गांधीगिरी की लहर / महात्मा गांधी और सिनेमा / जयप्रकाश चौकसे

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गांधीगिरी की लहर
जयप्रकाश चौकसे

विधु विनोद चोपड़ा पूना फिल्म संस्थान में अध्ययन करते समय ही अपनी एक लघु फिल्म के लिए अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके थे। उनकी तीसरी फिल्म 'परिंदा' खूब सराही गई थी और सफल भी रही थी। उनकी '1942 : ए लव स्टोरी' स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि पर एक प्रेरक प्रेम-कथा थी और संगीतकार राहुल देव बर्मन की यह आखिरी और मधुरतम फिल्म थी। उन्होंने उस कालखण्ड के बारे में गहन अध्ययन किया, तथ्य एकत्रित किए, परन्तु प्रेम-कथा काल्पनिक थी। उनके मन में अपनी फिल्मों की तकनीकी गुणवत्ता को पश्चिम के समान करने का प्रबल आग्रह हमेशा रहा है। इस फिल्म में एक छोटे कस्बे में किस तरह राष्ट्रीय घटनाओं के प्रभाव में आन्दोलन हुआ और अंत में ब्रिटिश यूनियन जैक उतारकर तिरंगा फहराया गया और राष्ट्रीय गीत भी गाया गया, जिसे बड़े प्रभावोत्पादक ढंग से प्रस्तुत किया गया था। शिकागो में रश्मि चिटनिस के साथ उनके पड़ोस में रहने वाला पाकिस्तानी परिवार भी फिल्म देखने गया था और फिल्म के प्रवाह में राष्ट्रगीत वाले दृश्य पर सम्मान से खड़ा हो गया था। घर लौटते समय उसे याद आया कि उसने 'दुश्मन देश' के राष्ट्रगीत को सम्मान दिया है। सिनेमा मंत्रमुग्ध करता है, जिससे उदात्तता जागती है।

इस राष्ट्रप्रेम की भावना वाली फिल्म के गीतों के फिल्मांकन के लिए विधु विनोद चोपड़ा ने पूना फिल्म संस्थान में प्रशिक्षित संजय लीला भंसाली को अवसर दिया। इसी तरह 'मिशन कश्मीर' में उन्होंने युवा राजकुमार हीरानी को अपना सहायक नियुक्त किया। राजकुमार हीरानी नागपुर के पास किसी छोटे शहर से पूना फिल्म संस्थान में पढ़ने आ थे। उन्होंने 'मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस.' की पटकथा विधु विनोद चोपड़ा को सुनाई और उन्होंने पसंद की। सितारा विहीन मुन्नाभाई ने उसी समय प्रदर्शित जे.पी. दत्ता की तीन दर्जन सितारों वाली 'एल.ओ.सी.' को बॉक्स ऑफिस पर ध्वस्त कर दिया। यह एक सितारे फिल्मकार का उदय होना था।

राजकुमार हीरानी और विधु विनोद चोपड़ा ने मुन्नाभाई पात्र को लेकर 'लगे रहो मुन्नाभाई' का निर्माण किया। इसमें अपराधी प्रवृत्ति के मुन्नाभाई को इश्क हो जाता है और उसे प्रभावित करने के लिए एक उम्रदराज लोगों के आश्रम में उसे गांधीजी पर बोलना है, क्योंकि उसके मित्र ने उन्हें प्रोफेसर के रूप में प्रस्तुत किया है। बेचारे मुन्नामाई वाचनालय जाते हैं, जहाँ वर्षों से बंद आलमारियों से गांधी साहित्य निकाला जाता है, उसकी धूल झाड़ी जाती है। जाहिर है पूरे देश में आदर्श और जीवन मूल्यों पर धूल चढ़ गई है। दरअसल यह जर्जर वाचनालय भारत में सांस्कृतिक क्षरण का प्रतीक है। इस देश में सरस्वती के मंदिरों की हालत खस्ता हो गई है। वाचनालय भुतहा महल लगता है और बूढ़ा वाचनालय कर्मचारी प्रेत की तरह मंडराता है। फिल्म का आधार दृश्य वाचनालय में ही है, जब गांधी प्रकट होते हैं और मुन्नाभाई की सहायता का वचन देते हैं। अब गांधी और गुडे का साथ एक के बाद अनेक मनोरंजक स्थितियों को जन्म देता है। मुन्नाभाई के कथन कि बापू उससे बात करते हैं, को उनके दिमाग का 'कैमिकल लोचा' बताना दर्शक को गुदगुदाता है और उसकी अविश्वास करने की इच्छा समाप्त हो जाती है। यह कथावाचकों के देश के फिल्मकारों की परम्परागत किस्सागोई का श्रेष्ठ नमूना है।

फिल्म के निर्णायक दृश्य में गांधीजी मुन्नाभाई की सहायता नहीं करते और अब तक उनके किए गये प्रयासों को मुन्नाभाई के दिमाग का खलल मान भी लिया जाता है। गांधीवाद का सार है कि मनुष्य स्वयं काम करे और 'बैसाखियों' के सहारे चलना छोड़ दे। यही गीता का भी सार है। श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में रथ चलाया, शस्त्र नहीं। अब मुन्ना के गिर्द कोई आभा मंडल नहीं है। उसे एक आदमी की तरह जूझना है। उसने निराश होकर महानगर छोड़ने का निश्चय किया, परन्तु शीघ्र ही वह अपने आपको पुनः अन्याय के खिलाफ युद्धरत पाता है। यहीं से गांधीजी के मूल्यों की सफलता प्रारम्भ होती है। यह बहुत ही बुद्धिमानी और निष्ठा से गढ़ी गई फिल्म है। राजकुमार हीरानी अपनी कुनैन को हास्य की शक्कर में लपेटकर प्रस्तुत करते हैं। उन्हें भारतीय जनमानस और भारतीय मनोरंजन जगत के इतिहास की गहरी जानकारी है। वे यदि सिनेमा में न होकर संसद में होते तो द 3 तो उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया जाता या गोली मार दी जाती, क्योंकि हम भावुक लोग या तो पूजते हैं या ध्वस्त करते हैं। इस फिल्म को देखकर लेखक सलीम खान ने उनसे कहा कि यह एकमात्र ऐसी फिल्म है, जिसमें दोष नहीं निकाला जा सकता और एक भी दृश्य न जोड़ा जा सकता है और न ही काटा जा सकता है। उन्होंने हीरानी से यह भी कहा कि उनकी 'दीवार' की प्रशंसा करने के बाद राज कपूर ने उनसे कहा कि नायक सफल होने के बाद भी अगर अपने सफलता के पहले वाले रफ-टफ साधारण लिवास में श्रेष्ठि वर्ग के समाज में जाता तो प्रभाव कुछ ज्यादा पड़ता, गोया कि निर्भीक सांड लोगों के जलसाघर में आ घुसा है।

फिल्म के प्रदर्शन के बाद पूरे देश में जगह-जगह युवा वर्ग ने अन्याय के खिलाफ 'गांधीगिरी' का शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया और एक लहर-सी चल पड़ी। उन दिनों किताबों की दूकान पर गांधी साहित्य की माँग आने लगी और करेन्सी नोट पर छपे गांधी की तस्वीर देखकर किसी बच्चे ने यह नहीं पूछा कि ये किसकी तस्वीर है। सामाजिक गोष्ठियों में फिल्म की चर्चा होने लगी और फिल्म की तरह ही गांधीजी सर्वत्र अपनी मौजूदगी का अहसास जगाने लगे। गांधीजी की मृत्यु के बाद उनकी स्मृति को अक्षुण्ण रखने के सरकारी प्रयासों से ज्यादा सफलता इस एक फिल्म ने प्राप्त की। उनके नाम पर करोड़ों का अनुदान पाने वाली संस्थाओं से जो काम नहीं हो पाए, वह फिल्म ने कर दिखाया। निर्जीव पाठ्यक्रम के पृष्ठों से बाहर निकल कर गांधीजी सिनेमा के परदे के माध्यम से पूरे राष्ट्र में छा गये।

फिल्म के द्वारा प्रवाहित यह गांधीवादी लहर किनारों के मजबूत पत्थरों पर सिर टकराकर विलीन हो गई, परन्तु पत्थरों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं हुआ, वरन् वे पहले से अधिक चिकने और मजबूत हो गए। यह इस अनन्त देश का 'स्थायी' स्वभाव है। हम प्रभावित भी लगते हैं, कभी-कभी विचलित भी होते हैं, परन्तु हमारे भीतर की परिवर्तनहीनता सदैव अक्षुण्ण रहती है। हम गतिमान होने का भरम रचते हुए भी स्थिर रहते हैं। हम सदैव स्थितप्रज्ञ बने रहने की कला में निष्णात हैं।

