गाँव : पुनर्यात्रा के झरोखे से / ओमा शर्मा

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गाँव : पुनर्यात्रा के झरोखे से


यह स्थान आसपास के चार-पाँच गाँवों का साझा बस स्टॉप है जिसे पता नहीं क्यों 'प्याऊ' कहते हैं। नज़दीक के स्कूल-कॉलेजों में पढ़ने वाले छात्र, कस्बे जाकर सौदा-सुलफ लाने वाले परचूनी, कारण-अकारण शहर (दिल्ली-अलीगढ़-मेरठ) जाने वाले चंद लोगों समेत कोई 30-35 लोग हैं जो घंटे भर से प्रतीक्षारत हैं। आखिर एक बस आती है। लबालब भरी हुई। उसके प्रवेश और निकास के दरवाजे डैनों की तरह खुले हैं। ठसाठस भीड़ के कारण। चार सवारियाँ उतरती हैं मगर जाना तो 30-35 को है। कैसे होगा ? बस के जाने के बाद सारी भीड़ छंट जाती है। यह कोई करिश्मा नहीं, फकत दैनंदिनी मजबूरी है। 10-12 लोग सामान समेत बस की छत पर जा पसरे हैं ; 8-10 जाँबाज बस के पिछवाड़े लगे सीढ़ीनुमा जाल पर जा टिके हैं और बाकी उसके भीतर।

राज्य परिवहन व्चवस्था की बदहाली का उपरोक्त दृश्य रह रहकर जेहन में कौंध उठता है। वहाँ कदम रखने के बाद स्मृतियाँ ही नहीं, सोचने विचारने के कई मसले बेसाख़्ता काबिज हो जाते हैं। यह चालू और रूमानी फिल्मों का नहीं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश का अपनी तरह से कुनमुनाता-कराहता वास्तविक गाँव है, जहाँ स्मृतियों को ताज़ा करने के लिए जतन उत्साह से बनाया - तय किया गया कोई दौरा, आइंदा के लिए खबरदार-सा करता जाता है। यह हालत उस व्यक्ति की है जिसने खेत-खलिहान और घर-जंगल के सारे कामकाजों को बरसों किया-जिया है (तब किसे खबर थी कि उस जिंदगी से इतर भी कोई जिंदगी हो सकती है या उसकी कोई निजात भी है)। तरो-ताजा होने के लिए तब कबड्डी (सूखे बंबे या ताजा जुते-भुरभुरे खेत में), ठेका (लंबी कूद), गुल्ली डंडा, गेंद-तड़ी और धम-धम मलूका सरीखे खेल ही हुआ करते थे बशर्ते आपको हल-दांय चलाने, निराई करने, चारा काटने, खेतों में पानी लगाने और गाय-भैंस चराने से मोहलत मिले। पढ़ने-लिखने की वहाँ कोई गुंजाइश बचती नहीं थी फिर भी गाँव की कन्या पाठशाला और दूसरे स्कूल के अलावा तीन-चार किलोमीटर के दायरे में छठी कक्षा से प्रारंभ होने वाले तीन-चार इंटर कॉलेज थे जिन्हें गाँव के कुछ होनहार खींचखांचकर आबाद कर देते थे। अगली कक्षा में प्रवेश मात्र की अर्हता, पर्याप्त मेधा और समुचित आत्म गौरव का बाइस थी।

