ही सिद्धान्तों की प्रतिष्ठा नहीं की, बल्कि उन्हें अपने व्यवहार में अत्यन्त सफलतापूर्वक क्रियान्वित करके भी दिखाया। सत्य का आग्रहपूर्ण आचरण ही उनका 'सत्याग्रह' था। उनकी मान्यता थी कि अत्याचार और अधर्म का सत्य-साधनों से विरोध करते हुए लोकनिन्दा, कष्ट एवं मृत्यु का भय सर्वथा त्याग देना चाहिए। वे तो शत्रु-तक को भी कष्ट देने के पक्षधर नहीं थे, बल्कि उसके हृदय-परिवर्तन के हिमायती थे। उनके 'सर्वोदय' का अर्थ है-सबकी उन्नति और उसका ध्येय है-हृदय परिवर्तन। उनके सत्याग्रहों और आन्दोलनों का यही लक्ष्य था-अन्यायी, शोषक और अनीतिवान् का हृदय-परिवर्तन। इसीलिए तो उन्होंने उत्तम साध्य की प्राप्ति हेतु उत्तम साधनों को अपनाने पर बल दिया तथा सत्य और अहिंसा का पाठ पढ़ाकर राष्ट्रीय आन्दोलन को एक नई दिशा प्रदान की।

ध्यातव्य है कि गाँधी जी ने न-केवल देश के राजनीतिक जीवन को ही प्रभावित किया, बल्कि हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और आर्थिक जीवन के सभी पक्षों-साम्प्रदायिक एकता, अस्पृश्यता निवारण, ग्राम सुधार, मद्य निषेध, शिक्षा प्रसार, नारी उत्थान, राष्ट्र प्रेम और समाजवाद आदि-को भी उज्ज्वलता प्रदान की। उदार तथा उच्चतम मान्यताओं पर आधारित यह मानवतावाद ही गाँधीवाद है। मानवता और विश्व-शान्ति के जो स्वर इस चिन्तन से गंुजरित हुए, वे युग-युगों तक प्रतिध्वनित होते रहेंगे और विश्व-शान्ति एवं वसुधैव-कुटुम्बकम् की अवधारणा को मुखरित करते रहंेंगे। इतना ही नहीं, मनुष्यता के बर्बरीकरण को दिखातीं घटनाएँ दुनिया-भर में जब भी होंगी, जब-जब भी साम्प्रदायिकता, युद्धोन्माद और विभेदकारी संकीर्ण राष्ट्रवाद, धर्म, नस्ल, भाषा या जाति के आधार पर नफ़रत और हिंसा अपना सिर उठाएगी, तब-तब सत्य, अहिंसा, करुणा, सहिष्णुता, प्रेम आदि मानवीय गुणों तथा सर्वधर्म-समभाव एवं विश्वमानवता की साधक राष्ट्रीयता के साथ गाँधी वहाँ उपस्थित होंगे (रेणु व्यास) ।

भारतीय जनमानस ने महात्मा गाँधी को 'बापू' , 'राष्ट्रपिता' और 'महात्मा' के पद पर अभिषिक्त कर उन्हें अभूतपूर्व श्रद्धा अर्पित की है। भारतीय संदर्भ में गाँधी जी के अप्रतिम व्यक्तित्व का आकलन करते हुए नेहरू जी ने कहा था-"एक बड़ी-भारी मूर्त्ति की तरह बापू हिन्दुस्तान के इतिहास की आधी सदी में पाँव फैलाए खड़े हैं। वह बड़ी-भारी मूर्त्ति शरीर की नहीं, बल्कि मन और आत्मा की है।" वास्तव में, गाँधी जी का व्यक्तित्व इतना महान् था कि तत्कालीन भारतीय जीवन का प्रत्येक पक्ष उनसे प्राणोदित, प्रभावित और संचालित रहा है। जहाँ तक हिन्दी-साहित्य का सम्बन्ध है, गाँधीवादी दर्शन, किसी-न-किसी रूप में, प्रायः सभी क्षेत्रों में आच्छादित रहा है। डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित के अनुसार, "हिन्दी साहित्यकारों ने गाँधी की विचारधारा को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहजतः अथवा प्रतिक्रिया-प्रेरित होकर इतना अपनाया कि द्विवेदी-युग और छायावादयुगीन अधिकांश लेखन गाँधीमय हो गया।" आइए, अब हिन्दी-साहित्य पर पड़े गाँधी-दर्शन का सर्वतोमुखी अवलोकन करें-