आजादी के पहले हमारे यहाँ सच्चे देश प्रेम की फिल्में बनीं हैं और ब्रिटिश सेन्सर की आँख में धूल भी झौंकी गई, परन्तु आजादी के बाद प्रायः छद्म देश प्रेम की ताली बजाऊ फिल्में बनीं हैं। उनमें कुछ अपवाद जरूर रहे हैं, परन्तु सिनेमा उद्योग ने देश प्रेम को भी फार्मूले में बदल दिया, जैसे नेताओं ने देश सेवा को टकसाल में बदल दिया है।

राकेश ओमप्रकाश मेहरा और आमिर खान की 'रंग दे बसंती' ने देश प्रेम फिल्मों को नया आयाम दिया। इसकी कथा और प्रस्तुतिकरण दोनों में नया प्रयोग था। कुछ उद्देश्यहीन युवा जीवन को मस्ती की पाठशाला समझते हैं और उनके दल की एक सदस्य अपने सा एक युवा अंग्रेज लड़की को लेकर आती है, जो भगतसिंह और उनके साथियों पर डाक्यूड्रामा बनाना चाहती है। वह इन उद्देश्यहीन भटकते हुए युवा लोगों में प्रतिभा के अणु देखती है और बहुत कठिनाई से उन्हें अभिनय के लिए तैयार करती है। फिल्म के बनते-बनते इन युवा लोगों में परिवर्तन आने लगता है। वे लोग क्रांतिकारी पात्रों की त्वचा में प्रवेश नहीं कर पाते, परन्तु पात्र उनकी आत्मा में समा जाते हैं। जब उनका एक युवा सायी रूस का बना मिग 20 के मशीनी दोष के कारण मर जाता है और मृत्यु पूर्व बस्ती में न गिरकर विमान निर्जन में गिरे इसका भी जतन करता है, तब ये युवा भ्रष्ट मंत्री और विमानों की खरीदी तथा उनके नकली पुर्जों की आपूर्ति करने वाले अमीर आदमी के खिलाफ विद्रोह करते हैं। अपने शहीद मित्र की मृत्यु का बदला लेने के लिए पहले वे शांतिपूर्वक विरोध करते हैं, परन्तु व्यवस्था पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वरन् स्वयं को एक अलग प्रकार का दल कहने वाले नृशंस लोग शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने वालों पर लाठियां चलवाते हैं। हम दमन की वही प्रक्रिया देखते हैं, जिसका विरोध हमने हुकूमते बरतानिया के खिलाफ किया था। वे रक्षा मंत्री की हत्या भी उसी ढंग से करते हैं, जैसे क्रांतिकारियों ने अंग्रेज अफसर को मारने के लिए की थी। उनकी हताशा बढ़ जाती है, जब मंत्री की मृत्यु को उनकी देश भक्ति कहा जाता है और उन्हें शहीद की तरह प्रचारित किया जाता है। अंत में अपनी बात को पूरे राष्ट्र तक पहुंचाने के लिए वे एक रेडियो स्टेशन पर कब्जा कर लेते हैं। नकली पुर्जी की आपूर्ति करने वाले की हत्या उसी का पुत्र करता है, जो इस दल का सदस्य है। रेडियो पर उनका प्रसारण पूरे देश को हिला देता है। उनके समर्थन में जगह-जगह प्रदर्शन होते हैं। सरकारी कमान्डो को हुक्म दिया जाता है, उन्हें घेर कर मार दें। वे आत्मसमर्पण के लिए सहर्ष तैयार थे, परन्तु उन्हें अवसर ही नहीं दिया जाता। इस कया के महत्वपूर्ण हिस्से में दो पात्रों के बीच की प्रेम-कथा भी है। इस महान फिल्म में प्रेम की अभिव्यक्ति भी मृत्यु के मुँह में जाते हुए नायक करता है, गोया कि मौत को ही उसने बरा था और अब उसके अनन्त आलिंगन में बंधने जा रहा है। भगतसिंह भी आजादी से वरे होने की बात करते थे। इस महान फिल्म का भी समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा। यद्यपि 'लगे रहो मुन्नाभाई' द्वारा जारी लहर की तरह ही यह लहर भी काल कवलित हो गई, परन्तु फिर भी सिनेमा में यह एक ऐतिहासिक घटना है। यह मनोरंजन उद्योग की विशेषता है कि वह अपने फार्मूले का स्वरूप बदलता रहता है।

'ए वेडनेसडे' नामक फिल्म में एक अनजान आम आदमी सरकार और पुलिस प्रशासन को यकीन दिला देता है कि उसने सारे शहर में जगह-जगह बम लगाए हैं और उनसे होने वाली हानि से बचने के लिए उनकी कैद के तीन आतंकवादियों को उसके हवाले कर दिया जाए। इस माँग के कारण सरकार इसे आतंकवादी का कार्य मानती है। तीनों आतंकवादियों को दो पुलिस अफसर एक निर्जन हवाई पट्टी पर छोड़ते हैं, जहाँ दो तो उस अनजान आम आदमी के द्वारा लगाए बम विस्फोट में मर जाते हैं और तीसरे को अफसर मार देते हैं। पुलिस कमिशनर किस अज्ञात स्थान से फोन किया जा रहा है, इसका पता करने के लिए एक कॉलेज की शिक्षा छोड़े युवा को बुलाता है, जो कम्प्यूटर विशेषज्ञ है। यह युवा पता लगा लेता है, परन्तु उस आदमी की देश भक्ति से प्रभावित है और उसका पता पुलिस को नहीं बताना चाहता। एक आम आदमी ने पूरी व्यवस्था को हिला कर रख दिया और वह काम किया, जो व्यवस्था के ठेकेदारों को करना चाहिए था। इस फिल्म ने एक मुद्दा यह भी उठाया कि क्या आम आदमी को कानून अपने हाथ में लेना चाहिए? दरअसल फिल्मकार यह कहना चाहता है कि जर्जर व्यवस्था में इतने छेद हैं कि अपराधी लम्बे समय तक दंडित नहीं होता। यह फिल्म आम आदमी का शंखनाद है। यह भी 'रंग दे बसंती' की तरह अलग किस्म के देशप्रेम की फिल्म है।

गांधीजी के जागरूक अखण्ड भारत की कल्पना आदित्य चोपड़ा की शिमीत अमीन निर्देशित 'चक दे इंडिया' में प्रस्तुत की गई है। जैसे हम 'लगान' को महज एक क्रिकेट फिल्म नहीं कह सकते, वैसे ही 'चक दे इंडिया' भी महज हाकी फिल्म नहीं है। फिल्म के नायक कबीर पर मिथ्या आरोप है कि उसने मुसलमान होने के कारण फायनल मैच में पाकिस्तान की टीम को जीतने दिया। उसका सामाजिक बहिष्कार किया जाता है और उसके पुश्तैनी मकान की दीवार पर गद्दार लिख दिया जाता है। वह अपनी माँ के साथ पुश्तैनी मोहल्ला छोड़कर कहीं और चला जाता है। कुछ वर्षों पश्चात् उसका एक मित्र, जिसे हमेशा उसकी निष्ठा पर भरोसा रहा है, उसे महिला हाकी टीम का कोच नियुक्त करा देता है। इस पद की कोई अहमियत नहीं मानी जाती। वह कैम्प में पन्द्रह युवा लड़कियों को कोच करता है। ये लड़कियाँ देश के विभिन्न क्षेत्रों से आई हैं और अपने साथ अपनी क्षेत्रीयता, संकीर्णता और व्यक्तिगत अहंकार लेकर आई हैं और एक टीम की तरह न खेलते हुए, एक दूसरे के खिलाफ खेलती हैं। इन पन्द्रह लड़कियों के साथ उनके जीवन और परिवार की मानसिक दशा के संकेत भी फिल्म में निहित हैं। यह महिला विमर्श की फिल्म है और विघटन की ओर अग्रसित देश का रुपक भी है। कोच उनमें एकता का 'भाव जगाता है और उनमें महिला होने का गौरव भी जगाता है। उन्हें समाज द्वारा सदियों से लादी गई कमतरी के भाव से मुक्त कराता है। दो प्रतिभाशाली लड़कियों में आपसी प्रतिस्पर्धा गहरी है और विश्व कप में अधिकतम गोल के पुरस्कार के लिए वे कुछ भी कर सकती' फायनल के पहले कोच दोनों से बात करता है और एक लड़की को ज्ञात होता है 1. उसकी 'दुश्मन' लड़की किसी अहंकारी पुरुष को सबक सिखाना चाहती है। फायनल मैच में यह लड़की स्वयं गोल न करके अपनी 'दुश्मन' को पास देते हुए कहती है कि अब उस लौंडे को सबक सिखा देना। भारतीय महिला टीम विश्व कप की अग्निपरीक्षा में न केवल विजयी होती है, वरन् वे बेहतर इंसान भी बन जाती हैं।