अंतर्राष्ट्रीय उदारीकरण के तहत किए जा रहे सार्वजनिक क्षेत्र के विनिवेश से बहुत पहले के उन सुनहरी दिनों की फिजां तक मुतमईन थी कि समाजवाद की तरफ धीमे-धीमे पाँव बढ़ाती अर्थव्यवस्था बहुत जल्द उन बुलंदियों (कमांडिंग हाइट्स) को चूमने वाली है जहाँ पहुँचकर आम जन की जरूरी समस्याएं, जिनके नाम पर मनोज कुमार ने एक फिल्म भी बनाई, खुद-ब-खुद सुलट जाएंगी (दिल्ली आने पर जेएनयू कैंटीन में एक दूसरे को हस्बेमामूल ढंग से 'कामरेड' कहकर बतियाने-बहस करने वाले कुछ दोस्तों की मार्फत 'रेवल्यूशन' का यूटोपिया इसी के इर्द-गिर्द कहीं भटकता दिखता था)। इसी की छत्र छाया के चलते, पाँचवीं-सातवीं फेल-पास करके शहर में नौकरी करते कुछ बुजुर्ग, गाँव के हताश-पके बेरोजगारों को अपने-अपने सरकारी उपक्रमों में घुसाने का जुगाड़ बिठा लेते थे। पाँच-सात बरस अस्थायी-तदर्थ रूप में काम करने के बाद ये नव-रोजगार अपने जीवन का सबसे बड़ा तमगा - और पड़ाव यानी 'परमानेंट' भी पा (पारकर) जाते थे। 'सास भी कभी बहू थी' की तर्ज पर रफ्ता-रफ्ता ये लोग बुजुर्ग होने तक गाँव के दूसरे भाई बंधुओं को अपनी लकीर पर चलाने के नेक काम में भी जुटे रहते थे। पिछले डेढ़-दो दशकों में इधर हुआ ये है कि अरसे से गाँव का घूरा बने शहरों की हालत खुद चरमरा गई है। सड़क-बिजली-पानी की जाहिर कमी को तो छोड़िए, वहाँ से सरकारी नौकरी का वह मोहन घी ही गायब हो गया है जिसकी हसरत में बोरोजगारों का मजबूर हुजूम तमाम पारिवारिक और नागरीय तकलीफें झेलकर उम्र गुजार दिया करता था। उल्टे, अब उल्टी गंगा बह रही है। नौकरी से निकाली या नौकरी की फिराक में येन-केन शहर में रह रही इस जमात को गाँव वापसी का विकल्प भी नहीं है ; एक तो इसीलिए कि इतने दिनों बाद किस मुँह से गाँव में जाकर बसें ... शहर में चाहे जितनी मर्जी खाक छाननी पड़ जाये मगर बरसों पहले छोड़े अपने गाँव में कस्सी-खुरपी चलाने से तो यह बेहतर ही है। दूसरे, अपना जीवन तो जैसे बीतना था बीत गया मगर बच्चों की खातिर तो शहर में ही रहना पड़ेगा ... यानी बात भविष्य की हो तो गाँव का रुख तो नहीं किया जा सकेगा। उत्तर भारत (खासकर उत्तर प्रदेश) के गाँवों (और कस्बों में भी) में एक और कारक तेजी से सक्रिय है : शहर में पाँच-दस बरस काटकर आए हर व्यक्ति को एक ऐसे संदिग्ध साहूकार के रूप में देखा जाता है जो कमबख्त जान दिए बगैर अपनी दौलता का मोह नहीं छोड़ेगा। अरे भैया, जल्दी कर लो, किसी ने पहले बाजी मार ली तो ....


अकारण नहीं है कि कच्ची उम्र से, बरसों तक दम मारकर खेत-खलिहानों में पसीना बहाने की स्मृतियाँ बरसों बाद भी भुलाए नहीं बनती हैं। उन्हें ताजा करने के लिए रूह मचलती-सी रहती है हालांकि यह समझना-समझाना मुश्किल ही है कि इसकी असल वजह क्या है ... शहर दर शहर बेशर्म ढंग से कामचलाऊ, व्यावसायिक और शुष्क संबंधों की ऊब और घुटन से तात्कालिक राहत पाने का भीतरी दबाव या घोर तंगी-दुश्वारी से निकलकर जीवन में अपेक्षाकृत आर्थिक स्थायित्व सा कुछ प्राप्त कर लेने के बावजूद कांक्रीट के बीहड़ में एक गुमनाम मरियल हैसियत ढोते चले जाने के बोझ को उतारकर कुछ हल्का और अहम महसूस करने की मासूम इन्सानी चाहत ... या किसी परपीड़ा सुख का कतरा ... कि देखो मैं तो निकल लिया मगर देखूँ तो सही कि बाकी लोग वैसे ही पिट रहे हैं ना ? जो भी हो, गाँव मेरे लिए एक रहस्यमय, लगभग रूमानी-सा आकर्षण लिए रहता है हालांकि वहाँ जाने के हर प्रयोजन के साथ मुझे कड़ी मानसिक तैयारी किए रहनी होती है ... कि आन पड़ने पर मदद करने की हद कितनी रहेगी ... कि नौकरी लगवाने-दिलवाने के सवालों से कैसे दो-चार होऊँगा ... कि गाँव में एक पुस्तकालय नुमा सा कुछ खोलने की आद्य योजना को अंजाम देने के लिए सब लोगों का सहयोग और विश्वास हासिल करने के लिए क्या-क्या दांव पर लगा सकूँगा ... कि मेरी बिना पर बंबई घूमने की गाँव के हर बच्चे-बूढ़े की दीवानगी (अमिताभ-शाहरूख के बंगले, फिल्म सिटी में शूटिंग, किसी मॉल या मल्टीप्लैक्स में घूमते फिरते टीवी कलाकार) को किस तरह संभालना होगा। या फिर अलग-अलग खेमों की एक तरफा बयानबाजियों को सुन-सुनकर 'सही' फैसला देने की विवशता ...

