गाँव के कवि त्रिलोचन / स्मृति शुक्ला
आधुनिक हिन्दी कविता के सशक्त हस्ताक्षर, लोक सौन्दर्य और संवेदना के तथा जनपद के समर्थ कवि, शब्द साधक, अनूठे सॉनेट शिल्पी त्रिलोचन अपने जीते जी ही किवंदति पुरूष बन गये थे। त्रिलोचन के 17 कविता संग्रह प्रकाशित हुए. उन्होंने गीत, ग़ज़ल कुंडलियाँ, सॉनेट, मुक्त छंद एवं गद्य कविताएँ लिखी, लेकिन त्रिलोचन को सॉनेट से अपार ख्याति मिली और वे सॉनेट के ही पर्याय बन गये। चौड़ी छाती और सादगी भरा लिबास, छोटी किन्तु ज्ञान के तेज से दिपदिपाती आँखें, गाँव के एक कर्मठ जन या खेतिहर किसान जैसा रंग-रूप। जीवन संघर्षों के ताप में तपकर उनका व्यक्तित्व निखरा है। उन्होंने लिखा है-'जीवन उसका जो कुछ है पथ पर बिखरा है, तप-तप कर ही भट्टी में सोना निखरा है।' त्रिलोचन जितने कोमल, उदार और संवेदनशील थे उतने ही फौलाद की तरह दृढ़ भी थे। अभाव, गरीबी, कष्ट और सांसारिक आघातों से वे हिले नहीं न ही इन विषम परिस्थितियों में उन्होंने समझौते किये। उन्होंने 'ताप के ताये हुए दिन' संग्रह की एक कविता में कहा है-
'हार नहीं मैं जीते जी मानूँगा / और लड़ूँगा उत्पातों में'
अवध क्षेत्र के जिला सुल्तानपुर कटघरा पट्टी गाँव के चिरानी पट्टी पुरवा में रघुवंशीय क्षत्रीय परिवार में 20 अगस्त 2017 को त्रिलोचन शास्त्री का जन्म हुआ। उनका वास्तविक नाम वासुदेव सिंह था। त्रिलोचन नाम उनके गुरु देवदत्त ने दिया था। त्रिलोचन "उस जनपद के कवि है जो भूखा-दूखा है, नंगा है, अनजान है, जो कला नहीं जानता।" त्रिलोचन जिस जन के कवि हैं उसकी संवेदनाओं को टोहकर उनके जीवन की गहराई में उतरकर उनकी भाषा संस्कृति को अपनी कविता में पूरी जीवंतता के साथ उकेर देते हैं। इनकी कविता में गाँव की ज़िन्दगी की वास्तविकताएँ और आकांक्षाएँ हैं, जनजीवन के चित्र हैं, गाँव की बोली-ठोली है। जातीय मन और किसान जीवन की उनकी कविताएँ नयी कविता के खाँचे में बिल्कुल भी फिट नहीं बैठती वरन वे इन कविताओं की प्रतिपक्षी बनकर उभरती हैं। इसलिये उनकी 'धरती' संग्रह की कविता अनेक आलोचकों को कविता जैसी नहीं लगी थी। प्रभाकर श्रोत्रिय ने भी अपनी पुस्तक 'कवि परंपरा तुलसी से त्रिलोचन तक' में इस बात का उल्लेख किया है। जीवन दुखमय और संघर्षमय है किन्तु त्रिलोचन जानते हैं कि ' दुख के तम में जीवन ज्योति जला करती है। किसान जीवन के संघर्ष अभाव और दुखों पर उनकी अनेक कविताएँ हैं लेकिन इनमें भावुकता का उच्छ्वास नहीं है। उनका किसान कठोर परिश्रम करके भी अभाव में जीता है, लेकिन इस अभाव में भी अपने स्वाभिमान को बचाकर रखता है। वह इन अभावों में दबता झुकता या टूटता नहीं है। "त्रिलोचन की कविता के बारे में यह कहना पर्याप्त नहीं है कि उनकी कविता किसान जीवन के संघर्ष को कविता है। उनकी कविता में किसान जीवन का संघर्ष तो है लेकिन इस संघर्ष को उन्होंने न तो मध्यवर्गीय दृष्टि से देखा है, न तटस्थता के साथ, न बौद्धिक सहानुभूति के साथ, न दयनीयता से द्रवित होकर। त्रिलोचन की दृष्टि एक सजग किसान की दृष्टि है, जो उस जीवन को स्वयं जीते और अभावों को झेलते हुए उन्हें मिली है इसलिये उनमें किसान जीवन से गहरी आत्मीयता है और इस जीवन में उपस्थित रूढ़ियों की आलोचना भी है।" 1
त्रिलोचन जनजीवन के उत्सवी उल्लास के कवि नहीं है वरन वास्तविकता के कवि हैं उन्होंने एक सॉनेट में कहा है-
अगर न हो हरियाली / कहाँ दिखा सकता हूँ?