कोच कबीर अपने पर लगाये मिथ्या दाग से मुक्त होकर अपने पुश्तैनी मौहल्ले में लौटता है। एक बालक दीवार पर लिखे गद्दार शब्द को मिटा देता है। कबीर खान अपनी हॉकी उस बालक को देता है। यह महज हॉकी स्टिक नहीं है, यह एक परम्परा है, भारत की अखण्डता के प्रति निष्ठा है। महात्मा गांधी के सपनों के भारत को सैल्युलाइड पर प्रस्तुत करती है।

शाहिद कपूर अभिनीत जॉन मैथ्यू की फिल्म 'शिखर' का केन्द्रीय पात्र गांधीजी की प्रेरणा से रचा गया, जो एक आदर्श संस्था चलाता है। उसके पश्चिम में पढ़े-लिखे पुत्र को उद्योगपति अपने रंग में रंगता है और प्रगति तथा आधुनिकता के नाम पर पथभ्रष्ट करना चाहता है। उसकी योजना पाठशाला की जमीन हड़पकर उस पर बहुमंजिल इमारतें बनाना है। अंतिम संघर्ष में गांधीवादी मूल्यों की विजय होती है। एक अल्प बजट की लगभग अप्रचारित फिल्म 'रोड टू संगम' में गांधीजी की शेष अस्थियों के संगम में विसर्जन के प्रयास की कहानी है। दुर्भाग्यवश यह फिल्म उचित ढंग से प्रदर्शित नहीं हुई। अमित राय की इस फिल्म में ओमपुरी, पवन मल्होत्रा और मसूद अखतर जैसे कलाकार थे। इसके नाम से इसके रहस्य रोमांच की मारधाड़ वाली फिल्म का आभास होता है। पर यदि नाम 'अस्थि विसर्जन' होता तो यह एक धार्मिक फिल्म लगती है। जबकि वास्तव में 2009 में प्रदर्शित यह फिल्म गांधीजी के प्रति आदरांजलि है।

विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हीरानी भारतीय शिक्षा प्रणाली पर 'मुन्नामाई' के पहले फिल्म बनाना चाहते थे, परन्तु वे पटकथा से संतुष्ट नहीं थे। चेतन भगत के उपन्यास 'फाईव पाइन्ट समवन' पढ़कर उन्हें वह महत्वपूर्ण बिन्दु मिल गया, जिसकी उन्हें तलाश थी। उपन्यास के अधिकार खरीदकर उन्होंने एक ऐसी पटकथा लिखी जो स्वतंत्र रचना बन गई। इसका नायक रणछोड़दास छाजेड़ के नाम से आई.आई.टी. में सबसे अधिक अंक प्राप्त करता है, परन्तु यह उसका असली नाम नहीं है। उसके पिता जिसकी चाकरी करते थे, उसके निकम्मे पुत्र का नाम है। वह ज्ञान से आलोकित होता है, परन्तु प्रमाण पत्र निकम्मे को देकर अपने पिता के द्वारा दिए गए वचन को पूरा करता है। हमारे यहाँ माता-पिता अपनी संतान को उस डिग्री को प्राप्त करने के लिए बाध्य करते हैं, जो उन्हें अच्छी नौकरी दिला सके और इस प्रक्रिया में युवा की रुचि और स्वाभाविक प्रतिभा से उसे दूर कर दिया जाता है। विद्यार्थियों में स्वतंत्र सोच विकसित करने के बदले, उन्हें मशीनवत चीजें स्मृति में ठूंसने को बाध्य किया जाता है। इस फिल्म में मौलिक शोध में व्यस्त एक छात्र को आत्महत्या के लिए बाध्य होना पड़ता है। शिक्षण संस्था के सख्त अनुशासन पसंद करने वाले अधीक्षक के पुत्र ने भी आत्महत्या की थी, क्योंकि पिता की इच्छा के अनुरूप वह इंजीनियर नहीं बनना चाहता था, वरन् साहित्य रचना चाहता था। राज कपूर की प्रथम फिल्म 'आग' (1948) में भी नायक परिवार की परम्परा में वकील बनना नहीं चाहता, वह तो रंगमंच पर काम करना चाहता है। युवा को अपनी अभिरुचि के कार्य करने की स्वतंत्रता के पक्ष में यह एक सशक्त फिल्म थी और इसका सिनेमाई मुहावरा भी नया था। वह राज कपूर का घोषणा पत्र था और उनकी आगामी फिल्मों का संकेत भी देता था।

'थ्री इडियट्स' में शिक्षा की गुणवत्ता और मौलिक चिंतन के विकास पर प्रकाश डाला गया है। आज की बाजार नियंत्रित व्यवस्था को सेल्समैन की आश्यकता है और उनका असली ध्येय स्वतंत्र विचार की शक्ति समाप्त करना तथा एक किस्म के रेजीमेंटेशन स्थापित करना है। विचारहीन व्यक्ति ही अनावश्यक वस्तुओं को खरीदेगा। यह सादगी किफायत और स्वाभाविक ढंग से प्रकृति के साथ ताल मिलाकर जीने की गांधीवादी विचारधारा के खिलाफ सक्रिय बाजारवाद है। उपयोगितावाद भी उसका हिस्सा है। राजकुमार हीरानी की फिल्म बाजार के षडयंत्र को उजागर करने का प्रयास अत्यंत मनोरंजक शैली में करती है। गहरी बात इतने मनोरंजक ढंग से की गई है कि यह फिल्म इतिहास की सफलतम फिल्म सिद्ध हुई है।

हमने अपने बच्चों में प्रतिस्पर्धा की भावना को ऐसा ठूंसा है कि उनकी सहज स्वाभाविकता नष्ट हो गई है। दूरदर्शन पर एक लघु फिल्म प्रदर्शित हुई थी, जिसमें महत्वकांक्षी माँ अपने बच्चे को हमेशा प्रथम आने पर इतना जोर देती है कि वह अपने से अधिक अंक पाने वाले अपने मित्र छात्र की हत्या कर देता है, क्योंकि उसके जीवित रहते वह स्वयं हमेशा नम्बर दो रहता। यह लघु फिल्म पाठ्यक्रम का हिस्सा बना दी जाना चाहिए। माता-पिता बाजार की ताकतों से संचालित विचार शैली के तहत अपने बच्चों को सफलता पाने वाले रोबो में बदलना चाहते हैं। आज माता-पिता को उच्च जीवन मूल्यों में प्रशिक्षित करना आवश्यक है।

गांधीजी की शिक्षा व्यवस्था की आदर्श कल्पना को फिल्मकार भालजी पेंढारकर ने अपनी 1926 में प्रदर्शित फिल्म 'वंदेमातरम् आश्रम' में प्रस्तुत किया था। प्रारम्भ में एक इबारत परदे पर उभरती थी "जब तक हमारी शिक्षण संस्थाएं अपनी शिक्षा प्रक्रिया में परिवर्तन करके उसे इस देश की जरूरतों के अनुसार नहीं ढालेंगी, तब तक ये संस्था निष्प्राण रहेंगी।" गांधीजी ने जीवन मूल्यों से ओतप्रोत और व्यावहारिक जीवन में काम आने वाली शिक्षा प्रणाली के लिए 1920 में गुजरात विद्यापीठ की स्थापना की थी, जो आज भी सक्रिय है।