शहर की भीड़-भाड़ से निकलकर इकहरी दुबकी सी पड़ी सड़क पर आगे पीछे आते-जाते इक्का-दुक्का वाहनों, अड़ियल बुग्गियों और इर्द-गिर्द लगभग लगातार चलते दरख्तों की बेतरतीब बढ़वार जल्द ही अहसास करा देती है कि हम किधर जा रहे हैं। सड़कें तो वाकई ठीक-ठाक कही जाएंगी ! ऐसा सुखद आश्चर्य पहले तो कभी मयस्सर नहीं था। ये तो आदतन किनारों से टूटी-फूटी, दागदार और ऊबड़-खाबड़ हुआ करती थीं ! गाँव आकर पता चला कि सड़कों को दुरुस्त रखना मुख्यमंत्री 'मौलानासिंह' के एजेंडे में सबसे ऊपर है। इन्फ्रास्ट्रक्चर के प्रति इतना सचेत कोई राजनेता वाकई दूरदर्शी होगा -

डी-स्कूल के अध्यापक मृणाल दत्ता चौधरी के आप्त वाक्य 'इन्फ्रास्ट्रक्चर इज़ की टु डेवलपमेंट' को याद करते हुए एक संतुष्ट आह निकल आती है। 'आप गलतफहमी में हैं' मेरे संतोष पर छींटे मारता हुआ एक साथी बतलाता है। दरअसल, सड़कें किसी भी सरकार की परफॉरमेंस का पहला मसौदा होती हैं मगर मौलाना का यह आखिरी भी है। मुख्यमंत्री के मीडिया-प्रेमी चंद सलाहकारों को, सरकार की जनप्रिय छवि दर्शाने के लिए सड़कें तुरुप का पत्ता लगती हैं। अरसे से पूरी यूपी की सड़कें खराब भी बेतहाशा रही हैं। सड़कें दुरुस्त कर देने से सारी तकलीफें दूर हो जाएंगी ? बिजली को आप आधारभूत ढांचे में गिनते हैं या नहीं जो हर हफ्ते दो-चार घंटे के लिए आती है। फिर शिक्षा को आप कहाँ ले जाएंगे ?

अपनी बात के खुलासे में आगे उन्होंने जो बताया वह काफी हैरतअंगेज था। परोक्ष रूप से उनका कहना था कि भाई, नौकरी नहीं दे सकती है, न दे, मगर एक कागज के सर्टिफिकेट से 'बच्चों' को क्यों महरूम करती है ? बोर्ड परीक्षाओं में पास-फेल के ऑंकड़े जब राष्ट्रीय स्तर पर संकलित होते हैं तो पिद्दी-पिद्दी से राज्यों के सामने 'अपनी' कितनी भद्द पिटती है ! इसी बात को इस सरकार ने अपना मंत्र बना लिया है। प्राथमिक कक्षाओं की तर्ज पर बोर्ड परीक्षाओं में अब कोई फेल नहीं होता है। बल्कि खूब प्रथम श्रेणियाँ आती हैं। आगे ये प्रतियोगिताओं में कुछ नहीं कर पाएं तो इनका क्या कसूर ! किस्मत भी तो कोई चीज होती है !