फिर आँखों पर मेरी चश्मा हरा नहीं है।
यह नवीन ऐयारी मुझे पसंद नहीं है। जो इसकी तैयारी करते हों वे करें।
अगर कोठरी अँधेरी है तो उसे अंधेरी समझने-कहने का मुझको है अधिकार।
त्रिलोचन अपनी सजग किसान दृष्टि से प्रकृति, समाज और विश्व को देखते हैं। मानवीय सम्बंधों के चित्रण में भी उनकी यही दृष्टि है। उनकी कविता में जो जनपद है वह अति दरिद्र है, शोषित और उत्पीड़ित है। उनकी कविता में खेतिहर मजदूर अधिक आते हैं, उनमें स्त्रियाँ और गाँवों के कारीगर भी हैं। नगई मेहरा, भोरई केवट, मंगल, निरहू, भिखरिया, अवतरिया, चम्पा सोना और सुकनी बुढ़िया ऐसे चरित्र है जो गाँव में सबसे कठिन ज़िन्दगी जी रहे हैं। त्रिलोचन ने इन पात्रों के जीवन संघर्षों को, उनके ठोस अनुभवों को उनके दुख संघर्ष और उनकी जीवनी शक्ति को, अपनी लेखनी से जीवंत रूप प्रदान किया है।
गाँव में रहने वाले किसान का जीवन प्रकृति के बिना अधूरा है। किसान का अस्तित्व ही प्रकृति पर अवलंबित है। त्रिलोचन की कविताओं में प्रकृति किसान जीवन के साथ भी है और उससे स्वतंत्र रूप में भी है। उनकी कविता में कहीं सावन में बरसने वाली रिमझिम बरसात है तो भादों के प्रचंड मेघ का गर्जन भी पूरी ध्वन्यात्मकता के साथ उपस्थित है।
भरी रात भादों की-पथ लपका वह कौंधा
दीप्ति भर उठी आँखों में इतनी, फिर हम तुम
कुछ भी पकड़ सके न डीठ से छाया चैंधा।
रिमझिम रिमझिम...छक् छक् छक्, सर्-सर् सर् सर्
चम चम चमक-धमाके धन के, उत्सव निशिमद। (दिगंत पृ.30)
वर्षा और बादल के अनेक सुंदर चित्र उनकी कविताओं में हैं। त्रिलोचन का मन एक किसान का मन है इसलिये उन्हें बादलों से आत्मीयता है। बादलों को देखकर वे पुकार उठते हैं-
उठ किसान ओ, उठ किसान ओ,
बादल घिर आये हैं। तेरे हरे-भरे सावन के साथी आये हैं।
उन्हें जाड़ों में घमौनी प्रिय लगती है, हरे मटर की घॅंघनी खाना और गन्ने का रस पीना अच्छा लगता है तो जेठ की दुपहर में नीम की छाह तले बने कुएँ पर पानी पीना। जीवन सौन्दर्य के अनेक चित्र उनकी कविताओं में हैं। वे मूलतः जीवन राग के कवि हैं। उनकी प्रेम कविताओं में प्रेम के स्मृति चित्र ही ज़्यादा है।
त्रिलोचन की कविताओं में दाम्पत्य प्रेम के सुंदर चित्र हैं। त्रिलोचन का मानना है कि वह प्रेम ही है जो व्यक्ति को समाज से जोड़ता है।
प्रेम व्यक्ति-व्यक्ति से / समाज को पकड़ता है। जैसे फूल खिलता है। उसका पराग किसी और जगह पड़ता है। फूलों की दुनिया बन जाती है प्रेम में। अकेले भी हम अकेले नहीं है प्रेम में। इस जीवन का कोई भी विषय त्रिलोचन से छूटा नहीं है।
त्रिलोचन ने सीधे-सीधे प्रचलित अर्थ वाली राजनीतिक कविताएँ नहीं लिखी पर उनकी कविताओं में गहरी राजनीतिक समझ मिलती हैं। त्रिलोचन ने स्वयं कहा है कि "मेरी कविताओं में यदि राजनीति की पड़ताल करनी है जो उन्हें क्रियाओं में खोजा जाना चाहिए संज्ञापदों में नही"। 2 उनकी कविता में अपने समय और समाज की विडम्बनापूर्ण स्थितियों के यथार्थ चित्र हैं। 1953 महाकुंभ की त्रासदी पर त्रिलोचन ने 25 सॉनेट लिखे हैं। इन सॉनेटों को आलोचकों ने महाकाव्य कहा है। त्रिलोचन ने अपने सॉनेट में व्यंग्य को भी स्थान दिया है-एक हजार आठ स्वाजी जी ने डकार ली, हाथ पेट पर फेरा बोले, अधिक खा गया मर्यादा पुरषोत्तम प्रभु का ध्यान आ गया।