हिन्दी-कविता पर गाँधी-चिन्तन का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है। ठाकुर गोपालशरणसिंह 'नेपाली' ने अपने बीस-सर्गीय 'जगदालोक' महाकाव्य में बापू की यशोगाथा गाई है। ठाकुरप्रसादसिंह ने 'महामानव' महाकाव्य में गाँधी जी को स्वर्णिम शक्ति के रूप में अभिनंदित किया है। उनका 'मृत्युंजयी' काव्य भी इसी परिप्रेक्ष्य में दर्शनीय है। नटवरलाल 'स्नेही' ने 'गाँधीचरितमानस' में गाँधी को एक अवतार मानकर "करने आया था भूमि पर नारायण नर की लीला" कहा है। घोषित गाँधीवादी सियारामशरण गुप्त ने 'गाँधी-अवतरण' में किसी अलौकिक चमत्कार की कल्पना की है। गाँधी को 'कालातीत' , 'कालतीर्थ' , 'आत्मलोक' , 'सर्वकाल' , 'सर्वात्मीय' , 'निखिलबंधु' , 'कालजयी' , 'कीर्त्तिमान' और 'पूर्ण विश्वमानव' आदि बताते हुए गुप्त जी ने अपने समूचे काव्य-साहित्य में गाँधी-सिद्धान्तों की पूर्ण प्रतिष्ठा की है। कहना न होगा कि सियारामशुरण गुप्त का हृदय और बुद्धि, दोनों स्तरों पर गाँधी-दर्शन से पूर्ण सामंजस्य है और वह उनकी आत्मा में रम गया है। गुप्त जी की ही तरह सोहनलाल द्विवेदी भी सर्वांग-सम्पूर्ण गाँधीवादी हैं। उन्होंने अपने काव्य-ग्रन्थों (सेवाग्राम, गाँधी शतदल, गान्ध्ययन, युगाधार, दांडीयात्रा, पूजागीत, जय गाँधी आदि) में गाँधी को युगनेता के रूप में चित्रित किया है। इसी कड़ी में अम्बिकाप्रसाद 'दिव्य' का सातकाण्डी महाकाव्य 'गाँधीगाथा' उल्लेखनीय है, जो मनसा-वाचा-कर्मणा गाँधी-सिद्धान्तों का पूर्णतः हिमायती है। इस पीढ़ी के अन्य गाँधी-प्रभावित रचनाकारों में सर्वश्री सुभद्राकुमारी चैहान, अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' , रामनरेश त्रिपाठी, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' और मैथिलीशरण गुप्त गाँधीवाद से बहुत दूर-तक प्रभावित हैं। गाँधी-चिन्तन का शायद ही कोई ऐसा बिन्दु हो, जो इनके विशाल काव्य में, किसी-न-किसी रूप में, चरितार्थ न हुआ हो। वास्तव में, उन्होंने अवसर खोज-खोजकर गाँधी-दर्शन का व्यावहारिक पक्ष उद्घाटित किया है। सर्वश्री रघुवीरशरण मित्र ( 'जननायक' ) और गोकुलचन्द्र शर्मा ('गाँधी गौरव') भी इसी कोटि के कृतिकर हैं।