सूरदास के एक शब्द को उधार लेकर याद करूँ तो 'आगे' वह जमाना था जब पूरे उत्तर प्रदेश में बोर्ड परीक्षाएं पास करना एवरेस्ट पर चढ़ने जैसा था। बोर्ड का पास प्रतिशत बेहद कम रहता था और प्रथम श्रेणी यानी साठ प्रतिशत से अधिक प्राप्तांक पूरे स्कूल में एकाध विद्यार्थी को नसीब होते थे। यही कारण है कि दूसरी जगहों पर द्वितीय श्रेणी की अर्हता जहाँ 50 प्रतिशत होती, उत्तर प्रदेश में यह 45 प्रतिशत होती। यह स्थिति थी तो खराब मगर इससे शिकायत किसी को नहीं थी क्योंकि जो भी परीक्षा प्रणाली थी, सभी पर एक समान लागू थी। कोई फेल होना नहीं चाहता था मगर पास होने की लियाकत नहीं जुटा पाने के लिए तकदीर को कोसा जा सकता था। ईश्वर को प्रसन्न रखने की चेष्टा साल दर साल चलती। व्रत-उपवास रखे जाते, दिन-दिशा देखकर मुरादें बोली जातीं। मिलते ही प्रश्नपत्र को माथे से लगाया जाता और उत्तर पुस्तिका के ऊपर शिव, गणेश या दुर्गा के जयकारे चस्पां किए जाते। परीक्षा के बाद, परीक्षा फल आने तक, पाँच-सात किलोमीटर दूर, छतारी के दोराहे पर कूद-फलाँग करते हनुमान बाबा के नुमाइंदों को गुड़-चने की दावत से हर मंगलवार को प्रसन्न किया जाता। मगर उन दिनों के देवी-देवता कुछ ज्यादा बेरहम होते होंगे क्योंकि निष्ठा से की गई तमाम पूजा-आराधना साल दर साल, अमूमन निष्फल चली जाती। परीक्षाफल जानते ही विद्यार्थी और विद्यार्थीनुमा अधेड़ बुक्का मारकर रोते हुए गाँव आते और मुँह दिखाने का साहस न बटोर पाने के कारण खुद को अनाज की कोठरी में कैद कर डालते। खाना-पीना सबका परित्याग। कुछ तो गाँव से ही पलायन कर लेते (उनमें से साधु-महात्मा बने एक-दो ने इतनी तरक्की भी कर ली है कि उनके यहाँ बड़े-बड़े उद्योगपतियों और राजनेताओं की बाकायदा आवाजाही बनी रहती है। मगर यह मसला इतर रहा)। थोड़े-बहुत दुखी तो माँ-बाप भी होते थे क्योंकि उम्र के उस नाजुक दौर में दूर-दराज से आने वाले कुछेक रिश्तों का दबाव भी जोर पकड़ रहा होता। आज के लिहाज से देखें तो बार-बार फेल होने वालों की वह पूरी जमात हिम्मतवाली ही कही जाएगी जिसने इतनी लानत-मलामत के बावजूद, खुदकुशी के विकल्प की तरफ ऑंख उठाकर नहीं देखा। खैर, दो-चार दिन बाद सब कुछ फिर सामान्य हो जाता ... यानी मवेशियों का सानी-पानी, खेतों की निराई-जुताई और फसल की बुआई-कटाई समेत वह सब जिसके संभावित विकल्प को इस नाशपीटी पढ़ाई ने कभी उजगर ही नहीं होने दिया।