त्रिलोचन की कविताओं में आत्मालोचन भी है। कभी कहते हैं-
क्यों मैंने पाया है इतना नरम कलेजा
जो दुख कभी किसी का नहीं देख सकता है
आँखें भर-भर आती हैं मन थकता। (दिगंत पृ। 37, विचार)
त्रिलोचन अपने को उस समय के तथाकथित आधुनिकता वादी कवियों से अलगाते हैं कहते हैं-
मित्रो, मैंने साथ तुम्हारा जब छोड़ा था
तब मैं हारा थका नहीं था, लेकिन मेरा
तन भूखा था मन भूखा था, तुमने टेरा,
उत्तर मैंने दिया नहीं तुम को, घोड़ा था
तेज तुम्हारा, तुम्हें ले उड़ा, मैं पैदल था,
विश्वासी था 'सौरज धीरज तेहि रथ चाका' (दिगंत पृ.20)
रामचरित मानस में तुलसी ने राम के रथ का जो रूपक प्रस्तुत किया है उसका प्रयोग त्रिलोचन ने यहाँ किया है।
त्रिलोचन ने लिखा है-"ध्वनि ग्राहक हूँ मैं, समाज में उठने वाली ध्वनियाँ पकड़ लिया करता हूँ।" बहुभाषाविद् त्रिलोचन ने भाषाओं के समुद्र में अवगाहन किया है-
भाषाओं के अगम समुद्रों का अवगाहन मैंने किया।
मुझे मानव-जीवन की माया सदा मुग्ध करती है, अहोरात्र आवाहन
सुन-सुनकर छाया-धूपा, मन में भर लाया
सब कुछ-सब कुछ सब कुछ भाया। (प्रतिनिधि कविताएँ–संपादन-केदार नाथ सिंह, पृ.24)
त्रिलोचन ने विष्णुचन्द्र शर्मा से एक साक्षात्कार में कहा था कि विपरीत परिस्थितियों में जिसने मुझे बल दिया है और रास्ता दिखाया है वे दो पुस्तकें हैं 'गीता' और 'रामचरित मानस'। तुलसी बाबा को ही वे अपना काव्य गुरु मानते थे उन्होंने लिखा है-
तुलसी बाबा भाषा मैंने तुमसे सीखी
मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो। (दिगंत, पृ। 59)
त्रिलोचन की कविता में जनभाषा की मार्मिकता और सादगी है, कई अर्थ भंगिमाएँ सघन रूप से विद्यमान हैं। अवधी के शब्दों से युक्त उनकी कविता की भाषा में जीवन की हलचल है-
भाषा की लहरों में जीवन की हलचल है
गति में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है।
त्रिलोचन के सॉनेट शिल्प की बात करें तो त्रिलोचन ने 1950 के आसपास अपनी कविता के लिये सॉनेट को चुना। 'सॉनेट' इटैलियन शब्द 'Sonetto' का लघु रूप है। सॉनेट का मूल जन्म स्थान इटली माना जाता है और इसके प्रथम प्रयोक्ता दाँते माने जाते हैं। हिन्दी में सॉनेट अंग्रेज़ी कविता के प्रभाव से आया है। चौदह पंक्तियों में कसा-सधा और अनुशासित काव्य रूप है। अंग्रेज़ी में सॉनेट के चार प्रकार है-पेट्रार्कियन, 'शेक्सपिरियन स्पेन्सेरियन एवं मिल्टानिक। त्रिलोचन ने इन सभी प्रकार की रचना पद्धतियों में सॉनेट लिखे हैं। " 3' दिगंत' में त्रिलोचन ने स्वयं लिखा है-
इधर त्रिलोचन सॉनेट के ही पथ पर दौड़ा,
सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट, क्या कर डाला
यह उसने भी अजब तमाशा। मन की माला
गले डाल ली। इस सॉनेट का रास्ता चौड़ा
अधिक नहीं है, कसे कसाए भाव अनूठे
ऐसे आएँ जैसे किला आगरा में जो
