गाँधी जी की दृष्टि में नारी शिक्षा / उमा अर्पिता

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गाँधी जी के चिंतन का फलक अत्यंत व्यापक और बहुआयामी रहा है। वे चाहे, एक लोकोत्तर पुरुष थे, फिर भी उन्होंने अपना मन, लोगों के सामने खोलकर रखा हुआ था। अपनी श्रेष्ठ जीवन-शैली और आचरण के द्वारा उन्होंने अपनी पीढ़ी के विचारों पर बहुत गहरा असर डाला था। उनके द्वारा व्यक्त विचार और अभिमत हमारी और भावी पीढ़ियों के लिए पवित्र हैं।

गाँधी जी को अहिंसा का प्रतीक माना जाता है। अहिंसा का अर्थ है-असीम प्रेम, अर्थात पीड़ा भोगने की असीम सामर्थ्य। यह सामर्थ्य स्त्री से अधिक और किसमें है, जो पुरुष की माँ है। स्वयं पीड़ा भोगना स्त्री के स्वभाव में है, इसलिए अहिंसा उसके लिए अधिक सहज है। वह स्वभावतः सहनशील है।

गाँधी जी के विचार में स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं है। लेकिन आज भी अधिकांश स्त्रियाँ स्वतंत्र चिंतन नहीं करतीं। वे अपने माता-पिता अथवा अपने पति के आदेशों का पालन करके ही संतोष का अनुभव कर लेती हैं। अपनी निर्भरता का अहसास होने पर वे स्त्री अधिकार की आवाज बुलंद करने लगती हैं। महिला कार्यकर्ताओं को चाहिए कि ऐसा करने के बजाय स्त्रियों के नाम मतदाता सूचियों में लिखवाएँ, उन्हें व्यावहारिक शिक्षा दें या दिलाने की व्यवस्था करें, उन्हें स्वतंत्र रूप से सोचने की सीख दें और जात-पांत के बंधनों से मुक्त करायें ताकि उनकी सोच और उनके जीवन-वृत्त में बदलाव आए। इससे पुरुष प्रधान समाज उनकी शक्ति और त्याग की क्षमता को पहचान कर, उन्हें सम्मानित स्थानों पर आसीन करने के लिए बाध्य हो जाएगा।

भारत, नारी शिक्षा के विषय में बहुत पिछड़ा हुआ है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन, इसका अर्थ यह भी नहीं कि भारतीय महिलाएँ अपने कर्तव्य पूरा करने में किसी से पीछे हैं। शिक्षा से, गाँधी जी का अभिप्राय मात्र अक्षर ज्ञान से नहीं था। वे कहा करते थे कि एक प्राचीन सूक्ति ‘‘सा विद्या या विमुक्तये’’ आज भी उतनी ही सत्य है जितनी कि पहले थी। अर्थात शिक्षा से यहाँ आशय केवल आध्यात्मिक शिक्षा से नहीं है, न विमुक्ति से आशय मृत्यु के उपरांत मोक्ष से है। ज्ञान में वह समस्त प्रशिक्षण समाहित है जो मानव जाति की सेवा के लिए उपयोगी है, और विमुक्ति का अर्थ है, वर्तमान जीवन की भी सभी प्रकार की पराधीनताओं से मुक्ति। पराधीनता दो प्रकार की होती है: बाहरी आधिपत्य की दासता और आदमी की अपनी कृत्रिम आवश्यकताओं की दासता। इसी आदर्श की प्राप्ति के लिए किया गया ज्ञानार्जन सच्ची शिक्षा है।

गाँधी जी कहा करते थे कि आज शुद्ध जल, शुद्ध पृथ्वी और शुद्ध वायु हमारे लिए अपरिचित हो गए हैं। हम आकाश और सूर्य के अपरिमेय मूल्य को नहीं पहचानते। अगर हम पंच तत्वों, पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु का बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग करें और सही तथा संतुलित भोजन करें तो हम युगों का काम पूरा कर सकेंगे। इस ज्ञान के अर्जन के लिए न डिग्रियों की आवश्यकता है, न करोड़ों रुपयों की। इसके लिए ईश्वर में जाग्रत विश्वास चाहिए, सेवा करने का उत्साह चाहिए, पंचतत्वों से परिचय चाहिए और आहार विज्ञान की जानकारी चाहिए।