'स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह' की अवधारणा पर टिका 'छायावाद' , एक दृष्टि से, गाँधीवाद से ही प्रेरित है। उसकी हर व्याख्या में गाँधी जी उपस्थित मिलेंगे। 'कामायनी' के 'इड़ा' और 'संघर्ष' सर्गों के अतिरिक्त दया, माया, ममता, चरखा कातने और पशु-हिंसा पर शोक मनाने वाली श्रद्धा का सम्पूर्ण चरित्रांकन गाँधी-प्रभावित है। महादेवी वर्मा ने 'आलोक-लेख' में गाँधी जी की आरती उतारी है। 'राम की शक्ति-पूजा' में 'निराला' जी ने साम्राज्यवाद से टक्कर लेते भगवान राम में गाँधी जी के प्रति अपना भक्ति-भाव प्रकट किया है। गाँधी जी के आह्वान पर ही पन्त ने 'भारतमाता ग्रामवासिनी' के माध्यम से हिन्दी में ग्राम-चेतना लाने का महान् कार्य किया था। इतना ही नहीं, उन्होंने गाँधी जी को 'समदिक् जीवन का उन्नायक युग-नर' , 'युग-जीवन का हृदय-विधाता' , 'मानवात्मा का प्रतीक और उसका उद्धारक' , 'अमृतपुत्र' , 'भूस्वर्गदूत' , 'युगात्मा' और 'देखा न चरित्र धरा ने तुम-सा समग्र संयोजित' आदि अलंकरणों से सुसज्जित करके अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित किए हैं।

राष्ट्रीय काव्यधारा के अन्तर्गत गाँधी-चिन्तन से प्रभावित कवियों में सर्वश्री हरिवंशराय 'बच्चन' , माखनलाल चतुर्वेदी, रामधारीसिंह 'दिनकर' और रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' आदि उल्लेखनीय हैं। बच्चन जी ने गाँधी पर सात कविताएँ लिखी हैं। 'सूत की माला' में उनकी गाँधी-भक्ति द्रष्टव्य है। दिनकर-प्रणीत 'बापू' , 'परशुराम की प्रतीक्षा' और 'कुरुक्षेत्र' आदि कृतियाँ गाँधीवादी होने की अपनी गवाही स्वयं दे रही हैं। वे गाँधी को शान्ति का नहीं, बल्कि क्रान्ति का अग्रदूत मानते रहे हैं-"गाँधी शरबत नहीं, प्रखर पावक-प्रवाह था।" गाँधी जी के महाप्रयाण पर 'दिनकर' ने उनकी पुण्यात्मा को ईश्वरावतारों की श्रेणी में प्रतिष्ठित किया था। 'पुष्प की अभिलाषा' के रचयिता माखनलाल चतुर्वेदी अन्तर्वाह्य, दोनों रूपों में, विशुद्ध गाँधीवादी रहे। उन्होंने 'सेवासदन विद्यामन्दिर' की स्थापना की। गाँधी जी के नाम पर 45 वर्षों तक 'कर्मवीर' का सम्पादन किया। हाथ की खादी का बना कुर्ता पहनकर तथा अपने हाथों-पिसे अन्न की रोटी खाकर जीवन-यापन किया और इस 'एक भारतीय आत्मा' ने सदैव यही आह्वान किया-"महलों पर कुटियों को वारो, पकवानों पर दूध-दही, राजपथों पर कूचे वारो।" "घूमता चरखा लिए गिरि पर चढ़ो, ले अहिंसा-शस्त्र आगे ही बढ़ो।" इतना ही नहीं, उन्होंने मोहनदास करमचन्द गाँधी को (कृष्ण का) अवतार सिद्ध करके समादृत किया है।

नई कविता के अन्तर्गत गाँधीवाद से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष-प्रभावित कवियों में गिरिजाकुमार माथुर, धर्मवीर भारती, नरेश मेहता और भवानीप्रसाद मिश्र आदि गण्य हैं। 'अन्धायुग' के कृष्ण, स्पष्टतः, गाँधी के अनुपूरक हैं। नरेश मेहता ने अपने छहखण्डी खण्डकाव्य 'प्रार्थना-पुरुष' में'गाँधी-दर्शन की सार्थकता और सनातनता प्रतिपादित की है।' मुक्तिबोध 'के' अँधेरे में'गाँधी जी द्वारा बच्चा सौंपने के प्रकरण को विद्वानों ने स्वाधीनता-संग्राम के मूल्य / आदर्श सौंपने के अर्थ में ग्रहण किया है। यों इस युग के भवानीप्रसाद मिश्र अकेले कवि-मनीषी हैं, जिन्होंने गाँधीवादी सिद्धान्तों का बहुशः प्रतिपादन किया है।' गाँधी वाङ्मय'का सम्पादन हो या' गाँधी पंचशती' की कविताएँ, सबमें गाँधी समाये हुए हैं। वास्तव में, मिश्र जी ने अपनी कविताओं में गाँधी-दर्शन का जैसा व्यावहारिक दिग्दर्शन कराया है, वह सर्वथा अनन्य है। (सूर्यप्रसाद दीक्षित)