नग है दिखलाता है, पूरे ताजमहल को
गेय रहे, एकान्विति हो। उसने तो झूठे
ठाटबाट बाँधे हैं। चीज किराये की है।
स्पेंसर, सिडनी, ' शेक्सपियर, मिल्टन की वाणी
वर्ड्सवर्थ, कीट्स की अनवरत प्रिय कल्याणी
स्वर धारा है, उसने नई चीज क्या दी है।
सॉनेट से मजाक भी उसने खूब किया है,
जहाँ तहाँ कुछ रंग-व्यंग्य का छिड़का दिया है। (दिगंत, पृ.8)
सॉनेट क्या है? इसका इतिहास क्या है और उसमें भावों का कैसा अनुशासन है यह त्रिलोचन ने स्वयं बता दिया है। 'दिगंत' न केवल त्रिलोचन का वरन हिन्दी का पहला सॉनेट संग्रह है। इस संग्रह के बीस सॉनेट 'पेट्राकी' पद्धति पर लिखे गये हैं। जिसमें आठ पंक्तियों के बाद छह पंक्तियों का तुक विधान तथा उनके बीच विभाजन व विराम मिलता है। "उनके दूसरे सॉनेट संग्रह 'शब्द' में एक सौ सोलह सॉनेट पेट्रार्की पद्धति पर रचे गये हैं। इनमें तीन चतुष्पदी और एक द्विपदी वाला रूप-विधान है जो 'शेक्सपीरियन सॉनेट से भिन्न है। इस नवीन तुक-विधान को त्रिलोचन की विशिष्टता के रूप में देखा जाता है।" उस जनपद का कवि हूँ"संग्रह के सॉनेट भी' शेक्सपीरियन पद्धति के सानेट हैं।" एक उदाहरण '
महल खड़ा करने की इच्छा है शब्दों का
जिसमें सब रह सकें रम सकें लेकिन साँचा
ईट बनाने का मिला नहीं है, अब्दों का
समय लग गया। केवल काम चलाऊ ढाँचा
किसी तरह तैयार किया है। सब की बोली-
ठोली, लाग-लपेट, टेक, भाषा, मुहावरा
भाव, आचरण, इंगित, विशेषता, फिर भोली
भूली इच्छाए, इतिहास विश्व का, बिखरा
"'शेक्सपीरियन सॉनेट की रचना पद्धति का पूर्ण निर्वाह करने वाले इस सॉनेट में केवल तीन वाक्य हैं। तीसरा वाक्य दस पंक्तियों तक फैला है। पंक्तियों के अंत में तुक है किन्तु वाक्य का प्रवाह नहीं रूकता। त्रिलोचन ने स्पेंसर के सॉनटों की भॉंति सॉनेट लिखे हैं इनमें तुक योजना इस प्रकार है ग म गम ग म स-स र स र प प।" दिगंत के कुछ सॉनेट के बाद " अरघान' में संकलित 'महाकुंभ' (1953) सम्बंधी पच्चीस सॉनेट में से अधिकांश स्पेंसरियन सॉनेट के जटिल तुक
विधान पर आधारित हैं। 1953 के महाकुंभ की भीषण मानव-त्रासदी का बयान करने वाले इस सॉनेट में जटिल तुक विधान है" 4-
बिजली के खंभे पर, आई बुद्धि, जा चढ़ा।
उस को देखो। भीड़ ठाँव पर झूम रही है।
बँधे हुए हाथ-सी. ऊँचे बाँध से बढ़ा
एक हुलुक्का, एक दरेरा, घूम रही है
भीड़। भीड़ पर दूसरी रूम रही है।
अस्फुट अगणित कंठों की उठ ध्वनि धारा
महाकाश में मँडराती है, बूम रही है (अरधान, पृ.66)
ये पंक्तियॉं 'सॉनेट के रूप-विधान' पर त्रिलोचन के असाधारण रूप विधान को प्रदर्शित करती है। डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है कि 'भीड़ के वर्णन के लिये शायद ही अंग्रेज़ी के किसी कवि ने सॉनेट का उपयोग किया हो। त्रिलोचन के लिये सॉनेट एक ऐसा कुर्ता है जो हर मौसम में पहना जा सकता है। यति का स्थान ऐसे बदलते हैं मानों मुक्त छंद लिख रहे हों। त्रिलोचन ने सॉनेट के लिये प्रायः रोला छंद का प्रयोग किया है। उनके अनुसार रोला हमारे देश का नेशनल मीटर है। जैसे, अयैंबिक मीटर है इंग्लैंड