गांधीजी की अपरिभाषेय लोकप्रियता / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 02 अक्टूबर 2014
जैसे बच्चे छुट्टियों के लिए मचलते हैं, वैसे ही आज फिल्मकार पटकथा पढ़ने के पहले कैलेंडर में देखता है कि किस सप्ताह में अतिरिक्त छुट्टी है आैर अगले वर्ष के 31 दिसंबर तक फिल्म प्रदर्शन की तिथियां घोषित कर दी गई है। अभी शूटिंग एक भी दिन नहीं की है परंतु प्रदर्शन की तारीख तय है। सिनेमा व्यवसाय अब छुट्टी आधारित हो चुका है क्योंकि दर्शक के पास मनोरंजन के लिए अनेक विकल्प हैं। अब बढ़ी हुई टिकिट दरों के कारण दर्शक को सिनेमाघर लाना आसान नहीं है। पहले मतदान केंद्र तक मतदाता को लाना कठिन था। अब मतदाताआें में जोश है आैर जोश का कारण गणतंत्र को सशक्त बनाना नहीं वरन् समुदाय को शक्तिशाली करना है। दर्शक भी विशुद्ध सिनेमा कला के लिए नहीं वरन् सितारे के लिए आता है आैर यह सितारा कहानी भी हो सकती है, शरीर प्रदर्शन भी हो सकता है या कोई सनसनी भी हो सकती है। उसके उलझे अवचेतन का कोई सिरा प्रोमो में उसे नजर आया हो- यह भी हो सकता है। जाने कितनी अदृश्य डोर हैं जो दर्शक को सिनेमाघर आैर मतदाता को केंद्र तक खींचता ही है आैर दोनों ही क्षेत्रों में मनोरंजन का महत्व स्थापित होता है। नेता भी विविध मनोरंजन की शाम का आयोजन करता है आैर उसके तमाशे के आयोजक अपनी मंडली के साथ में मौजूद होते हैं। किसी कक्ष में गंभीर बात का प्रहसन हो रहा है तो भवन के सामने की सड़क पर नृत्य चल रहा है। जीवन के सारे कार्यकलाप एक ऑर्केस्ट्रा की तरह नियोजित है आैर अदृश्य संगीतकार के हाथ में बेटन नहीं कोड़ा है। ज्ञातव्य है कि संगीत कंडक्टर के हाथ की घड़ी को बेटन कहते हैं।
हमारे सितारों ने भी धार्मिक उत्सवों पर फिल्म प्रदर्शन को आपस में बांट लिया है, किसी की ईद तो किसी की दीवाली आैर कोई क्रिसमस थामे बैठा है। सिनेमा के प्रारांभिक दशक में सेठ चंदूलाल को एक प्रदर्शक ईद के मौके पर मुस्लिम सोशल फिल्म बनाने के लिए अग्रिम राशि दे गया परंतु चंदूलाल शाह ने 'गुण-सुंदरी' बना दी क्योंकि वही उनको आता था। बेचारा प्रदर्शक मुकदमे की धमकी देकर 'गुण सुंदरी' ही ले गया आैर ईद के अवसर पर वह खूब सफल रही क्योंकि दर्शक धर्मनिरपेक्ष था। उसे मात्र मनोरंजन चाहिए था। आज मनोरंजन को किस पैकेजिंग में प्रस्तुत किया है- यह महत्वपूर्ण हो गया है।
इस बार गांधी जयंती पर 'बैंग बैंग' आैर 'हैदर' लग रही है। दोनों अच्छी-बुरी कुछ भी हो सकती हैं परंतु यह तय है कि वे गांधीवाद से दूर हंै। अब फिल्मों के गांधीमय होने की जिद क्यों करें, उनके आदर्श तो उनके जीवन-काल में ही ध्वंस हो गए थे परंतु गांधी आज भी वोट की राजनीति में कुछ हैसियत तो रखते हैं जिस कारण एक दूसरे के परस्पर विरोधियों में भी गांधी को दिखावे का नमन करने की होड़ लगी रहती है। हिंसक अमेरिका में वे पूजे जाते हैं तो कम्युनिज्म के परचम के नीचे पूंजीवादी सपने देखने वाले चीन का युवा वर्ग भी गांधी को सम्मान देता है। वे एक विलक्षण व्यक्तित्व थे जिनके आशीर्वाद के लिए साधु आैर शैतान दाेनों ही आज भी बेकरार हैं। लोकप्रियता का यह रसायन कुछ अपरिभाषेय है। उन्हें नंगा फकीर कहने वाला चर्चिल युद्ध का नायक होते हुए भी चुनाव हार गया। चैपलिन से चर्चिल तक उनको नमन करते है। गांधीजी की लोकप्रियता के वैज्ञानिक शोध के प्रयास होना चाहिए। वह एक अजूबा ही रहा आैर आज भी उनके कारण मनुष्य का विश्वास मिरेकल में है जबकि गांधीजी कोई चमत्कार नहीं चाहते थे। वे मनुष्य के श्रम से देशी साधनों के साथ स्वदेशी विकास चाहते थे। बहरहाल आज के असहिष्णु आक्रामक काल खंड में भी उनका महत्व है आैर भयावह भविष्य तो उनकी वापसी का पथ प्रशस्त करेगा।