इसी वर्ष फरवरी माह में गुजरात विद्यापीठ द्वारा आमंत्रण मिलने पर मैं अहमदाबाद से कुछ दूरी पर बसे सादरा में उनकी एक संस्था में आयोजित परिसंवाद में भाग लेने गया था। यह कॉलेज 1920 में ही स्थापित किया गया था। वहाँ अत्यंत अल्प शुल्क में रहने, खाने और पढ़ाने की व्यवस्या है। शिक्षक भी योग्य और मेहनती हैं। कुछ युवा शिक्षक अपनी अधिक आय वाली नौकरी छोड़कर यहाँ पढ़ाने आए हैं। इसका पाठ्यक्रम आदर्श है, परन्तु इस संस्था में प्रतिभाशाली छात्र दाखिला नहीं लेते, क्योंकि इसका आदर्श पाठ्यक्रम उन्हें अच्छी नौकरियां नहीं दिला सकता। यही बात मैंने वर्धा में स्थापित महात्मा गांधी हिन्दी विश्वविद्यालय में भी देखी, जहाँ श्रेष्ठ सुविधाएं उपलब्ध हैं। यह हमने कैसा समाज रचा कि किसी भी क्षेत्र में कोई आदर्श हमें आकर्षित ही नहीं करता? क्या आध्यात्मिक गुरु होने का दम्भ करने वाला देश आज पूर्णरूपेण अर्थ प्रधान हो गया है? यह सच है कि आजादी के पश्चात् पूरे देश में जगह-जगह शिक्षण संस्थाएं स्थापित की गई हैं, परन्तु शिक्षा में गुणवत्ता के मूल्य का निर्वाह नहीं होता। श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' में इस पर करारा व्यंग्य है और राजकुमार हीरानी की 'थ्री इडियट्स' सेल्युलाइड पर रची 'राग दरबारी' ही लगती है।

आजकल महानगरों में ऐसी शिक्षण संस्थाएं स्थापित हुई हैं, जो अमेरिका में पढ़ाये जाने वाले पाठ्यक्रम को उनकी ही शैली में पढ़ाते हैं और इन संस्थाओं में शिक्षक भी आयात किए गए हैं। इनकी फीस बहुत अधिक है और एक उच्च पदस्थ सरकारी अधिकारी की वार्षिक आय से ज्यादा पैसे यहाँ लिए जाते हैं। श्रेष्ठि वर्ग के छात्र और फिल्म सितारों की संतानें ही यहाँ पढ़ती हैं। भारतीय शिक्षा जगत में बाजार की ताकतों का प्रवेश हो चुका है। अनेक प्रांतों में शिक्षण संस्थाओं पर नेताओं का नियंत्रण है। इस समय व्यापार जगत में शिक्षण संस्थाएं स्थापित करना बहुत अधिक लाभ कमाने का जरिया हो चुका है। यहाँ तक कि प्रायवेट अस्पताल या हॉटल से अधिक मुनाफा शिक्षण संस्थाओं से प्राप्त होता है। इसके साथ ही यह भी देखने में आता है कि बमुश्किल तीन हजार आबादी के गांव में सेंट मैरी या एमिनेंट स्कूल के बोर्ड लगे देखे जाते हैं। कान्वेंट स्कूल में अधकचरी शिक्षा प्राप्त कामचलाऊ शिक्षक देखे जाते हैं।

इन सब बातों के बावजूद कुछ प्रतिभाशाली छात्र अपने जीवन को शिक्षा एवं आदश मूल्यों से आलोकित करने में सफल हो रहे हैं। मध्यम वर्ग की ज्ञान की प्यास अपने मार्ग खोज लेती है। सिनेमा शास्त्र को पढ़ाने वाली पहली संस्था पूना में खुली थी और प्रयम दो दशकों तक वहाँ से कुछ मेधावी लोग आए, परन्तु विगत कुछ समय से यह संस्था भी रस्म अदाएगी ही कर रही है। कुछ महानगरों में सिने माध्यम की शिक्षा के संस्थान खुले हैं, परन्तु ये माध्यम की लोकप्रियता का लाभ उठाकर विद्यार्थियों को ठग रहे हैं।

दरअसल सिनेमा शास्त्र की सारी पुस्तकें अंग्रेजी भाषा में लिखी हैं और उनमें विवरण एवं उदाहरण भी विदेशी फिल्मों का ही दिया गया है। इन संस्थाओं में छात्र विदेशी संस्कृति में रची फिल्मों को देखते हैं और उन्हीं के माध्यम से शास्त्र सीखते हैं। दरअसल इस तरह की सभी संस्थाओं में भारत के इतिहास और सांस्कृतिक धरोहर का भी अध्ययन किया जाना चाहिए। उन्हें भारतीय दर्शक के लिए फिल्म रचना है, अतः भारत और भारतीय मानस का ज्ञान भी आवश्यक है। दरअसल तमाम अंग्रेजी के ग्रंथों का भारतीय भाषा में अनुवाद किया जाना चाहिए और विदेशी फिल्मों से दिए गए उदाहरणों की जगह उन्हीं बातों को समझाने के लिए भारतीय फिल्मों से अंश चुनना चाहिए। यह कितनी अजीब बात है कि दुनिया में सबसे अधिक फिल्में बनाने वाले देश में सिनेमा विधा पर कोई मौलिक ग्रंथ की रचना नहीं हुई है। हमारे फिल्मकारों की सृजन प्रक्रिया का गहन अध्ययन करके उन पर भी किताबें नहीं रची गई हैं। हमारे महान फिल्मकारों ने भी अपनी डायरी नहीं लिखी है, अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में कुछ नहीं लिखा है। हमारे यहाँ फिल्मकारों के जीवन और सितारों के जीवन पर कुछ किताबें लिखी गई हैं, परन्तु वे गॉसिप का ही एक दूसरा स्वरूप है। बंगाल में जरूर कुछ गंभीर काम हुआ है। सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि सिनेमा विधा सिखाने वाले शिक्षक ही नहीं मिलते। विदेशों की शिक्षण संस्थाओं में फिल्मकार बनने के लिए शिक्षा देने के साथ ही फिल्म विधा पढ़ाने की महत्वाकांक्षा रखने बालों के लिए विशेष व्यवस्था है। अमेरिका ने सबसे पहले इस मार्केट का अनुमान लगाया और अनेक शिक्षक तैयार किए। आज अनेक देशों में ये शिक्षक पढ़ा रहे हैं।

हमने तो फिल्म आस्वाद की पाठ्यक्रम में शामिल की जाने वाली पुस्तक भी नहीं रची है। फिल्म में रुचि रखने वाले युवा वर्ग को हमने ही गॉसिप केन्द्रित फूहड़ फिल्म पत्रिकाएं पढ़ने के लिए बाध्य किया है। सिनेमा शास्त्र की रोचक किताबों का अभाव गहरी चिंता का विषय है। यद्यपि हमारे देश में सिनेमा शास्त्र के द्रोणाचार्य नहीं हुए, तयापि इस शास्त्र के एकलव्य-बहुत हुए हैं। एक अदृश्य अपूर्ण द्रोणाचार्य की कल्पना भी उन्होंने कर ली और उससे शास्त्र भी पढ़ लिया। सिनेमा को इन लोगों ने लोक संगीत और लोक गीत की तरह समझा और सीखा। यह हमारे यहाँ कभी शास्त्रीय संगीत की तरह नहीं रहा। इसका दूसरा पक्ष यह है कि हमारे दर्शकों के पास भी सिनेमा आस्वाद की किताब नहीं है, परन्तु उनके पास अनेक फिल्मे देखने का अनुभव है और वे अपने सहज स्वभाव से फिल्म में छिपे अर्थ खोज भी लेते हैं। वे कई बार ठगे गये हैं, परन्तु उनका जुनून कायम है और अनेक बार उन्होंने श्रेष्ठ फिल्मों को खूब सराहा भी है। भारतीय सिनेमा की ताकत पारम्परिक अर्थ में ये 'अनपढ़' दर्शक और एकलव्य की तरह के जुनूनी फिल्मकार ही हैं।