निरंतर शंका और शुद्ध जिज्ञासा किसी भी प्रकार के ज्ञानार्जन की पहली शर्ते हैं। जिज्ञासा के मूल में विनम्रता और गुरु के प्रति आदरभाव होना चाहिए। ध्यान रहे कि वह विकृत होकर उद्धतता में न बदल जाए। उद्धतता बुद्धि की ग्रहणशीलता की शत्रु है। विनम्रता और सीखने की इच्छा के बिना ज्ञान की प्राप्ति असंभव है।

नए संसार की रचना के लिए शिक्षा भी नई तरह की होनी चाहिए।

आदमी साक्षरता अथवा विद्धतता से आदमी नहीं बनता, बल्कि सच्चे जीवन के लिए ली गयी शिक्षा से बनता है।

गाँधी जी का आग्रह था कि व्यस्क मताधिकार के साथ ही साथ अथवा उससे भी पहले सर्वजनीन शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए, जिसका पुस्तकीय होना अनिवार्य नहीं है-पुस्तकें तो संभवतः उसकी सहायक की भूमिका ही निभा सकती हैं। उनका मानना था कि अँग्रेजी शिक्षा ने हमारे दिमागों को कंगाल बना दिया है, कमजोर कर दिया है और उन्हें साहसी नागरिकता के लिए कभी तैयार नहीं किया। यदि हममें, ईमानदारी और उत्साह हो तो नागरिकता के मर्म को, समझने की शिक्षा अल्पसमय में ही ग्रहण की जा सकती है।

गाँधी जी ने कहा था, ‘‘मैं स्त्री की उचित शिक्षा में विश्वास करता हूँ। लेकिन मेरा पक्का विश्वास है कि पुरुष की नकल करके या उसके साथ होड़ लगाकर वह दुनिया में अपना योगदान नहीं कर सकेगी। वह होड़ लगा सकती है, पर पुरुष की नकल करके वह उन ऊँचाइयों को नहीं छू सकती, जिनकी सामर्थ्य उसके अंदर है। उसे पुरुष का पूरक बनना है।’’

जहाँ तक स्त्री शिक्षा का संबंध है, मैं निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता, कि यह पुरुषों की शिक्षा से भिन्न होनी चाहिए या नहीं और इसकी शुरुआत कब होनी चाहिए। लेकिन मेरी पक्की राय है कि स्त्रियों को भी पुरुषों के समकक्ष शिक्षा-सुविधाएँ मिलनी चाहिए और जहाँ आवश्यक हो वहाँ उन्हें विशेष सुविधाएँ भी दी जानी चाहिए।

गाँधी जी का सोचना था कि स्त्री शिक्षित होगी, तभी घर, परिवार और समाज में अपने सही स्थान को पहचान पाएगी। शिक्षा उसमें सोये आत्मविश्वास को जगाएगी, जो अपने बच्चों का उचित पालन-पोषण करने में उसका सहायक होगा। परिवार की डरी-सहमी महिला के बच्चों का स्वाभाविक विकास किसी भी तरह संभव नहीं।

गाँधी जी जानते थे कि स्त्री शिक्षा का प्रभाव होने के कारण ही समाज में स्त्री-पुरुष असमानता, पर्दा प्रथा, दहेज प्रथा, तलाक, बाल विवाह तथा वेश्यावृत्ति जैसी कुरीतियाँ फैली हुई हैं। उन्होंने हमेशा यही कहा कि यदि नारी शिक्षित होती, तो वह इन समस्याओं, इन कुरीतियों के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए तथा इनका सामना करने का आत्मबल रखती, जिसके लिए नारी शिक्षा का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जो उसकी मानसिकता में क्रांति ला दे, उसके सामने ज्ञान के नए क्षितिज खोल दे।