हिन्दी-कविता के पश्चात्, अन्य विधाओं की अपेक्षा, हिन्दी कथा-साहित्य ने गाँधीवाद को सर्वाधिक ग्रहण किया है। डॉ. विनय के अनुसार, नव्यकथा-आन्दोलन से पूर्व जिन प्रतिष्ठित कथा-लेखकों ने सहज रूप से गाँधी को स्वीकार किया और यदा-कदा गाँधी जी की विचारधारा का वैचारिक रूप में समर्थन किया, उनमें सर्वश्री प्रेमचन्द, जैनेन्द्र, भगवतीप्रसाद वाजपेयी, वृन्दावनलाल वर्मा, चतुरसेन शास्त्री, प्रतापनारायण श्रीवास्तव, सियारामशरण गुप्त, पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' , विश्वभरनाथ शर्मा कौशिक, भगवतीचरण वर्मा, राधिकारमणप्रसाद सिंह, यज्ञदत्त शर्मा, ऋषभचरण जैन, रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' और विष्णु प्रभाकर आदि प्रमुख हैं। ध्यातव्य है कि इस सूची में जैनेन्द्र जी तो घोषित गाँधीवादी हैं ही, प्रेमचन्द भी मनसा-वाचा-कर्मणा गाँधी-दर्शन से प्रभावित-प्रेरित रहे हैं। ध्यातव्य है कि सन् 1923 में, गोरखपुर में, गाँधी जी के भाषण से प्रभावित होकर उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी थी। 'कुछ विचार' में आपने लिखा भी है कि "मैं महात्मा गाँधी का बना-बनाया कुदरती चेला हूँ।" इस कथन के आलोक में, उनकी किसी भी कथाकृति को खंगालिए, गाँधी-दर्शन और आन्दोलन का कोई-न-कोई पक्ष अवश्यमेव उजागर होता दिखाई देगा। उनका 'रंगभूमि' उपन्यास तो, डॉ. इन्द्रनाथ मदान के अनुसार, "गाँधीवाद के उन्माद के क्षणों की सजग रचना" है ही। गाँधी-युग के प्रथम तीन चरणों के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और साम्प्रदायिक जीवन के सभी पहलुआंे और समस्याओं का जितना सांगोपांग और सटीक चित्रण प्रेमचन्द में मिलता है, वैसा तो हिन्दी के किसी साहित्यकार में मिलता ही नहीं है-भारत के किसी अन्य साहित्यकार में मिलता है, इसमें भी संदेह है। (डॉ. नगेन्द्र) ।

प्रेमचन्द के पश्चात् जैनेन्द्र जी की प्रत्येक कथाकृति इस तथ्य की साक्षी है कि उन्होंने गाँधीवादी 'प्रेम और अहिंसा' की अवधारणा को अक्षरशः ग्रहण किया है। इस दृष्टि से उनका 'जयवर्धन' हमेशा याद रहेगा। इसी परम्परा में सियारामशरण गुप्त-कृत 'नारी' उपन्यास का विशेष स्थान है। 'विसर्जन' , 'बयालीस' (प्रतापनारायण श्रीवास्तव) , 'अमरबेल' (वृन्दावनलाल वर्मा) तथा 'बूँद और समुद्र' एवं 'अमृत और विष' (अमृतलाल नागर) आदि में यदि अहिंसा-शक्ति का रूपायन हुआ है, तो 'गुप्तधन' , 'पतवार' (भगवतीप्रसाद वाजपेयी) तथा 'बैया का घोंसला' और 'साँप' में सत्य-पथ पर अडिगता का सफलांकन हुआ है। फणीश्वरनाथ रेणु के 'मैला आँचल' का बावनदास भी गाँधी की याद दिलाता है। 'बलचनमा' , 'दुखमोचन' (नागार्जुन) , 'सबहिं नचावत राम गोसार्इं' (भगवतीचरण वर्मा) , 'अनबुझी प्यास' , (दुर्गाशंकर मेहता) तथा 'पानी के प्राचीर' (रामदरस मिश्र) भी गाँधीवादी उपन्यास हैं। गिरिराज किशोर के 'लोग' तथा 'जुगलबंदी' के पश्चात् बहुचर्चित वृहद्-उपन्यास 'पहला गिरमिटिया' ने हिन्दी कथा-साहित्य में गाँधीवाद को पुनः जीवित कर दिया है। गाँधी जी के दक्षिण-अफ्रीकी जीवन पर आधारित इस उपन्यास में गाँधी-जीवन के तीन पक्षों-मोहनिया, मोहनदास, महात्मा-का अत्यन्त जीवन्त, सफल, सांगोपांग और प्रभावकारी चरित्रांकन हुआ है।

