गांधीमय फिल्मकार को आदरांजलि / जयप्रकाश चौकसे

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गांधीमय फिल्मकार को आदरांजलि
प्रकाशन तिथि : 27 अगस्त 2014


दिल्ली के राजघाट पर बनी गांधीजी की समाधि को साफ करने वाले कर्मचारी ने महसूस किया होगा कि वह गीली है जबकि कल रात बारिश नहीं हुई थी। संभवत: गांधीजी ने सर रिचर्ड एटनबरो की मृत्यु पर आंसू बहाए हों। उनकी बनाई फिल्म 'गांधी', जो 1982 में प्रदर्शित हुई थी, गांधीवादी भावना से आेत-प्रोत फिल्म थी आैर अनेक देशों की नई पीढ़ियों ने इस फिल्म के माध्यम से गांधी आैर उनके आदर्श को जाना। फिल्म के प्रदर्शन के बाद गांधी साहित्य पहले से अधिक बिकने लगा आैर कमोबेश यही उस समय भी हुआ जब राजकुमार हीरानी की 'लगे रहो मुन्ना भाई' के बाद युवा वर्ग ने 'गांधीगिरी' की। अपने जीवन काल में गांधीजी को यह कल्पना भी नहीं होगी कि सिनेमा माध्यम से गांधीवाद को इतनी लोकप्रियता पश्चिम के देशों में मिलेगी। अमेरिका में पहले सप्ताह में न्यूयॉर्क में फिल्म केवल चार सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई आैर दर्शकों द्वारा अभूतपूर्व स्वागत के बाद 48 सिनेमाघरों में लगाई गई आैर प्रदर्शन केंद्र बढ़ते गए तथा आठ ऑस्कर प्राप्त करने के बाद व्यापक प्रदर्शन की एक आैर लहर आई। गांधीजी ने जीवन में कोई फिल्म नहीं देखी थी आैर उनके निकट सहयोगी चक्रवर्ती राज गोपालचारी सिनेमा को 'पाप का संसार' मानते थे तथा मोरारजी देसाई ने मुंबई के हाईकोर्ट में अर्जी दाखिल की थी कि सर रिचर्ड एटनबरो को फिल्म बनाने से रोेका जाए।

कुछ फिल्मकारों ने तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिखा था कि सर रिचर्ड एटनबरो की योग्यता में उन्हें संदेह नहीं हैं परंतु इस फिल्म में नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन धन नहीं लगाए तथा फिल्म निर्माण में सरकारी सहायता नहीं दी जाए क्योंकि इंदिरा गांधी ने चितरंजन रेलवे फैक्टरी को आदेश दिया था कि एटनबरो को उस दौर की ट्रेन शूटिंग के लिए उपलब्ध कराई जाए। दरअसल इंदिरा गांधी की मौजूदगी में ही सन् 1960-61 नेहरू ने अपने लिखित सुझावों के साथ रिचर्ड एटनबरो को उनकी पटकथा लौटाई थी आैर पुन: लेखन का अनुरोध किया था। इसीलिए इंदिरा गांधी ने फिल्म निर्माण में सहयोग किया था। ज्ञातव्य है कि रिचर्ड एटनबरो ने यह करारनामा किया था कि फिल्म का लाभांश भारतीय बुजुर्ग कलाकारों की सहायता में खर्च किया जाए आैर लगभग 80 लाख रुपए इस मद में मिले थे।

यह गांधीवादी पहल थी। सर रिचर्ड एटनबरो ने लगभग बीस वर्ष तक अपनी इस फिल्म के सपने को संजोए रखा आैर इसकी पटकथा पर काम करते रहें। सरकारी आज्ञा आैर सहयोग मिलने के बाद उन्होंने योजनाबद्ध ढंग से निर्माण पूर्व की बारीकियों पर काम किया आैर उसी योजना को कार्य में ढाला। गोविंद निहलानी दूसरे यूनिट के कैमरामैन आैर निर्देशक थे। आज उन्होंने बताया कि एटनबरो ने फिल्म यूनिट में एक परिवार की भावना भरी आैर सारे तकनीशियन तथा कलाकारों ने भाईचारे आैर सहयोग की भावना से काम किया जिसका अर्थ यह है कि फिल्म गांधी की यूनिट पूरी तरह से गांधीमय होकर काम कर रही थी आैर पारिवारिकता की इस भावना ने ही उन्हें साहस आैर ऊर्जा दी। यूनिट के हर सदस्य ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वालों की भावना से फिल्म रची। इतना ही नहीं जब फिल्म में गांधी की शवयात्रा के दृश्य फिल्माने के विज्ञापन देकर आम लोगों से सवैतनिक रूप से भाग लेने का निवेदन किया तो अनगिनत लोगों ने भाग लिया परंतु अपना मेहनताना लेने केवल चंद लोग ही वेतन विभाग आए गोयाकि अवाम ने भी सच्ची श्रद्धा से फिल्मांकन में सहयोग किया। यथार्थ की शवयात्रा के लगभग तैंतीस वर्ष बाद शूटिंग की शवयात्रा में भाग लेने वालों के दिल में वही शोक जागा जो यथार्थ शवयात्रा के समय था गोयाकि उस दर्द का विरेचन हुआ इस फिल्मी शवयात्रा में। यह विरल अनुभव भारत में ही संभव है जहां के लोग जानते हैं कि वर्तमान के हर क्षण में भूतकाल आैर भविष्य के कण शामिल होते हैं। अनेक विरोधों के बीच इस महान फिल्म का निर्माण भी अपने आप में एक कथा है। गोविंद निहलानी को उसी समय 'तमस' पढ़ने को मिली आैर उन्होंने इसके फिल्मांकन की बात एटनबरो से की तो उन्होंने नि:शुल्क इसमें काम करने का वादा किया तथा सहयोग का भी वादा किया।

कुछ वर्ष पूर्व सर रिचर्ड एटनबरो की बेटी आैर पौत्री सुनामी में मारे गए तथा इस त्रासदी के बाद उनकी पत्नी शोक में डूब गई आैर उनकी स्मृति जाती रही। तब सर रिचर्ड एटनबरो ने अपना बंगला बेचा आैर पत्नी सहित एक ऐसे आश्रम में दाखिल हुए जहां उम्रदराज लोगों का पूरा ख्याल रखा जाता है आैर इसी केयरहोम में पहे उनकी पत्नी का देहांत हुआ आैर विगत रविवार की रात उनकी मृत्यु हुई। अपने अंतिम क्षणों में सर रिचर्ड एटनबरो ने गांधी आैर उनकी पत्नी कस्तूरबा की रूहानी मौजूदगी को महसूस किया होगा। यह कितने आश्चर्य की बात है कि हुकूमते बरतानियां के साम्राज्यवाद का अंत जिस गांधी ने किया, उनका विश्वसनीय बायोपिक भी एक अंग्रेज ने ही बनाया क्योंकि गांधीवाद का यह सार है कि कहीं कोई शत्रु नहीं है, हमारी सारी लड़ाई हमारे अपने भीतर छुपी बुराइयों से है आैर हम एक सतत लड़े जा रहे कुरुक्षेत्र के निहत्थे योद्धा हैं। शत्रुता नामक टुच्चापन वर्तमान की समस्या है। हम सांस्कृतिक युद्ध हार रहे हैं क्योंकि हमने ही विराट शत्रु रचा है। गांधीजी के शब्दकोष में 'शत्रुता' शब्द ही नहीं था आैर वर्तमान के शब्दकोष में केवल यही शब्द है।