इंदिरा गांधी की पहल से 1982 में दिल्ली में आयोजित एशियाड प्रतिस्पर्धा के समय भारतीय टेलीविजन रंगीन हो गया और दूरदर्शन पर सामाजिक सोद्देश्यता वाले सीरियल रखे गए। मनोहरश्याम जोशी ने विदेश जाकर सोप सीरियल विधा का अध्ययन करके हमलोग रचा, जिसमें मध्यम वर्ग की समस्याओं और परिवार के रिश्तों को मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत किया। लोकप्रियता को भुनाने के लिए कथा को रबर की तरह खींचा गया और आने वाले समय में इस रबर प्रवृत्ति ने सार्थक कथाओं को विकृत कर दिया। जोशीजी ने विभाजन पर रमेश सिप्पी के लिए बुनियाद लिखी, इसमें गांधीजी का चरित्र गांधी की प्रेरणा से रचा गया। बहरहाल दूरदर्शन ने सीमित साधनों में गुणवत्ता रची, परन्तु बाद में आए प्राइवेट चैनलों ने मनोरंजन के नाम पर बेहूदा सीरियल रचे, हास्य के नाम पर अश्लीलता परोसी और सबसे भयावह बात यह है कि उन्होंने कुरीतियों और अंधविश्वास को मजबूत किया। टेलीविजन पर लोकप्रियता आंकने की व्यवस्था दोषपूर्ण है। देश की विविधता में यह विदेशी व्यवस्था लोकप्रियता का आकलन नहीं कर सकती। इसी आधार पर कारपोरेट ने विज्ञापन दिये। सीरियलों ने वैकल्पिक संसार रचा और अपने कार्यक्रमों में अफीम की तरह प्रभाव घोला। आर्थिक उदारवाद द्वारा रचे गये समाज में जीवन की भागमभाग के थके-हारे लोग घर लौटते थे, जहाँ ऊब की मारी उनकी पत्नियाँ निस्तेज आँखों से इन्तजार की रस्म अदायगी करती थीं और बाद में थकान और ऊब को बिछाकर सोने का उपक्रम करते हुए सीरियल के संसार में खो जाते हैं। पलायन का यह नया स्वरूप है और सिनेमा से अलग है।

प्रायवेट चैनलों ने समाज में व्याप्त सांस्कृतिक शून्य की खाई को गहरा कर दिया। दरअसल इन कार्यक्रमों द्वारा पहुँचाई हानियाँ एक स्वतंत्र शोध ग्रंथ का विषय है। इस वर्ष आमिर खान द्वारा प्रस्तुत सत्यमेव जयते में सामाजिक मुद्दे उठाए गए और कुरीतियों तथा अंधविश्वास पर प्रहार किया गया। गौरतलब यह है कि ये मुद्दे गांधीजी उठा चुके थे 11 गांधीजी ने कुरीतियों और अंधविश्वास के खिलाफ लड़ाई को स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बनाया था। आमिर खान ने न केवल मुद्दे उठाए, वरन् मंत्रियों और आला अफसरों से मिलकर निदान का प्रयास भी किया। उन्होंने इस कार्यक्रम को एक सामाजिक आन्दोलन का स्वरूप दिया और किसी भी राजनैतिक दल को इसमें शामिल नहीं होने दिया। उनके द्वारा उठाए गए सभी सामाजिक मुद्दों के यथार्थपरक आंकड़ों के साथ मानवीय करुणा के आँसू भी इसमें शामिल थे।

आमिर खान का पहला एपिसोड स्टार चैनल पर 6 मई 2012 को प्रस्तुत हुआ और आखिरी एपिसोड 29 जुलाई 2012 को प्रसारित हुआ। हर मुद्दे से जुड़े विशेषज्ञों को आमंत्रित किया गया और सभी पक्षों को अपनी बात कहने का पूरा अवसर दिया गया। आमिर खान कभी भी न्यायाधीश की तरह नजर नहीं आए, उन्होंने न फैसले दिये, न फतवा जारी किया, महज मानवीय करुणा का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने समाज के उन छिपे हुए अंधेरे हिस्सों पर प्रकाश डाला, जहाँ आज भी आदिम बर्बरता कायम है, सामंतवादी सोच अभी तक मरी नहीं है, क्योंकि उसे गलत परिभाषित पौराणिकता का समर्थन प्राप्त है। पहला मुद्दा कन्या भ्रूण हत्या का उठाया गया था।

सत्यमेव जयते की दूसरी कड़ी बाल यौन शोषण पर प्रस्तुत की गई और यह बात सामने आई कि इस अमानवीय अपराध के खिलाफ इंडियन पीनल कोड में कोई प्रावधान नहीं है। इस विषय का संशोधन संसद में लम्बे समय से विचाराधीन है, जिस तरह संसद में महिला आरक्षण का संशोधन धूल खा रहा है।

इस कार्यक्रम में बचपन की मासूमियत का प्रहार का सार्थक विरोध प्रस्तुत किया गया। अपने कार्यक्रम की 22 मई को प्रसारित कड़ी में आमिर खान ने दहेज के मुद्दे को उठाया। सदियों से इस कुप्रथा के खिलाफ अनेक लोगों ने आवाज उठाई, परन्तु यह आज भी कायम है। यह अजब-गजब भारत की तासीर है कि कुप्रयाएँ अजर-अमर रहती हैं। भारत में बिगत की सारी शताब्दियाँ वर्तमान के क्षण में एक साथ मौजूद रहती है। बहरहाल दहेज के देश को भुगतने वाली अनेक महिलाओं को कार्यक्रम में प्रस्तुत किया गया। नारी को न्याय दिलाने की सारी लहरें पथरीले किनारों पर सिर टकराकर लौट जाती है।

इस कड़ी के प्रसारण के बाद कुरीतियों के पोषकों ने इस तरह की आवाज उठाने की कोशिश की कि आमिर खान महज पैसा कमाने के लिए यह कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे हैं। जाज आमिर खान की सितारा हैसियत इतनी विराट है कि यह टेलीविजन पर किसी भी प्रकार का कार्यक्रम करके इससे अधिक पैसा इसके लिए किये गये परिश्रम से कम काम करके भी कमा सकता थे।

अपने सत्यमेव जयते के चौये एपिसोड में आमिर खान ने चिकित्सा व्यवसाय में व्यापक पैमाने पर प्रवेश कर गई अनैतिकता के बारे में चौंकाने वाले तथ्य प्रस्तुत किए। प्रसिद्ध कम्पनियाँ अपने ब्रांड दस गुना अधिक दाम में बेचती है, जबकि वही प्रभाव रखने वाली जैनेटिक दवाएँ आम आदमी को सस्ते में उपलब्ध कराई जा सकती है। राजस्थान सरकार ने इस दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास किया है। पैथोलॉजी लेब में जनता को लूटा जाता है और उसकी सिफारिश करने वाले डॉक्टरों को कमीशन दिया जाता है। कमीशन कालेधन के रूप में दिया जाता है और समाज में अनेक व्याधियों को जन्म देता है। सारे देश में व्याप्त मूल्यहीनता और सांस्कृतिक शून्य का ही एक हिस्सा चिकित्सा क्षेत्र भी है। चिकित्सा क्षेत्र में व्याप्त अनैतिकता एक लाइलाज रोग है।

आमिर खान के पाँचवें एपिसोड में खाप पंचायतों द्वारा स्थापित खौफ के साम्राज्य का विरोध किया। आमिर खान ने खाप पंचायतों के अध्यक्षों को भी आमंत्रित किया और कार्यक्रम में भी वे लोग अपनी जिद पर कायम रहे। एक बुजुर्ग खाप अध्यक्ष ने तो भारतीय संविधान को नहीं मानने की बात भी की और सगर्व कहा कि इंग्लैंड की तरह खाप भी अलिखित संविधान के तहत चलाया जाता है। उन्हें नहीं मालूम कि इंग्लैंड में संविधान लिखित रूप में है और केवल कुछ परम्पराएँ अलिखित हैं। खाप युवा प्रेम को हिंसक ढंग से कुचलते हैं। दरअसल जातिवाद और धर्म की संकीर्ण परिभाषाओं पर ही अन्याय आधारित खाप चलते हैं और सरकार वोट बैंक के मिथ के कारण इनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करती। पंजाब की अदालतों में औसतन 25 प्रार्थना-पत्र प्रतिदिन अपनी सुरक्षा के लिए युबा प्रेमी दाखिल करते हैं। खाप पंचायतों के खौफ का साम्राज्य अशिक्षा, गरीबी और अन्याय आधारित जर्जर व्यवस्था के कारण पनपा है। दरअसल खाप की तरह सारी असंवैधानिक संस्थाएँ प्रेम से डरती हैं, क्योंकि विशुद्ध प्रेम दिलोदिमाग को रोशन करता है, साहस देता है। उन्हें यह भी डर है कि सदियों से दबाकर रखी गई नारियाँ कहीं प्रेम का सहारा पाकर स्वतंत्र न हो जाएँ।