जहाँ तक कहानी-लेखन का सम्बन्ध है, इस कालखण्ड में, आदर्शवाद और आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद के झण्डे-तले, सत्य, अहिंसा, नैतिकता, कर्मवाद, आस्थावाद, सर्वधर्म-समन्वय, हृदय-परिवर्तन, त्याग, सेवाभाव, सहनशीलता, बलिदान, सत्याग्रह, नारी-मुक्ति, वेश्या-समस्या, विधवा-विवाह, साम्प्रदायिकता, अछूतोद्धार, ग्रामोद्धार तथा स्वाधीनता-प्राप्ति की अवधारणा आदि-आदि धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक प्रश्नों पर जितनी भी कहानियाँ लिखी गई हैं, उन सभी पर, लगभग शत-प्रतिशत, गाँधी-चिन्तन का ही प्रभाव पड़ा है। डॉ. विनय के शब्दों में-"राष्ट्रीय जीवन को एक स्वतंत्र, शोषणमुक्त और समानाधिकार-सम्पन्न करने में गाँधी जी ने जो दृष्टि अपनाई, वह अपनी तमाम सीमाओं के बावजू़़द एक सकारात्मक दृष्टि के रूप में मान्य हुई और हिन्दी की कहानी ने उस समय में ही नहीं, भविष्य की जीवन्त रेखाओं में जो रंग भरा, उसका बहुत-कुछ श्रेय गाँधी जी को जाता है और इक्कीसवीं शती के इस प्रारम्भिक छोर पर लेखक, विचारक, सामाजिक उद्धारक और राजनेता यदि गाँधी को पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, तो उन्हें पूरी तरह अस्वीकार करने के तर्क भी उनके पास नहीं हैं।" (सम्पा।, डॉ. सुशीला गुप्ता, हिन्दी साहित्य और गाँधीवादी चेतना, पृ। 82)