का, हेक्जा मीटर है, फ्रांस का और सेप्टा मीटर है इटली का। रोला में 24 मात्राएँ होती हैं, 11 एवं 13 मात्रा का विराम माना गया लेकिन मैंने यति के इस नियम का पालन नहीं किया है यानी 24 मात्राएँ तो हैं, पर यति का स्थान प्रायः अनिश्चित या अनियमित रहता है। "(विष्णुदत्त शर्मा से साक्षात्कार आजकल में प्रकाशित) राजेश जोशी कहते हैं कि रोला एक जन-छंद रहा है। राज्याश्रय प्राप्त कवियों ने इसका प्रयोग तकरीबन नहीं किया है। अभिजात रुचियों वाले कवियों ने इसे जगह नहीं दी। रोला का चयन ही कहीं गहरे में त्रिलोचन की आमजन के प्रति पक्षधरता को उजागर करता है। रोला को भी उन्होंने ज्यों का त्यों नहीं अपनाया है। रोला के ऊपर सॉनेट का अनुशासन कायम रखते हुए वे उसकी पारंपरिक सहज गेयता को एक तरह से भंग करते हैं। त्रिलोचन वाक्य बड़ा बनाते हैं जो सॉनेट की दूसरी पंक्ति या कभी तीसरी पंक्ति में जाकर समाप्त होता है इस प्रकार छंद के अनुशासन में पंक्तियाँ तो रहती हैं लेकिन वाक्य नहीं रह पाते और रोला की सरल गेयता काफी हद तक गद्यात्मक लय के नजदीक पहुँचती हैं। त्रिलोचन रोला छंद को सॉनेट में ढालकर वे अपनी अलग पहचान बनाते हैं। प्रो. कपिल मुनि तिवारी ने लिखा है कि' सॉनेट के क्षेत्र में विदेशी कवियों ने जितने अलग-अलग प्रयोग किये उन सभी प्रयोगों को हिन्दी में त्रिलोचन शास्त्री ने अकेले किया। नये तुक-विधान की रचना करके उन्होंने अपनी सृजनात्मक बहुमुखी काव्य-प्रतिभा का पर्याप्त प्रमाण दिया है।" 6 त्रिलोचन के संग्रह 'उस जनपद का कवि हूँ' के सॉनेट की भाषा स्थानीय है। इन सॉनेट में अवध जनपद की संस्कृति और त्रिलोचन के जीवन संघर्ष मूर्त हो उठे हैं। त्रिलोचन के सॉनेटों का धरातल विषयम है-ऊँचा-सनीचा उनमें सूक्तियाँ, उपदेशात्मकता और सपाटबयानी भी है। पूरा वाक्य लिखने का हठ उनकी कविता को इतिवृत्तात्मक बना देता है। 7 त्रिलोचन ने सॉनेट के अतिरिक्त ग़ज़ल और रूबाइयाँ भी लिखी हैं जो उनके संग्रह 'गुलाब और बुलबुल' में संकलित हैं। 'अमोला' संग्रह में उन्होंने बरवै छंद का प्रयोग किया है। 19 मात्राओं वाले इस छंद में 12 एवं 7 मात्रा के बीच यति होती है। इस छंद का प्रयोग तुलसी ने किया और त्रिलोचन किया। तुलसी बाबा से ही त्रिलोचन ने लोक जीवन, लोकतत्व की पहचान करने का गुण सीखा। लोक में प्रचलित शब्द, पद और मुहावरों के प्रयोग की अनूठी क्षमता से युक्त जनपदीय भाषा विकसित की। त्रिलोचन ने लिखा है कि-'यह तो सदा कामना थी, इस तरह से लिखूँ। जिस पर लिखूँ वही यों अपने स्वर में बोले, इसलिये उनकी कविता' चंपा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती'में स्वयं अपनी बोली-ठोली में अपने लहजे में बात करती है। उनका नगई महरा या परदेशी की नाम पत्र लिखने वाली पत्नी अपनी भाषा में परदेशी मजदूर को पत्र लिखती है।' पत्र का प्रारंभ सोसती सिरी सर्व उपमाजोग बाबूरामदास'से होता है। 