आमिर खान ने छठवीं कड़ी में विकलांग लोगों की समस्या, उस पर समाज का सोच, पूर्वाग्रह और अंधविश्वास को प्रस्तुत करते हुए विकलांग लोगों के साहस, जुझारुपन और आत्मविश्वास को भी प्रस्तुत किया। कार्यक्रम में बरार साहब की प्रशंसा की गई, जिनके औद्योगिक संस्थान में कार्यरत 170 विकलांग व्यक्तियों से भी सम्पर्क स्थापित किया गया, जिनके परिश्रम और प्रतिभा से यह संस्थान अपने क्षेत्र में अग्रणी है। सरकार की उदासीनता का यह हाल है कि उनके पास कमतर ईश्वर या खुदा के बंदों के सही आंकड़े तक नहीं है। अमेरिका निःसंकोच स्वीकार करता है कि उसकी आबादी का बारह प्रतिशत विकलांग लोगों का है। अमेरिका के जनजीवन में इस विषय को लेकर इतनी करुणा है कि इस विषय पर बनी फिल्में ऑस्कर से नवाजी जाती हैं।

समाज में यह मिथ्या धारणा है कि विगत जन्म में किये गये पापाचार के कारण लोग इस जन्म में विकलांग रूप में पैदा होते हैं। पाप और पुण्य की काल्पनिक धुरी पर घूमते जन्म-जन्मांतर की पौराणिकता हमें सामाजिक सत्य को स्वीकार ही नहीं करने देती। दसवीं पंचवर्षीय योजना में इनके लिए कोई प्रावधान नहीं रखा था, परन्तु ग्यारहवीं योजना में यह मुद्दा शामिल है। कागजी योजनाओं में करुणा का हिसाब-किताब नहीं रखा जा सकता। विकलांग संतान के माता-पिता स्याह रातों में निद्राविहीन तकियों को अपने आँसुओं से सींचते हैं और उनके सपने भी विकलांग हो जाते हैं। दरअसल हमारे समाज की मानसिक विकलांगता से उनके लाड़लों की अपनी हृदयहीनता से ज्यादा आहत किया है।

वे लोग अपनी जन्मजात विकलांगता से उतने घायल नहीं है। समाज में सहिष्णुता और करुणा हाशिये में फेंक दी गई है।

आमिर खान की सातवीं कड़ी महिलाओं के विरूद्ध की गई घरेलू हिंसा के मुद्दे को उठाती है। दरअसल आमिर खान का कार्यक्रम मूलतः नारी विमर्श ही है। इस कार्यक्रम में एक महिला को उसके पति ने उसकी जीभ काटने की धमकी दी और इतनी निमर्मता से पिटाई की कि वर्षों तक उस औरत ने एक शब्द भी नहीं बोला, क्योंकि उसके अवचेतन में यह स्थापित हो चुका था कि उसकी जीभ काट दी गई है। सच तो यह है कि पुरुष चाहता है कि उसकी स्त्री के कान हों, सेवा के लिए हाथ-पैर हो, नोंचने के लिए गदराया हुआ जिस्म हो, परन्तु जीभ नहीं हो। सरकार ने अनेक नगरों में प्रताड़ित नारियों के लिए प्रश्रय स्थल बनाए हैं, परन्तु वे खस्ताहाल हैं और वहाँ नियुक्त अधिकारी भी अबलाओं का शोषण ही करते हैं। इस तरह के आंकड़े भी सामने आये कि घरेलू हिंसा की शिकार अधिकांश महिलाएँ मध्यम वर्ग की हैं। सच्चाई यह है कि उच्च वर्ग की संगमरमरी हवेलियों की ऊँची दीवारों के बाहर पिटती हुई नारियों की कातर ध्वनि पहुँच नहीं पाती। दरअसल यह मामला वर्ग भेद का नहीं है, यह उस विकलांग सोच का परिणाम है, जिसे सदियों से पोषित किया गया है। दरअसल अनेक पढ़े-लिखे और सहृदय लोग भी इस सोच के शिकार हैं। ज्ञातव्य है कि जब जवाहरलाल नेहरू ने संसद में यह अधिनियम पास करवाया, जिसके तहत पिता की सम्पत्ति पर पुत्र और पुत्री का समान अधिकार होगा, तब तत्कालीन राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्रप्रसाद ने इस पर हस्ताक्षर करने में संकोच दिखाया।

दरअसल घरेलू हिंसा मुद्दा नहीं है, मुद्दा तो नारी-पुरुष समानता का है। पुरुष का दृष्टिकोण बनाने में जैनेटिक प्रभाव की बात भी कार्यक्रम से एक विशेषज्ञ ने भी। दादा-परदादा और पिता सभी अपनी-अपनी पत्नियों की पीटते रहे हैं और घरेलू हिंसा जीन्स में आ गई है। यह मामला हिंसा का नहीं, वरन् भय का है। पुरुष को अपनी जन्मना कमतरी से भय लगता है, जो हिंसा के रूप में अभिव्यक्त होता है। इस पुरुष भय के प्याज के छिलके उतारिये - वह प्रेम करना चाहता है, उसकी इच्छाएँ असीमित, परन्तु प्रेम न कर पाने की कमतरी और उससे जुड़ा नैराश्य, भय भी मानसिक गठान में बदलकर हिंसा में अभिव्यक्त होता है।

आमिर खान की आठवीं कड़ी कीटनाशक दवाओं के प्रयोग और अतिरेक से जन्मी हानियाँ, जो हमारी आगामी पीढ़ी को भी प्रवाहित कर रही है, को प्रस्तुत करते हुए जैविक खेती के लाभ बताती है और जैविक खेती के बारे में फैलाई भ्रांतियों का खण्डन करती है। कम पैदावार सोचा-समणा षड़यंत्र है। कीटनाशक दवा से माइक्रोन्यूट्रान नष्ट हो जाते हैं और इनके अक्षुण्ण रहने से खाने वाले को कम बीमारियाँ होती है। जमीन की उर्वरक शक्ति भी कीटनाशक से कम होती है। अधिकांश कीटनाशक दवा धरती पर गिरती है, नदियों में मिल जाती हैं और भयावह बात यह है कि कीटनाशक डालकर उपजाये हुए, अनाज और सब्जियों को खाने के कारण माताजी के पावन दूध तक में कीटनाशक पहुँच जाते हैं। भारत में प्रयुक्त 67 प्रतिशत कीटनाशक विदेशों में बहुत पहले अवैध करार दिये गये हैं, जैसे एन्डोसल्फान। यह कितनी भयावह बात है कि पंजाब में कीटनाशक दवाओं के प्रयोग के कारण होने वाले कैन्सर के कारण मरीज जिस ट्रेन से इलाज कराने बीकानेर जाते हैं, उस ट्रेन का नाम ही कैन्सर ट्रेन पड़ गया और टिकिट खिड़की पर कैन्सर ट्रेन कहने से टिकिट मिल जाता है।

सत्यमेव जयते की नौवीं कड़ी में उम्रदराज लोगों की समस्याओं पर प्रकाश डाला गया और उनके प्रति समाज के बदलते हुए दृष्टिकोण को भी प्रस्तुत किया गया। भारत के अनेक शहरों में अधिकांश मकानों के नाम मातृछया, पितृछाया, ममता आदि हैं, परन्तु ययार्य जीवन में बूढ़े माता-पिता के प्रति समाज निर्मम है। दरअसल समाज में संवेदनाएँ घट रही हैं और क्रूरता के दायरे फैलते जा रहे हैं। सारे मानवीय रिश्तों में आर्थिक पहलू निर्णायक हो गया है। तमिलनाडु के एक छोटे-से क्षेत्र में सदियों से वृद्ध व्यक्ति को उसका पुत्र ही मार देता है और इस कुरीति को तलाईकुतुल नाम दिया गया है। आजकल वहाँ नीम-हकीम डॉक्टरों से वृद्ध को जहर का इन्जेक्शन देने के लिए पुत्र धन खर्च करता है। इस घिनौने सत्य को डेकन क्रानिकल की पत्रकार प्रमिला कृष्णन ने उजागर किया।

