गांधीजी, हिंदी साहित्य सम्मेलन और सिनेमा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :11 सितम्बर 2015
प्रथम विश्वयुद्ध के समाप्त होने के समय महात्मा गांधी इंदौर में हिंदी साहित्य सम्मेलन में भाग लेने आए और हिंदी साहित्य भवन का शिलान्यास किया। उन्हें उसी दिन दिल्ली से मुस्लिम नेताओं का तार मिला कि वे दिल्ली आकर उनके खिलाफत आंदोलन के सदर बनें। यह निमंत्रण हदीम अजमल खान और आसिफ अली ने भेजा था। प्रथम युद्ध में भारतीय सेना के मुस्लिम सदस्य अंग्रेज अफसरों से नाराज थे, जो उन्हें मक्का-मदीना के खलीफा पर चढ़ाई का हुक्म दे रहे थे। उस समय अफसरों ने वादा किया था कि युद्ध के बाद उस इलाके से हट जाएंगे परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया और उसी समय भारत में अंग्रेज अफसरों के आदेश पर पूरे देश में प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की सफलता पर जश्न शुरू हो गया। अंग्रेज जानते थे कि भारत की उत्सव प्रिय जनता उत्सव के कारणों की गहराई की जांच-पड़ताल किए बिना ही बड़े आनंद से तमाशबीन बन जाती हैं। आज के हुक्मरान भी सारा वर्ष उत्सव में तमाशबीन जनता का मन बहलाए रखते हैं।
गांधीजी ने स्वयं माना कि खिलाफत आंदोलन के विचार को ही उन्होंने विराट आकार देकर असहयोग आंदोलन का आकल्पन किया। इस आंदोलन में सभी धर्मों के लोग साथ थे। आंदोलन में भाग लेने के लिए देवकी बोस ने अंतिम वर्ष की परीक्षा नहीं दी और अफसरी के अपने कॅरिअर को प्रारंभ होने के पूर्व ही समाप्त कर दिया। उनकी मुलाकात धीरेंद्र गांगुली से हुई और दोनों ने हैदराबाद जाकर फिल्में बनाईं। हैदराबाद के निजाम ने इन दोनों बंगालियों को फिल्म बनाने की सुविधाएं दीं। कुछ वर्ष बाद देवकी बोस कोलकाता लौटें और उन्होंने "चंडीदास' बनाई, जो एक ब्राह्मण और कपड़े धोने का काम करने वाली युवती की प्रेम-कथा थी। जातिवाद से मुक्ति भी गांधीजी के आंदोलन का महत्वपूर्ण हिस्सा था। इस फिल्म का एक दृश्य कविता की तरह था, जिसमें नदी के जल में चंडीदास और उस युवती की छवियां, लहर के कारण पास आ रही हैं और एक बच्चे द्वारा जल में पत्थर पड़ते ही छवियां गड्डमड्ड हो जाती हैं। इस पत्थर को किसी के बहकाने के कारण मासूम बालक ने फेंका था। वर्षों बाद किसी अन्य संदर्भ में श्याम बेनेगल की 'अंकुर' में एक मासूम बच्चा जमींदार की कोठी पर पत्थर फेंकता है। बाद में बोस ने काजी नजरूल इस्लाम के नाटक से प्रेरित 'विद्यापति' बनाई। इस तरह भारतीय सिनेमा को पहला कवि बोस के रूप में सिनेमा को गांधीजी के अप्रत्यक्ष सहयोग से प्राप्त हुआ।
हिंदुस्तानी सिनेमा के कारण देश-विदेश में अनेक लोगों ने हिंदी सीखी। यूरोप और चीन के युवाओं द्वारा 'आवारा हूं' गाने के टेप मैंने देखे हैं। एक बार हैदराबाद में आयोजित फिल्म समारोह में होटल के बाहर हिंदी न जानने का दावा करने वाले रिक्शाचालक को फिल्म का फोटो दिखाया। कुछ दूर जाने पर मुझे लगा कि लंबे रास्ते से ले जा रहा है, अत: मैंने हिंदी में अपशब्द बुदबुदाए तो उसने रिक्शा रोक कहा, 'साहब मुझे गाली मत देना।' उसने बताया कि हिंदी फिल्म संगीत के प्रेम में उसने हिंदी सीखी और अपनी तेलुगु अस्मिता के मिथ्या गर्व के कारण वह हिंदी न जानने का नाटक करता है। द्वारकानाथ सम्पत ने गांधीजी के प्रभाव में 'महात्मा विधुर' बनाई, जिसमें महाभारत के पात्र विदुर को गांधीजी की वेशभूषा और अदा में प्रस्तुत किया गया। गांधीजी के प्रभाव में आए कुछ फिल्मकार पत्रकारिता से भी जुड़े रहे, मसलन देवकी बोस 'शक्ति' पत्रिका का संपादन करते थे और तिलक की पत्रिका 'केसरी' के सहसंपादक भालजी पेंढारकर ने हिंदू-मुस्लिम एकता पर 1925 में 'बाजीराव मस्तानी' बनाई और इसी कथा विचार को अब संजय लीला भंसाली बना रहे हैं। भालजी पेंढारकर ने शिक्षा में आदर्श नैतिक मूल्य स्थापना के उद्देश्य से 'वंदेमातरम आश्रम' बनाई, जिसके प्रथम दृश्य में परदे पर गांधीजी का वाक्य आता था, 'जब तक इस देश की शिक्षा संस्थाएं पाठ्यक्रम में परिवर्तन करके उसे देश की जरूरतों के अनुसार नहीं ढालेंगी, तब तक ये संस्थाएं मृत देह के समान निष्प्राण रहेंगी।' इसी विचार से प्रेरित राजकुमार हीरानी की 'थ्री इडियट्स' थी। हिंदी साहित्य सम्मेलन का प्रारंभ भी गांधीजी ने इंदौर में 1918 में किया। आज यह लिखने का कारण यह है कि इसी नाम से भोपाल में एक तमाशा जारी है जिसमें ज्ञानरंजन, कुमार अंबुज, पवन किर, सरोज कुमार जैसे साहित्यकार अनिमंत्रित हैं।