गाँधी जी के व्यक्तित्व एवं विचारणा से प्रभावित-प्रेरित होकर हिन्दी-नाटक ने भी अपना भरसक योगदान दिया है। इस दृष्टि से उल्लेखनीय नाट्यकारों में उदयशंकर भट्ट, हरिकृष्ण प्रेमी, सेठ गोविन्ददास और विष्णु प्रभाकर की गणना की जा सकती है। शोधकों ने प्रसाद जी के नाटकों पर भी गाँधी-दर्शन के अप्रत्यक्ष प्रभाव की खोजबीन की है। इनके अतिरिक्त मिश्रबंधु (पूतपावन) , प्रेमचन्द (कर्बला, प्रेम की बेदी) , मैथिलीशरण गुप्त (तिलोत्तमा, चन्द्रहास, अनघ) , सियारामशरण गुप्त (उन्मुक्त) , पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' (महात्मा ईसा) , शिवरामदास गुप्त (गरीबों की दुनिया) , लक्ष्मीनारायण मिश्र (मृत्युंजय, अशोक, सिंदूर की होली) और विनोद रस्तोगी (आज़ादी के बाद, नया हाथ) आदि के नाट्य साहित्य पर भी गाँधीवादी विचारधारा ने अपना प्रभूत प्रभाव डाला है। संक्षेप में, सही अर्थों में, सर्वश्री उदयशंकर भट्ट (सगरविजय, मुक्तिदूत, शकविजय, दाहर आदि) , हरिकृष्ण प्रेमी (स्वप्नभंग, प्रतिशोध, उद्धार, विषपान, आन का भान, बंधन, प्रकाशस्तम्भ, शिवसाधना आदि) , सेठ गोविन्ददास (श्रीहर्ष, शशिगुप्त, दुःख क्यों, ग़रीबी या अमीरी, हिंसा या अहिंसा, प्रकाश, सेवापथ, संतोष कहाँ) तथा विष्णु प्रभाकर (प्रायः सभी नाटक और रेडियो-रूपक) ऐसे नाटककार हैं, जिनके नाट्य-साहित्य में गाँधीवादी सिद्धान्तों का खुला उद्घोष हुआ है। सत्यनिष्ठा, करुणा, विश्वमैत्री, प्रेम-सौहार्द, स्वातंत्र्य चेतना, साम्प्रदायिक एकता, सर्वधर्म समभाव, राष्ट्रीय चेतना, नारी गरिमा तथा सर्वोदय-अन्त्योदय आदि समस्त गाँधीवादी प्रवृत्तियाँ यहाँ पदे-पदे उपलब्ध हैं। 'हत्या एक आकार की' (ललित सहगल) , 'बकरी' (सर्वेश्वरदयाल सक्सेना) , 'बापू' (नंदकिशोर आचार्य) , गाँधी को फाँसी दो (गिरिराज किशोर) , 'गोडसे@ गाँधी।कॉम' (असगर वजाहत) और 'पहला सत्याग्रही' (रवीन्द्र त्रिपाठी) आदि नाटक भी गाँधीवादी चिन्तन से ओत-प्रोत हैं। इतना होते हुए भी डॉ. त्रिभुवनराय संतुष्ट नहीं हैं। वे मानते हैं-"यद्यपि गाँधी के घटनाक्रम से आपूरित जीवन, विचारधारा एवं संदृष्टि को नाटकों के माध्यम से उकेरने वाले कई नाटककार हिन्दी में हुए हैं, तथापि गाँधी जैसे विराट युगपुरुष को, नाटककार के रूप में, आज भी किसी भवभूति, किसी विशाखदत्त, किसी हर्ष और किसी भास की प्रतीक्षा है।"

हिन्दी में गाँधी-प्रभावित निबन्ध-साहित्य भी उपलब्ध है। गाँधी जी के अनुयायियों-हरिभाऊ उपाध्याय, काका कालेलकर, बाबू राजेन्द्रप्रसाद और सम्पूर्णानन्द आदि-द्वारा रचित निबन्धों में गाँधी-दर्शन का ही प्रस्फुटन और व्याख्यायन हुआ है। उदाहरणार्थ, 'बापू के आश्रम में' , 'स्वतंत्रता की ओर' , 'सर्वोदय की बुनियाद' , 'हमारा कत्र्तव्य और युगधर्म' , 'हिंसा का मुकाबला कैसे करें' (हरिभाऊ उपाध्याय) , 'जीवन का काव्य' , 'जीवन-साहित्य' आदि (काका कालेलकर) , 'साहित्य, शिक्षा और संस्कृति' तथा 'भारतीय शिक्षा' (बाबू राजेन्द्रप्रसाद) और 'शिक्षा का उद्देश्य' (सम्पूर्णानन्द) निबन्ध-संग्रह देखे जा सकते हैं। इस दृष्टि से वासुदेवशरण अग्रवाल का 'राष्ट्र का स्वरूप' निबन्ध भी अपनी विशिष्ट पहचान रखता है।