8 बछिया कोराती है। यहाँ जो तुम होते देखो कब ब्याती है। इस पूरी कविता में गाँव की बोली, भाषा, मुहावरें और इंगित का प्रयोग करके त्रिलोचन ने परदेशी की पत्नी के मनोभावों को स्पष्ट किया है। उनकी कविता में वे शब्द हैं जो लोक जीवन में धड़क रहे हैं। जीवन से जुड़े ताजे-टटके भाषा रूपों का प्रयोग किया है जैसे-' हारे गाढ़े काम सरेगा',' प्राप्त सुखों पर कोई दीठ गड़ा दे',' कलकत्ते पर बजर गिरे', या' बच्ची गोहन लगुई थी'मैंने इस घर में टुन्न पुन्न नहीं देखी' , नई बातों से अनकुस होती है। इस तरह त्रिलोचन ने हिन्दी को प्रचलित काव्य भाषा से अलग एकदम नई भाषा दी। त्रिलोचन की कविता में संस्कृत निष्ठ शब्द भी आयें हैं कही-कहीं उनकी भाषा वैदिक ऋषियों की भाँति हो जाती है और कभी काव्यभाषा निराला के करीब भी पहुँची हैं। त्रिलोचन शब्दों को नई चमक और नया जीवन देते हैं। फणीश्वरनाथ रेणु ने उन्हें शब्द योगी और केदारनाथ अग्रवाल ने उन्हें शब्द साधक कहा है। चित्रात्मकता त्रिलोचन की भाषा की बड़ी खासियत है। रूप, रस-गंध-स्पर्श और ध्वनि के अपने तीव्र बोध के साथ जीवन और जगत के नैसर्गिक सौन्दर्य के चित्र त्रिलोचन की कविता है। त्रिलोचन की कविता में अनेक पात्रों के चित्र आते हैं। जैसे कवि नागार्जुन का चित्र, " नागार्जुन-काया दुबली, आकार मझोला, आँखे धँसी हुई घन भौंहे, चौड़ा माथा, तीखी दृष्टि, बड़ा सिर नागार्जुन क्या है? अभाव है। जमकर लड़ना / स्वयं त्रिलोचन का शब्द चित्र देखिये-
वही त्रिलोचन है, वह-जिसके तन पर गंदे कपड़े हैं। कपड़े भी कैसे फटे लटे हैं, कौन कह सकेगा इसका यह जीवन चन्दे पर अवलंबित है। चलना तो देखो इसका उठा हुआ सिर, चौड़ी छाती, लम्बी बाँहें, सधे, कदम, तेजी, वे टेढ़ी-मेढ़ी राहे, मानो डर से सिकुड़ रही हैं। किसका-किसका ध्यान इस समय खींच रहा है। कौन बताएँ क्या-क्या हल चल है इसके सधे-सधाये जी में। जन-जीवन के अंतरंग जीवन अनुभवों को वाणी देने वाले मानवीय प्रेम, संघर्ष और जीवन मूल्यों और हमारी जातीय चेतना के कवि त्रिलोचन सचमुच शब्द-साधक हैं और अनूठे सॉनेट शिल्पी हैं।
डॉ. स्मृति शुक्ल
ए-16, पंचशील नगर
नर्मदा रोड, जबलपुर-482001
मो।नं। 9993416937
आधार ग्रंथ-
1.प्रतिनिधि कविताएँ-संपादक केदारनाथ अग्रवाल, राजकमल, प्रकाशन नई दिल्ली
2.दिगन्त-त्रिलोचन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
3.ताप के ताये हुए दिन-त्रिलोचन, संपादक: राजेश जोशी? साहित्य वाणी 28 पुराना अल्लापुर
संदर्भ ग्रंथ;
1.अथातो काव्य जिज्ञासा-संपादक डॉ. मंजुल उपाध्याय, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली पृ। 104, 105
2.वही पृ। 109
3.कवि त्रिलोचन-अजीत प्रियदर्शी, साहित्य भंडार 50, चाहचन्द, इलाहाबाद पृ। 197
4.कवि त्रिलोचन-अजीत प्रियदर्शी, साहित्य भंडार इलाहाबाद पृ। 197
5.वही पृ। 200
6.आधुनिक हिन्दी कविता का इतिहास-नंदकिशोर नवल, भारतीय ज्ञानपीठ पृ। 377
7.कविता और समय-अरूण कमल, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, पृ। 111
8.हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास-डॉ. बच्चन सिंह, राधाकृष्ण, प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ। 420