गांधी के घर का रास्ता / देव प्रकाश चौधरी
नोएडा स्थित अपने विशाल स्टूडिओ में राम वी. सुतार जैसे ही एक ओर अपना आसन ग्रहण करते हैं, वे जद्दोजहद का प्रतीक दिखाई देते हैं। कला के कई वादों से कई दशकों तक उनकी लड़ाई लगभग एकाकी ही रही, लेकिन 93 वर्ष का यह मूर्तिशिल्पकार आकार की दुनिया में अपनी विशालतम मौजूदगी को बनाए रखने के लिए आज भी कटिबद्ध दिखता है। कभी गांधी के जरिए तो कभी आंबेड़कर के साथ। कभी सरदार पटेल के माध्यम से तो कभी दीन दयाल उपाध्याय के साथ। ढेर सारे महापुरूष, ढेर सारे पौराणिक पात्र, अनगिनत इतिहास पुरुष और दर्जनों विज्ञान पुरूष...लेकिन आकारों को रचने, ढालने और उन्हें स्थापित करने की इस यात्रा को, इतिहास के जिस नायक ने विश्वयात्रा बनाने में सबसे ज़्यादा मदद की, वह गांधी ही थे और आज भी हैं। हंसते हुए कहते हैं, "आज भी गांधी मेरे लिए एक सपने की तरह हैं।"
उनसे मिलना लगभग एक सदी से मिलने जैसा है। 1925 में महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव गोंडूर में पैदा हुए राम वी. सुतार ने स्कूल के दिनों में ही पहली बार जिस गांधी को बनाया था, वह हंसते हुए गांधी थे। पुरानी बात जब खुलती है तो उनके चेहरे पर एक आत्मविश्वास उतर आता है—"मेरे पास गांधी की एक तस्वीर थी। उसमें वे हंस रहे थे। मेरे एक टीचर को गांधी का बस्ट चाहिए था। मैंने बनाया। फिर उस बस्ट की एक और कॉपी भी बनाई। उस समय मुझे 300 रुपए मिले थे।" स्कूल के बाद जब वे मुंबई के 'जे.जे.स्कूल ऑफ आर्ट' में मूर्तिशिल्प के छात्र हुए तो उनकी कला की दुनिया बड़ी होती गई। उनकी कला का आकार भी बड़ा होता गया। कुछ छोटे-बड़े काम और एलोरा में पुरातत्व विभाग की नौकरी के बाद लगभग 1959 में सुतारजी दिल्ली आए तो गांधी को देखने, समझने और महसूस करने के कई दरवाजे खुले-"दुनिया के किसी भी हिस्से में सत्य और अहिंसा का ज़िक्र महात्मा गांधी को याद किए बिना पूरा नहीं होता। मुझे गांधीजी के अहिंसा मंत्र ने बहुत प्रभावित किया। गांधी जी के दर्शन में हर समस्या का आसान उपाय है। वह बेहद प्रेक्टिकल हैं। उनके दर्शन की जो भाषा है, उसे समझना आसान है।"
लेकिन क्या गांधी के दर्शन और राम वी. सुतार के मूर्तिशिल्प की भाषा में कोई साम्य है? गांधी को बनाना क्या आसान है? गांधी को आकारों में ढालते वक़्त दिमाग़ में क्या चलता रहता है? सवाल कई थे। "सच कहूँ तो गांधी को आकारों में ढालना एक तपस्या है मेरे लिए। जब भी मैंने उनके रूप को बनाया, उनकी कही बातें मेरे दिमाग़ में चलती रही। जब भी बनाया, निष्ठा और आस्था से बनाया। उनके जीवन में आपकी आस्था न हो तो आप गांधी बना ही नहीं सकते। बिना आस्था के आपकी कला में जीवंतता नहीं आ सकती। अब मूर्तिशिल्प की भाषा और उनके दर्शन में क्या साम्य है, यह देखना आपका काम है। दर्शकों का काम है," कहते हुए सुतारजी मुझे एक गांधी की प्रतिमा के पास लेकर चलते हैं।
लेकिन क्या हम या आप ऐसा देखते हैं? शायद नहीं, क्योंकि चीजों को देखने की हमारी आदतें लगातार बदलती जा रही हैं। जब हम किसी चीज को देखते हैं तो पिछले देखे हुए या पढ़े हुए को भी याद करते हैं। ऐसे में राम वी. सुतार के गांधी शिल्प को देखने का एक सीधा-सा मतलब है कि हमारे जेहन में महात्मा गांधी से जुड़ी बातें हों, तो ही हम फ़ैसला करने की स्थिति में हो सकते हैं कि मूर्तिशिल्प की भाषा और गांधी दर्शन में क्या साम्य है? लेकिन अब कितने लोग गांधी को पढ़ते हैं और कितने लोगों को गांधी की ज़रूरत है?