कुछ वर्ष पूर्व बुक ऑफ विशेज नामक फिल्म में बच्चों के एक स्कूल में आधी रात आग लग जाती है। सभी बच्चे बचा लिए जाते हैं, परन्तु इमारत खाक हो जाती है। स्कूल का अधीक्षक बच्चों को थोड़ी दूर पर स्थापित एक वृद्धाश्रम में ले जाता है। यह अस्थाई व्यवस्था ही एकमात्र रास्ता थी। सभी बूढ़े खुर्राट हैं और अपनों द्वारा नकारे जाने की पीड़ा से दुःखी हैं। जिन्हें अपने हाथ से निबाला खिलाया, उन्होंने युवा होकर उन्हें अपने जीवन से खारिज कर दिया। अतः उन उम्रदराज लोगों को बच्चे नदारत हैं। धीरे-धीरे बच्चे अपनी मासूमियत से उनकी कड़वाहट समाप्त कर देते हैं। बूढ़े भी बच्चों को मजेदार कहानियाँ सुनाते हैं और उनके बीच ऐसी मोहब्बत पैदा होती है कि स्कूल की नई इमारत बनने के बाद बच्चे इस शर्त पर बिदा लेते हैं कि सप्ताहांत में उनकी मुलाकात वृद्धों से होगी। दरअसल उम्रदराज लोगों के लिए ऐसी संस्थाएँ बनना चाहिए, जहाँ उन्हें बच्चों का सान्निध्य मिले। बच्चे समय की नदी के इस पार वहाँ बचपन की निर्मल भावना लेकर जाना चाहता है।

कार्यक्रम की दसवीं कड़ी में शराब पीने के कारण समाज में फैली सड़ांध और शराब के कारण लोगों के हिंसक होने का मुद्दा उठाया गया। गांधीजी के युग में उनकी प्रेरणा से महिलाएँ शराब की दुकानों के सामने धरने देती थीं। महिलाओं की सामाजिक जीवन में सक्रियता का शंखनाद गांधीजी ने ही किया था। हर कड़ी की तरह इसमें भी मुद्दे के सारे पक्ष प्रस्तुत किये गये। कार्यक्रम की ग्यारहवीं कड़ी में छुआछूत के मुद्दे को उठाया गया। इस कार्यक्रम के प्रारम्भ में ही डॉ. कौशल पंवार ने अपने संघर्ष का वर्णन किया और बताया कि आज दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर होने के बाद भी उनके और उनके परिवार के साथ कितना खराब सलूक किया जाता है। कार्यक्रम में बनारस के बटूकप्रसाद शास्त्री ने डंके की चोट पर कहा कि वे भारतीय संविधान को नहीं मानते और उनके लिए वेद ही एकमात्र सत्य है। सारे प्रयासों के बाद भी जातिवाद और छुआछूत समाज में कायम है। जाति के नाम पर अन्याय का खेल खत्म ही नहीं होता, वह जाती नहीं, शायद इसीलिए उसे जाति कहते हैं। सदियों पूर्व भारत के श्रेष्ठतम कवि कबीर कहते तू बामन बामनी जाया और द्वार से क्यों नहीं आया।

सत्यमेव जयते की बारहवीं कड़ी में आमिर खान ने पानी का मुद्दा उठाया। पृथ्वी का 75 प्रतिशत भाग जल है, परन्तु पीने का पानी मात्र तीन प्रतिशत है। भारत में जल की अधिकता के कारण कभी इसे मल्हार देश भी कहा गया है, परन्तु हमारी निर्ममता के कारण पानी का संकट सामने आ रहा है। छोटे-से प्रयासों द्वारा पानी का संग्रह किया जा सकता है। हमने अपनी कुरीतियों के कारण अपनी नदियों को लगभग समाप्त कर दिया है और अधिकांश तालाब रख-रखाव के अभाव में सूख गये हैं। धरती के भीतर पानी का स्तर गिरता जा रहा है और अधिक नीचे से पम्प द्वारा लाये गये पानी में खतरनाक रसायन होते हैं। धरती के भीतर अनेक सतहें हैं, जैसे कटोरे के भीतर कटोरे रखे हो। धरती के ऊपर हमारी क्रूरता, हमारी संवेदनहीनता और हमारा तालाब धरती की निचली सतहों के साथ छेड़छाड़ कर रहा है और आक्रोश से उबलती धरती की एक करवट ही जीवन नष्ट कर सकती है।

नदियाँ देश का जीवन होती हैं। हमने अपनी नदियों को नष्ट करने का काम बहुत बेरहमी से किया है। आज यमुना के अधिकांश भाग में जल दूषित हो चुका है। वृंदावन से दिल्ली आने वाले पानी में भयावह मिलावट हो चुकी है।

महानगर मुम्बई में पानी 100 किलोमीटर दूर शाहपुर में बनाए बाँध के कारण संचित जल से आता है और उस स्थान पर वहाँ के निवासियों को जल उपलब्ध नहीं है। हमने ग्रामीण अंचलों की उपेक्षा करके केवल महानगरों में सुविधाओं की फिक्र की है। यह प्रवृत्ति जल तक सीमित नहीं है। हर क्षेत्र में हमने महानगरों को ज्यादा महत्व दिया है और उस भारत की उपेक्षा की है, जहाँ गांधीजी ने अनुसार भारत की आत्मा रहती है।

भारत के अनेक कस्बों में शहर से टैंकर में भरकर जल लाया जाता है और यह इतना कम है कि इसके लिए लूटपाट होती है। पानी के टैंकर ने सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन किया है। पानी का टैंकर आते ही लोग शादी की रस्म या शवयात्रा को छोड़कर पानी के टैंकर की ओर भागते हैं। महानगरों में टैंकर से पानी पहुँचाया जाता है और पानी माफिया का उदय संभव है। कुछ विशेषज्ञों का ख्याल है कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए हो सकता है।

आमिर खान के सत्यमेव जयते की आखिरी कड़ी रविवार 29 जुलाई 2012 को प्रस्तुत हुई और भारतीय टेलीविजन पर सामाजिक सोद्देश्यतां के शंखनाद करने वाले कार्यक्रम का अंत हुआ। रुग्ण समाज की खुली शल्य चिकित्सा विगत तीन माह से प्रस्तुत हो रही थी और मवाद तथा खून के रिसाव से सारा देश सुन्न पड़ गया था। अनेक लोगों के लिए यह यकीन करना कठिन हो रहा था कि क्या हम इतने गिरे हुए हैं? क्या हमारी सामाजिक व्यवस्था सचमुच इतनी जर्जर है और इस सड़ांध में हमारा दम क्यों नहीं घुटता? आज हमारी खुली शल्य चिकित्सा का क्या परिणाम निकाला? मरीज की अब क्या दशा है? क्या वह शल्य चिकित्सा थी या पोस्टमार्टम था और अगर ऐसा था तो मृत्यु का क्या कारण बताया गया है? अंतिम कड़ी यह निदान प्रस्तुत करती है कि मरीज मरा नहीं है, अभी भी इस बीमार देश का दिल धड़क रहा है और कहीं-कहीं इसके सुधार के लघु प्रयास चल रहे हैं। इस घोर नैराश्य में भी सदियों के अंधविश्वास और कुरीतियों की चट्टानों पर नन्हे हाथ छोटे-छोटे प्रहार कर रहे हैं और हम कामयाब होंगे एक दिन।

इस एपिसोड के प्रारम्भ में आमिर खान ने सभागृह में मौजूद बच्चों से उनके सपनों के भारत के बारे में पूछा तो किसी ने धर्म और जाति की संकीर्णता से मुक्ति की बात की, तो किसी ने भ्रष्टाचार से मुक्त भारत की बात की, तो किसी ने क्लीन और ग्रीन भारत की बात की। भावी नागरिकों के हृदय का विश्वास एक देश की ताकत होता है। आज हमारे पूर्वजों द्वारा की गई कल्पना को हम साकार नहीं कर पाये, वर्तमान भारत गांधी या नेहरू के सपनों का देश नहीं बन पाया और न ही सरदार पटेल या मौलाना अब्दुल कलाम आजाद को देश के वर्तमान हश्र का भय था। देश की स्वतंत्रता के लिए संग्राम करने वालों की आशाओं और सपनों को बाबा साहेब अम्बेडकर की अध्यक्षता में बनी कमेटी ने संविधान के पहले पृष्ठ पर ही अंकित कर दिया था कि समानता, स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता हमारे आदर्श मूल्य हैं और न्याय आधारित समाजवादी समाज की रचना हमारा संकल्प है। अनेक कारणों से संविधान में प्रस्तुत आदर्श का निर्वाह नहीं हुआ और हमने एक सड़ांधयुक्त व्यवस्था का निर्माण कर दिया। इस दुःखद परिणाम की जवाबदारी किसी व्यक्ति या दल विशेष की नहीं होते हुए, हम सबकी है। हम सबके माथे पर दाग, हम सबकी आत्मा में झूठ, हम सब सैनिक अपराजेय हाथों में सिर्फ तलवारों की मूठ ।