इस निराशाजनक परिदृश्य को धक्का तब लगा जब सन अस्सी के आसपास, बोर्ड परीक्षाओं में नकल और उससे जुड़ी धांधलेबाजी ने रातों रात एक फलते-फूलते उद्योग का रूप ले लिया। पास होने की जरूरत इतनी ज्यादा थी कि दो चार कूंण बेचकर भी इस दाग से छुटकारा मिले तो कोई हर्ज नहीं। खुशकिस्मती से, बेराजगार युवकों की एक फौज सहारा देने के लिए तभी आ पहुँची। निरीक्षक, अध्यापक और प्रधानाचार्यों के रास्ते स्कूल इंस्पेक्टरों और उनके वरिष्ठों को 'कट' देकर 'संभालने' का तंत्र आनन-फानन में खड़ा हो गया। परीक्षा केंद्रों के चयन, निरीक्षकों के निर्धारण और हरावल दस्तों के संघटन तक एक एक चीज आखिरी पायदान की सहूलियत मुताबिक तय की जाती। शक्ति और सत्ता के इस गठबंधन ने दाम और दंड के खूब ताबीज चढ़ा रखे थे इसलिए उनके प्रयोग में कोई कोताही बरतने का सवाल ही नहीं था। कोई अध्यापक, कोई प्रिंसिपल या कोई संस्पेक्टर कबाब में हड्डी बनने से बाज न आए तो उसकी किस्मत ! इतने सारे बच्चों के भविष्य के साथ की जाने वाली खिलवाड़ आखिर क्यों बर्दाश्त की जाती ? वैसे भी समूचे उत्तर भारत में इसमें नया या अतिरिक्त बुरा जैसा कुछ दिखने का तो था नहीं। इस नई व्यवस्था में नाक की सीध में चलने वाले लोग इतने कम थे कि उनके रूदन को आसानी से अनदेखा किया जा सकता था। उस मानसिकता का निस्सहाय भुक्तभोगी होने के तौर पर कह सकता हूँ कि हमें लगता नहीं था कि इतने व्यापक, व्यवस्थित और पुख्ता तंत्र को नेस्तनाबूद करना तो छोड़िए, कोई हिला भी पायेगा। पूरी व्यवस्था का एक-एक पुर्जा जब उससे लाभान्वित हो रहा हो तो कोई उसमें सेंध लगाने की जुर्रत क्यों करेगा ? शिक्षा के प्रति सरकार के रवैये को उसकी नीयत और गुणवत्ता का पैमाना कह सकते हैं। 'सामाजिक न्याय' और 'विकास' के फरेब में आकर जनता फिर भी अक्सर मुँह की खाती रही मगर हर सरकार इतना तो खूब समझती है कि 'शिक्षा' में वह चुग्गा बनने की कूवत नहीं है जिसकी आड़ में लोकतांत्रिक ढंग से लोगों को बरगलाया जा सके। इसलिए राज्य और केंद्र, दोनों स्तरों पर यथास्थिति से छेड़छाड़ न करने की सोची-समझी नीति शुरू से ही अपनायी जाती रही है। व्यवसथा के बारे में बाद में पढ़े-समझे इस नजरिये से वाकिफ हुए बगैर भी हम उस यथास्थिति के साथ अपना लाचार साम्य बनाए बैठे थे।

मगर करिश्मे भी होते हैं, यह हमने अपनी ऑंखों से देखा। मुख्यमंत्री काल के पहले दौर में कल्याण सिंह ने और कुछ किया हो या न किया हो मगर पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में शिकंजा जमाए इस शिक्षा माफिया पर उन्होंने जमकर गाज गिरायी। उस वर्ष हुई बोर्ड की पहली परीक्षा ने जिस तेजी और तल्खी से सरकार की नीयत को सरअंजाम दिया, वह यकीन से परे था ... जो भी नकल करता मिले, उसे रस्टीकेट करो, जो नकल या उससे जुड़ी धांधली में शामिल दिखे, उसे पकड़ो और जेल में डालो ... जो इस प्रक्रिया में कहीं मदद करता दिखे उसके खिलाफ केस दर्ज करो। पता नहीं हर परीक्षा केंद्र पर इतने पुलिसिए और उड़नछू दस्ते इतनी तत्परता-प्रतिबध्दता के साथ कैसे मुहैया हो गये। शुरुआती प्रतिरोध को जिस सख्ती से कुचल दिया गया वही उस माफिया के होश उड़ाने के लिए काफी था मगर अगले दो-तीन बरस चली उसी नो-नॉनसेंस सख्ती ने पूरा परिदृश्य ही बदल दिया। यज़दी और बुलेट मोटर साइकिलों पर अभी तक शासकीय गुंडई करते स्व-रोजगार आवाराओं की दुकानें ही बंद नहीं हुईं, उनकी जान के लाले पड़ गये क्योंकि खुफिया सूत्रों के हवाले मिली जानकारी के आधार पर बोर्ड परीक्षाओं में 'पास कराई तंत्र' में शामिल हर छोटा-बड़ा सरगना घेरे में लिया जा रहा था और जल्द ही, वह घेरा कटघरा बन जाता था। सकारात्मक राजनैतिक इच्छा शक्ति से लैस मेरा देखा वह राजकीय उपक्रम था जिसने जाहिर सामाजिक प्रदूषण छांटने के रास्ते में सूरमा बने फिरते मवालियों को 'शरीफ चूहा' बनने को मजबूर कर दिया। महीनों तक कितने तथाकथित शहंशाह गाँव के दगड़े की राज भूले रहे, कई दिल्ली मेरठ कूच कर गए और कितने इधर-उधर परचून की दूकान लगाकर बैठ गए। इसी अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि ऐसी इच्छाशक्ति सन् 2002 में गोधराकांड के बाद गुजरात सरकार में देखने को मिलती तो बहुत कुछ अनर्थ होने से रोका जा सकता था।

