गांधी और जयप्रकाश/ भारत यायावर
गांधी की अंतिम इच्छा थी कि कांग्रेस सत्ता में हिस्सा न लेकर एक जनसेवी संगठन के रूप में काम करे। किंतु हुआ यह कि कांग्रेस सिर्फ सत्ताधारी पार्टी होकर रह गई। नेहरू ने राजसी वैभव की, ऐश्वर्य की, सरकारी तामझाम की सत्ताधारी वर्ग के लिए ऐसी परंपरा विकसित की, जो अब तक चली आ रही है - जनसेवा तो दूर की बात, जनता में समानता, बंधुत्व और स्वाधीनता के भाव भर कर जनतंत्र की जड़ें मजबूत करने की जगह भाई-भतीजावाद, परिवारवाद, भ्रष्टाचार, विदेशी कर्ज, सांप्रदायिकता, सत्ता की निरंकुशता को ज्यादा प्रश्रय दिया। जनता तबाह होती गई। बद से बदतर स्थिति में पहुँचती गई। साथ ही गांधी, जिन्होंने स्वाधीनता संघर्ष के दौरान भारत के जन-जन को जागृत किया था, उनकी एक झूठी तस्वीर प्रदर्शित की गई - जो 'क्रांति विरोधी थी, परिवर्तन और आधुनिकता विरोधी थी। गांधी का मतलब सिर्फ शांति, अहिंसा, सर्वोदय के प्रतीक के रूप में रह गया - जो एक पिछड़े हुए दर्शन और राजनीति का द्योतक था। इस तरह गांधी को विकृत किया गया।
गांधी का मतलब है - लगातार जन संघर्ष चलाना, अपने अधिकारों एवं सामाजिक, आर्थिक स्वाधीनता के लिए लड़ना। गांधी का मतलब है - अन्याय, अत्याचार और तानाशाही का प्रतिरोध। गांधी का मतलब है - अपने-आप को बदलना, साम्राज्यवादी तमाम संपर्कों को तोड़कर स्वावलंबी बनना। गांधी का मतलब है - कायरता की जगह निर्भीकता, रूढ़िवादिता की जगह परिवर्तन, सांप्रदायिक द्वेष की जगह प्रेम और वर्णवाद की जगह समरसता। गांधी का मतलब है - सादगी, सच्चाई, प्रेम और मानवता। गांधी होने के इस निहितार्थ को - नेहरू और उनके बाद के गांधी-परिवार ने नहीं, अपितु जयप्रकाश नारायण और लोहिया ने सही मायनों में चरितार्थ किया। यही कारण है कि आजादी के बाद चौहत्तर के आंदोलन में पुनः गांधी को राजनीति की मुख्यधारा में स्थापित किया गया और उसके अंतिम प्रयोगकर्ता हुए जयप्रकाश नारायण।
जयप्रकाश ने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा था - 'भारत को स्वतंत्र कैसे किया जाए - यह तलाश मुझे कई मतवादों एवं राजनीतिक दलों में ले गई, जब तक मैं इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा कि इसका उत्तर गांधीजी के पास है, गांधी के विचारों का बुद्धिहीन उपयोग नहीं, बल्कि उसका गतिशील एवं क्रांतिकारी रूपांतर।'
जयप्रकाश गांधी से शक्ति और विचार लेकर आजादी के बाद सबसे पहले विनोबा के नेतृत्व में चलने वाले सर्वोदय आंदोलन में शामिल हुए। इसके तहत वह बिहार के अधिकांश गाँवों का दौरा कर ग्रामदान का अलख जगाते रहे। 'दिनमान' के 17 सितंबर, 1965 के अंक में फणीश्वरनाथ रेणु ने 'ग्रामदान का तूफान' शीर्षक से एक रपट लिखी थी, जिससे एक उद्धरण - 'सुरक्षा के किले गाँव-गाँव में बनाने के लिए और अजेय लोकतंत्र की जड़ें गाँव-गाँव में मजबूती से जमाने के लिए श्री जयप्रकाश नारायण ने पिछले चंद महीनों में बिहार के कोने-कोने में जाकर यह समझाने का प्रयास किया है कि बापू के नमक-सत्याग्रह आदि छोटे दीखने वाले कार्यक्रमों में जो महान शक्ति अव्यक्त रूप से रहती थी, वही शक्ति विनोबाजी के आंदोलन में निहित है। यह जनशक्ति जगाने का, लोकतंत्र को मजबूत बनाने का और गरीबी, भ्रष्टाचार, बेकारी को मिटाने का कार्यक्रम है।'