आमिर खान का विश्वास है कि सपना मरा नहीं है। उन्होंने इस कार्यक्रम में देश में अनेक जगह हो रहे आदर्श प्रयासों का विवरण दिया। ये गौरवशाली कोशिशें ही इस बीमार देश के स्वस्थ होने की आशा जगाती है और हजारों वर्ष पुरानी सांस्कृतिक चेतना की मौजूदगी का एहसास जगाती है। कच्छ में 2001 में भूकम्प आया और 2002 में गुजरात में साम्प्रदायिकता का ताण्डव हुआ। सूरत की सर्वोदय ट्रस्ट ने दोनों हादसों में हुए अनायों की परवरिश का प्रयास किया। श्री अरविंद, परिमल, तृप्ति और सुशीला बहन ने अपने अनेक साथियों की सहायता से इन्सानी जख्मों पर सेवा का मरहम लगाया। इनके संस्थान में सभी धर्मों के अनाय बच्चों की परवरिश प्यार से होती है। नईम नाम बालक के हाथ से जातिवाद को मानने वाली सुशीला ने लड्डू खाये और उन्होंने मासूम नईम की मनुहार में छिपे दिव्य संकेत को समझ लिया कि मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं, कोई जाति नहीं। दर्द का रिश्ता सबसे बड़ा रिश्ता होता है।

कश्मीर की वादियों में सदियों से मंत्र और अजान साथ-साथ गूंज रहे थे, परन्तु आतंकवादियों ने फिजाओं में नफरत भर दी। अनेक पंडित परिवारों को हजारों साल की अपनी पुश्तैनी जमीन छोड़कर भागना पड़ा। कश्मीर ने एक छोटे हिस्से से भागने वाले एक हिन्दू परिवार को मुसलमानों ने रोक लिया और उनकी हिफाजत का वचन दिया। उन्होंने चुनाव में उस हिन्दू महिला को विजय दिलाई और वह मुस्लिमबहुल समाज का प्रतिनिधित्व करती है। अब्दुल हमीदी, हुसैन, कलाम इत्यादि अनेक लोग अपने से जुदा हुए अपने पंडित भाइयों की याद में रोते हैं।

आंध्रप्रदेश में प्रज्जवला नामक संस्था सुश्री सुनीता ने स्थापित की है और ये संस्था पाँच हजार कमसिनों का देह व्यापार के बाजार से निकाल कर उन्हें शिक्षित एवं स्वावलम्बी बनाने का प्रयास कर रही है। स्वयं पुरुष लम्पटता की शिकार हुई इस साहसी महिला ने इन बच्चों के लिए पहला स्कूल एक वेश्यालय के खाली किये गये कमरे में चलाया और आज सत्रह स्कूलों की श्रृंखला चला रही है। 20 लाख कमसिन मानव तस्करी का शिकार हुई हैं। सुनीता कहती है कि उन्हें इस तथाकथित समाज से डर लगता है यह माफिया से ज्यादा हिंसक है। कई बार उनके स्कूलों पर आक्रमण हुए हैं। उनका कहना है कि किसी के पास ऐसा जिगर नहीं कि इनको अपनी बहन मान ले ये तो खैर दूर की बात है, प्रतिष्ठित औद्योगिक घरानों में योग्यता के बाद भी इन लड़कियों को नौकरी नहीं दी जाती। संभ्रांत लोगों की हवस से कोठे आबाद होते हैं, परन्तु ये अपने बनाए नर्क से बाहर आई एक लड़की को नौकरी नहीं देते। उन्हें गुमां भी नहीं कि शायद, वे उनके अनजाने जन्मी अपनी बेटी से ही उसका हक छीन रहे हैं। संजीव चौधरी दिल्ली में जम चुके थे, परन्तु एक बार बिहार में बने अपने गाँव गए तो उन्होंने छुआछूत की अमानवीयता से संघर्ष के लिए अपने सुविधा सम्पन्न जीवन को नकार दिया। डोम मुर्दे ढोते हैं, परन्तु उन्हें गंगा स्नान की आज्ञा नहीं है। उन्होंने 167 एकड़ जमीन लालची पंजों से मुक्त कराकर उनके जायज हकदारों को दिलाई।

पश्चिम बंगाल में डॉ. अजोय कुमार मिस्त्री ने एक झोपड़ी में अस्पताल प्रारम्भ किया और आज एक बड़ा अस्पताल बना चुके हैं। उनके पिता गरीबी के कारण बिना इलाज के ही मर गये थे। उनकी माता ने अथक परिश्रम किया और कुछ समय उन्हें अपने पुत्र को अनाथालय में भी रखना पड़ा, परन्तु उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति और उनके पुत्र की हड्डियों ने अपने पिता सुभाषी मिस्त्री को मजा थी। उनकी पत्नी मौसमी भी इस मुहीम में अपने डॉक्टर पति के साथ है। कोल्हापुर में नरीमा ने हेल्पर ऑफ हैंडीकेप नामक संस्था का विकास किया और बाबू काका दीवान ने उनकी सहायता की। अठारह हजार विकलांगों को समान जीवन का अधिकार दिलाने में सफल हुआ यह प्रयास। मात्र नौ वर्ष की आयु में प्रतिभावान बॉबर ने पाँच बच्चों से स्कूल प्रारम्भ किया और आज आनंद शिक्षा निकेतन बड़ी संस्था हो गई। भारत में चौदह करोड़ बच्चे स्कूल नहीं जाते। विप्रो के जनक अजीरा साहब ने आठ हजार करोड़ दान देकर एक ट्रस्ट खड़ा किया है। फैजाबाद के मोहम्मद शरीफ लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार की व्यवस्था मरने वालों के धर्म के अनुरूप करते आ रहे हैं। झारखंड में ईमानदार अफसर सत्येन्द्र दुबे को गोली मार दी गई। उनकी स्मृति में उनके पिता भ्रष्ट संस्था से लड़ रहे हैं।

देश के विभिन्न क्षेत्रों में हो रहे ये गांधीवादी प्रयास आशा जगाते हैं। आमिर खान ने टेलीविजन पर प्रसारित घिनौने सीरियलों के बीच इस माध्यम की सामाजिक सोद्देश्यता को उजागर कर दिया है। सिनर्जी संस्था ने संस्थापक और अध्यक्ष सिद्धार्थ बसु ने कौन बनेगा करोड़पति की गत वर्ष प्रसारित श्रृंखला में भारत के गांवों, कस्बों और जनजातियों से लोगों को उजागर किया था और अमिताभ बच्चन ने एंकर की भूमिका का निर्वाह अत्यन्त गरिमापूर्ण ढंग से किया था।

फिल्म उद्योग में अनेक लोग हर कालखण्ड में सार्थक कार्य करते रहे हैं। सलमान खान की संस्था बिइंग ह्यूमन ने। अप्रैल 2011 से 31 मार्च 2012 तक के समय में सात करोड़ दस लाख रुपये गरीबों के इलाज एवं विद्यार्थियों की फीस पर खर्च किये। इसके पूर्व भी ये ऐसा काम करते आ रहे हैं और उन्होंने अपनी बिजनेस मैनेजर रेशमा शेट्टी से कहा है कि प्रतिमाह कुछ दिन ऐसे कार्यों के लिए आरक्षित रखें, ताकि उनमें कमाया सारा धन ट्रस्ट के माध्यम से गरीबों की सहायता में खर्च हो। उनके पिता सलीम खान साहब के मार्गदर्शन में संस्या सुचारू रूप से चलाई जाती है। ट्रस्ट ने डॉ. संदीप चौपड़ा को नियुक्त किया है कि वे हर अर्जी को देखकर विशेषज्ञ से सम्पर्क करें। सारा रुपया चेक द्वारा सीधे अस्पताल भेजा जाता है और इस कार्य के लिए बिभास उनकी सहायता करते हैं। शाहरुख खान से नानावटी अस्पताल में अपनी माता की स्मृति में एक वार्ड के लिए धन दिया है। सारांश यह है कि फिल्म उद्योग से मानवता के हित में कार्य किया जा रहा है। गांधीजी के आदर्श इस उद्योग में आज भी कायम है। मसाला मनोरंजन गढ़ते हुए भी उद्योग में गांधीजी के आदर्श को अक्षुण्ण रखने का प्रयास किया है। यह संभव है कि देश में सोच के परिवर्तन और सांस्कृतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना की क्रांति में सिनेमा उद्योग की महत्वपूर्ण भूमिका हो। शायद शंखनाद यहीं से हो।