बाद की सरकारें पता नहीं उस संकल्प को कायम रख सकीं या नहीं मगर देखने सुनने में यही आया कि कल्याण सिंह सरकार के पहले दौर से पूर्व के शिक्षा तंत्र की पूरी बहाली अब जाकर हुई है और वह भी पूर्व के तामझाम के बगैर। कारण ? वार्षिक अनुदान को नतीजों के मद्देनजर रखने की सरकारी नीति के दबाव में पुरानी सब सहूलियतें स्कूलों की जरूरत हो गई हैं। अब सब कुछ बड़े अहिंसात्मक ढंग से निपट जाता है। इससे नाखुश और नाराज होने वालों की फुसफुसाहट अब अपवाद स्वरूप भी नहीं आती है। जनभावनाओं के प्रति संवेदित लोकतांत्रिक सरकार के चलते यह माना जाना चाहिए कि सभी को वह व्यवस्था मुहैया है जो उन्हें चाहिए या जो उनका हक है। बाकी रही बात नौकरी या प्रतियोगिताओं में सफलता की तो उसके बारे में बरसों से आम राय यही बनी हुई है कि भैया वह सब तो जान-पहचान, जुगाड़ या रुपये-पैसे के बगैर किसे मिलती है। उनकी बातों में धंसी हताशा के बड़े तथ्यात्मक कारण हैं ... गभाने के स्कूल में डेढ़ लाख देकर पवना का काम हुआ ... भीसम ने पचास हजार दिए तो हाइडल (इलाके में गंगनहर के कारण राज्य बिजली बोर्ड द्वारा जगह-जगह लगाई पन-इकाइयों का प्रचलित नाम) में लग गया ... दिल्ली पुलिस का रेट सवा दो लाख का है, श्रीमान हरिओमसिंह अपनी अंटी खाली नहीं कर पाये तो फिजिकल के बाद बाहर कर दिए गए ... और गिनाएं ?

मुझमें हिम्मत नहीं होती है कि अपने या प्रेमपाल जी के उदाहरण से उनका प्रतिवाद-सा कुछ करूँ। वे कहते भी तो हैं कि काम हो जाने के बाद तो सब हरिश्चंद्र बनने लगते हैं ... कितनों की पोल बाद में खुली है ... जिनका काम नहीं हुआ और पैसे बिचौलिओं में अटक गए। ... भैया ओमा, इसमें लाज-शरम की बात ना है ... तुम अपनी जान-पहचान से हमें सही आदमी तक पहुँचवा दो ... बाकी हम देख लेंगे । भले मानस, इतना तो करो।