1966 ई. में मध्य बिहार में भीषण अकाल पड़ा था। उस अकाल पर रेणु लिखित 'भूमि दर्शन की भूमिका' एक दस्तावेज की तरह है। तब जयप्रकाश एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जो अकाल पीड़ित गाँवों का दौरा कर रहे थे। उन्होंने पहली जनवरी, 1967 को गांधी मैदान में एक सभा की। इसकी रपट रेणु ने 'दिनमान' के 10 फरवरी 1967 अंक में लिखी है - 'सूखा और अकाल की भयावहता पर प्रकाश डालते हुए एक बार फिर उन्हें सफाई देने की जरूरत पड़ी। कह रहे थे - इधर हजारों-हजार गाँवों में लोग दाना-पानी के बिना मर रहे है और अपने को जनता के सेवक कहने वाले 'चुनाव के दंगल' में फँसे हैं।' रेणु ने लिखा है - 'यह सभा पटना के नागरिकों को महात्मा गांधी की प्रार्थना-सभा की याद दिला रही थी।' सांप्रदायिक दंगे की आग में जलते-झुलसते बिहारवासियों के दिलों पर 'बापू' इसी तरह चंदन लेपते थे, इसी तरह मैदान के एक कोने में जनता के आमने-सामने बैठकर 'बातचीत' करते थे। जयप्रकाश जी की इस सभा में 'जिंदाबाद-मुर्दाबाद' या 'तोड़ दो-फोड़ दो-छोड़ दो' का कोई नारा नहीं लगाया जा रहा था न कहीं किसी का 'जय-जयकार'। लगा, एक 'अभिभावक' परिवार के सदस्यों को बैठाकर दुर्दिन से उबरने की बात पर सोच-विचार कर रहा है।' ऐसा था जयप्रकाश का व्यक्तित्व ठीक गांधी की तरह !
जयप्रकाश गांधी की तरह ही देश की असली समस्याओं से गहराई से जुड़े थे। उन्होंने भी गांधी की तरह यह महसूस किया था कि भारत की साधारण जनता की मुख्य समस्या है - भूख, गरीबी और सामाजिक असमानता, भूमि और संपत्ति का असमान वितरण। उन्होंने इसे दूर करने के लिए जीवन भर संघर्ष किया। फिर भी सत्ता की निरंकुशता का बढ़ता जाना, महँगाई, भ्रष्टाचार का बोलबाला। और इनके विरुद्ध फैलते हुए गुस्से ने एक उबाल के रूप में छात्र-संघर्ष का रूप लिया और 18 से 21 मार्च, 1974 तक छात्रों के इस आंदोलन ने इतना उग्र रूप लिया कि इसकी गूँज पूरे विश्व में सुनाई पड़ी। इस आंदोलन को कुचलने के लिए सत्ता ने तानाशाही प्रवृत्ति का परिचय देते हुए जगह-जगह गोलियाँ चलाई, जिससे कई छात्र मारे गए और हजारों छात्र गिरफ्तार कर जेलों में डाल दिए गए। 22 मार्च को आंदोलन की तीव्रता से घबराकर पुलिस को यह आदेश दिया गया - देखते ही गोली मार दो।
1942 की तरह 1974 में बिहार में नवजागृति आई थी और तत्कालीन सरकार ब्रिटिश हुकूमत की तरह दमन करने पर उतारू हो गई थी। उस समय के एक प्रसिद्ध समाचार-पत्र 'चौरंगी वार्ता' जो कलकत्ते से प्रकाशित होता था, उसके 8 अप्रैल, 1974 के अंक में बिहार आंदोलन पर जो रपट छपी थी, उसकी पंक्तियाँ देखें - 'सरकार ने अब पूरी तरह मान लिया है कि उसको जनता का समर्थन प्राप्त नहीं है और वह लुटेरों, भ्रष्टाचारियों और मानव-विद्वेषियों की सरकार है। इस एहसास के कारण वह हर आंदोलन को अपनी पाशविक शक्ति और झूठ के सिवाय किसी अन्य तरीके से निपटने की बात सोच ही नहीं सकती। ...