साहित्यिक निबन्धकारों में सर्वप्रथम गाँधीवाद को अपनाने वाले बाबू गुलाबराय ( 'राष्ट्रीयता' और 'मेरे निबन्ध' शीर्षक-संग्रह) ने मनसा-वाचा-कर्मणा गाँधीवाद को ही पल्लवित-पुष्पित किया है। हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबन्ध 'मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है' में गाँधी-चेतना भली-भाँति अनुस्यूत है। दर्जनाधिक निबन्ध-संग्रहों (पूर्वोदय',' मन्थन',' प्रस्तुत प्रश्न',' साहित्य का श्रेय और प्रेय',' काम, प्रेम और परिवार',' सोच-विचार',' ये और वे',' समय और हम',' इतस्ततः',' परिप्रेक्ष्य',' राष्ट्र और राज्य',' प्रश्न और प्रश्न',' अकालपुरुष गाँधी'आदि-आदि) के प्रणेता "जैनेन्द्र गाँधी जी की अन्तस्थ मूल प्रेरणाओं को, शायद, सबसे-अधिक गहराई से समझ और पकड़ सके हैं"। (डॉ. उमा शुक्ल) इसी श्रेणी में भवानीप्रसाद मिश्र-कृत' कुछ नीतिः कुछ राजनीति'निबन्ध-संग्रह साक्षी है कि गाँधीवाद उनके लिए केवल एक-वैचारिक प्रेरणा का स्रोत नहीं था, वरन् उनकी चेतना और संवेदना का अभिन्न हिस्सा बन गया था।' गाँधी की प्रासंगिकता' श्री कुबेरनाथ राय का एक अत्यन्त प्रसिद्ध निबन्ध है, जिसमें उन्होंने वर्तमान विषाक्त एवं हताशापूर्ण वातावरण में अकेले महात्मा गाँधी को ही वन्दनीय, स्मरणीय एवं समस्याओं का स्थायी समाधान देने वाले महापुरुष के रूप में चित्रित किया है।

हिन्दी में गाँधी जी के जीवन, व्यक्तित्व और चिन्तन पर आधारित जीवनी-साहित्य भी लिखा गया है। इस दृष्टि से स्तरीय जीवनी-ग्रन्थों में 'गाँधी जी कौन हैं' (बाबू राजेन्द्रप्रसाद) और 'श्री गाँधी' (गणेशशंकर 'विद्यार्थी' ) विशेष उल्लेखनीय हैं।

उपर्युक्त पर्यालोचन से यह स्पष्ट है कि "महात्मा गाँधी एक युगपुरुष के रूप में धरा पर अवतरित हुए थे। उनके सम्बन्ध में जितना-कुछ भी कहा जाय, कुछ-न-कुछ कहने को शेष रह ही जाता है (रामधारीसिंह 'दिनकर' ) । वास्तव में, वे" व्यक्ति नहीं, पूर्ण सत्य"(शान्तिप्रिय द्विवेदी) के रूप में प्रकट हुए और यत्र-तत्र-सर्वत्र छा गये। फलस्वरूप, समूचा गाँधीयुगीन हिन्दी-साहित्य उनके आभामण्डल से ही प्रकाशित होता रहा। हाँ! यह भी एक कटु सत्य है कि स्वातंत्र्योत्तर युग के साहित्यकारों के लिए गाँधीवादी नीतियाँ पत्थर तोड़ने के समान हो गयीं। वास्तव में, यहाँ पहुँचकर, गाँधी-प्रणीत औपनिषदिक् संदेश-" तेन त्यक्तेन भुंजीथा"(त्याग-भाव से भोग करना) और गीता-संदेश" कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन"- (अनासक्त-भाव से निष्काम कर्म करना) का रास्ता दकियानूसी और पिछड़ेपन का द्योतक हो गया, जिससे साहित्यकार भी अछूते नहीं रहे।" (सम्पा। डॉ. सुशीला गुप्ता, हिन्दी साहित्य और गाँधीवादी चेतना, पृ। xi) मैं अपनी बात माधव कौशिक के इस निष्कर्ष से समाप्त करना चाहूँगा-"... हमारे साहित्यकार नाम लें या ना लें, लेकिन जहाँ भी इस समाज में किसी को दर्द होगा, किसी ग़रीब आदमी के पाँव में काँटा चुभेगा, गाँधी जी ज़रूर याद आएँगे। गाँधी जी तब भी याद आएँगे, जब इस समाज का विघटन होने को होगा। अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद-जैसी जितनी संकट की स्थितियाँ आती रहेंगी, आपको गाँधी उतना याद आएँगे; उतने ही गाँधी जी प्रासंगिक होते जाएँगे।" (सम्पा। आलोक गुप्त, गाँधी और 1980 के बाद का हिन्दी-गुजराती साहित्य, पृ-248) ।