इस चक्रव्यूह में पहले भी मेरा घिराव हो चुका है। गनीमत है कि इस बार माँग जान-पहचान या सही आदमी का ठीया बताने तक सीमित है वर्ना पहले तो अपने विभाग में छोटी-मोटी या जो मुनासिब हो (रियायत का शुक्रिया) नौकरी लगवाने की जिद बनी रहती थी। मैं लाख कहता कि पुराना जमाना चला गया है ... अब नियुक्तियाँ (पहले तो यही कि डाउनसाइजिंग के जमाने में कहीं होती भी हैं !) या तो स्टाफ सलेक्शन कमीशन के जरिये होती हैं या एंप्लायमेंट एक्सचेंज से ... इसलिए पहले तो पढ़ाई पूरी करो, अच्छे नंबर लाओ और मेहनत से इम्तहान दो। इस सलाह पर डटे रहकर मैं उनका कोई फायदा होता नहीं देख सका। उनकी जमात की शर्मनाक अकादमिक उपलब्धियाँ मुझे उन पर बढ़-चढ़कर भाषण जड़ने का दुस्साहस जरूर देती रहीं मगर ऐसा भी हुआ, बाद में, जब मुझे खूब अपने मुँह की खानी पड़ी ... बीए कहो तो बीए और एमए कहो तो एमए पास, साइंस साइड के चाहिए या आर्ट कॉमर्स के ... विकल्प और सहूलियत मेरी थी कि मैं कब, किसको कहाँ लगवा सकता हूँ। ऐसा भी हुआ कि नौकरी की अपेक्षा रखते और मिन्नत करते एक उम्र गुजर गई और पिता बनकर बड़ी बेबसी से वही लोग अपने होनहारों को, मुँह बाये खड़ी नियति द्वारा उन्हीं के नक्शे-कदम पर हकाल दिए जाने के फैसले को बदलने में मेरे हस्तक्षेप की गुहार करते। मुझे यह कहने में कोई शर्म नहीं है कि भांय-भांय करती उनकी जरूरतों और समस्याओं का विद्रूप परिदृश्य, भीतरी चाहत और सहानुभूति के बावजूद, मेरी बुनियादी झिझक से मुझे नहीं उबार सका। आठवीं कक्षा तक मेरे साथ पढ़े रेशमपाल के साथ कभी मेरी बहुत छनती थी। न्यूटन के गति के सिध्दांतों से तब तक बेखबर हम लोग स्कूल के रास्ते में हल्का होते वक्त अक्सर 'किसकी धार दूर तक जाती है' जैसी निठल्ली प्रतियोगिता रखकर डे-चैंपियन बना-बिगड़ा करते थे। ठहरे पानी में एक बार मुझे धार मारते देख उसने टोका था कि मैं आइंदा ऐसा न करूँ। 'क्यों ?' 'क्योंकि कहते हैं, जल में मूत्र करम में कीड़ा होता है' उसने दार्शनिक होकर समझाया था।

पता नहीं उसकी सलाह को मैंने कितनी तवज्जो दी पर बरसों बाद उसकी दुर्गति देख ऑखें पथरा गई थीं। अपने आयु वर्ग में बरसों तक कुश्ती, ठेका और गोलाफेंक जैसे दमदार खेलों की (एकल) प्रतियोगिताओं का शहंशाह एक धूसर ढांचे में तब्दील हो गया था। पहले घर और खेती के एक साथ तीन फाड़ हुए फिर कई बच्चे पैदा हो गए जिनके खर्चों और हारी-बीमारी ने घर की हालत ज़ार-ज़ार कर दी। ब्राह्मण होने का दर्प भी पता नहीं कहाँ तिरोहित हो गया, तभी तो गाँव के सिमाने से निकलती पक्की सड़क के दोनों तरफ मिट्टी डालने वाले ज्यादातर कमजात मजदूरों के साथ उसने कंधे से कंधा मिला लिया। उसी दरम्यान एक दफा जब मेरा गाँव जाना हुआ तो सब कुछ छोड़-छाड़कर मेरे पीछे-पीछे लगा रहा और अपनी पीड़ा बयान करने के लिए शाम के झुटपुटे के वक्त मुझे एक कोने में घेरने में कामयाब हो गया ... वही, राग रोजगार अलापने ... ।

शहर में तुम क्या काम कर लोगे रेशमपाल ?

जो तुम करबेकू क्ओगे या जो दिलवाय देओगे, कर लंगो

उसका एक-एक लफ्ज गो ऑंखों से टपक रहा था।

तुम वहाँ की बोली-बानी भी नहीं जानते हो ?

चपरासी के लिए वा सबते का फरक परै

संतुलन रखते हुए उसने सही बचाव किया।

वैसे तो तनख्वाह होगी ही कितनी, मगर आधी तो रहने के किराये में ही निकल जाएगी !