बिहार में आज मार्शल लॉ लागू है। रेलों में यात्री नहीं होते, फौजी होते हैं। सड़कों पर पुलिस और फौज के जवान मशीनगनें लिए गश्त लगाते रहते हैं। छोटे-छोटे कस्बों में 21 घंटों का कर्फ्यू लगा है। रात को दो बजे-तीन बजे जिस किसी को उठाकर गिरफ्तार किया जा रहा है। ...जेलों में इतनी भीड़ बढ़ गई है कि वहाँ महामारी फैलने की आशंका है। ...आंदोलन को कुचलने के लिए पाशविक बल के साथ अंगरेज के जमाने की तमाम चालें चली जा रही है।' इस आंदोलन का नेतृत्व 5 जून, 1974 को छात्रों के आग्रह पर जयप्रकाश ने सँभाल लिया। इस दिन पटना की सड़कों पर जयप्रकाश के नेतृत्व में एक महान जुलूस निकला और गांधी मैदान में जो सभा हुई, उसमें लाख से ऊपर नवजवानों ने भाग लिया। यहाँ आकर जयप्रकाश का वही तेजस्वी रूप प्रकट हुआ, जो 1942 के आंदोलन में था। पर जयप्रकाश 42 के जवान नहीं थे, बूढ़े और कमजोर थे। फिर भी 4 नवंबर को उन पर लाठियों का प्रहार करवाया गया। उनका आंदोलन गांधी की तरह अहिंसात्मक था। अंग्रेजी सरकार ने भी कभी गांधी पर लाठी नहीं चलवाई थी, किंतु इंदिरा गांधी की तानाशाही ने जयप्रकाश पर लाठियाँ चलवाई। उसी दिन रेणु के सिर पर भी लाठियों का प्रहार किया गया। बाबा नागार्जुन ने तब कविता लिखी थी -
जयप्रकाश पर पड़ी लाठियाँ लोकतंत्र की, एक और गांधी की हत्या होगी अब क्या?
जयप्रकाश ने आंदोलन की मुख्यतः चार माँगें रखी थीं - भ्रष्टाचार, महँगाई और बेरोजगारी का निवारण हो और कुशिक्षा में परिवर्तन हो। उनका मानना था - 'समाज में आमूल परिवर्तन हुए बिना क्या भ्रष्टाचार मिट जाएगा या कम हो जाएगा? महँगाई, बेरोजगारी मिट जाएगी या कम हो जाएगी? शिक्षा में बुनियादी परिवर्तन हो जाएगा? यह संभव नहीं है, जब तक कि सारे समाज में एक आमूल परिवर्तन न हो।' और इसका उन्होंने नाम दिया संपूर्ण क्रांति, जिसके अंतर्गत उन्होंने सात क्रांतियों को रखा - सामाजिक क्रांति, आर्थिक क्रांति, राजनीतिक क्रांति, सांस्कृतिक क्रांति, वैचारिक या बौद्धिक क्रांति, शैक्षणिक क्रांति एवं आध्यात्मिक क्रांति। संपूर्ण क्रांति के लिए आह्वान करते हुए उन्होंने कहा था - 'यह संघर्ष केवल सीमित उद्देश्यों के लिए नहीं हो रहा है। इसके उद्देश्य तो बहुत दूरगामी है : भारतीय लोकतंत्र को वास्तविक तथा सुदृढ़ बनाना, जनता का सच्चा राज्य कायम करना, समाज से अन्याय, शोषण आदि का अंत करना, एक नैतिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक क्रांति करना। नया बिहार बनाना और अंततोगत्वा नया भारत बनाना है।'
जयप्रकाश ने जिन मूल्यों एवं उद्देश्य के लिए संघर्ष किया था, वे तो पूरे नहीं हुए - ठीक उसी तरह जैसे गांधी सिर्फ इतिहास की चीज होकर रह गए। किंतु जनतंत्र के सामने कभी सिर नहीं झुकाने वाला, कभी कुर्सी और पद की चाहत नहीं रखने वाला गांधी और जयप्रकाश जैसा व्यक्तित्व सदियों तक याद रखा जाएगा।