ऐसी बातों पर वे मुस्कुराते हैं, "गांधी हम सब की ज़रूरत हैं। उनके यहाँ लगाव और अलगाव का एक बेहतर मिश्रण है। पिछले कई दशकों में हमारे संघर्ष, सामाजिक चेतना, विद्रोहशीलता, शांति पर जोर, मानवता आदि की जो दुनियाभर में पहचान बनी है, उसके पीछे बहुत बड़ा हाथ-हाथ गांधी के विचारों का है। हमें सांस्कृति रूप से साक्षर बनाने में भी उनके दर्शन का बड़ा योगदान है। उनके जाने के बाद जो जगह खाली है, वह सचमुच खाली है। उसे भरने के लिए कोई क्यू में भी नहीं खड़ा है। वह जगह एक तरह से हमेशा खाली रहेगी।"
लेकिन उस खाली जगह के लिए सड़कों, पार्कों या फिर राष्ट्रीय संस्थानों के परिसरों में उनकी प्रतिमा ही क्यों? अगर हमारे दिल में गांधी नहीं हों, तो बाहर बनी उनकी प्रतिमा हमारी कितनी मदद कर सकती है। "बिल्कुल मदद कर सकती है," सुतार मेरे इस सवाल का जवाब बच्चों की तरह देते हैं-"अगर कोई बच्चा सड़क पर जा रहा है और वहीं किसी चौराहे पर गांधी जी की कोई प्रतिमा लगी हुई है तो वह अपनी मम्मी या पापा या बड़े भाई से पूछेगा कि वह क्या है। किसकी मूर्ती है, क्यों है। जवाब में वह गांधीजी का नाम सुनेगा। उसे जिज्ञासा होगी। बचपन की बात दिल के कोने में बैठी रहती है। बड़ा होगा तो ख़ुद गांधी के बारे में जानने-समझने की कोशिश करेगा। किसी प्रतिमा के माध्यम से हम, जिनकी प्रतिमा है, उनके विचारों को लोगों तक पहुँचाते हैं उनकी प्रासंगिकता को रेखांकित करते हैं।"
लेकिन ये प्रासंगिकता है क्या? ध्यान से देखने पर प्रासंगिकता शब्द में समय की गंध मिलती है। कोई भी कलाकृति, शिल्प, दर्शन और विचार की प्रासंगिकता इस बात पर निर्भर करती है कि आज का जो वक़्त है, आज जो हम हैं, उसे वह कितना प्रभावित कर सकती है। सच है कि गांधी की प्रासंगिकता को लेकर हम लगातार बहस करते रहते हैं। गांधीजी ने कहा था-"खुद पर विश्वास करें और इससे आप विश्व को हिला सकते हैं। मनुष्य अक्सर वही बनता है, जिस पर उसे विश्वास होता है। अगर आपको पहले ही यह विश्वास हो जाए कि मैं यह काम नहीं कर पाऊंगा तो इससे आपका आत्मविश्वास कम हो जाएगा, लेकिन जैसे आपको विश्वास होगा कि आप यह काम कर लेंगे तो आप उस काम में सफल हो जाएंगे।"
सपलता के इस मूलमंत्र को अपनाने वाले युवाओं की दुनिया भर में कमी नहीं। पिछले 100 साल में कम ही लोग ऐसे हैं जिन्हें गांधी जितनी ख्याति मिली। यह कहना भी ग़लत नहीं होगा कि बापू को तारीख में बाँध पाना असंभव है। वे अपने समय में भी प्रासंगिक थे और आज भी हैं। उनकी प्रासंगिकता को सुतारजी कुछ अलग ढंग से समझाते हैं-"हम कितना भी आगे क्यों न बढ़ जाएँ गांधी को नकार पाना समय के बस में भी नहीं दिखता। हालांकि जो लोग गांधी की राह पर चलते हैं, वे कभी यह दावा नहीं करते कि मैं उनकी बतायी राह पर चलता हूँ। जिनको गांधी की समझ नहीं है, वही ऐसा दावा करते हैं।"
गांधी मार्ग की अवधारणाएँ समाज में इतनी उलझ चुकी है कि उसे आज की भागदौड़ में सुलझा पाना शायद ही संभव हो। लेकिन गांधी के एक वाक्य से सुतारजी पूरा दर्शन सामने रख देते हैं-"दुनिया में ऐसे लोग हैं जो इतने भूखे हैं कि भगवान उन्हें किसी और रूप में नहीं दिख सकता सिवाए रोटी के रूप में।"
ये रोटी बड़ी ज़रूरी चीज है। दुनिया में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जिनके लिए धरती से ज़्यादा बड़ी होती है रोटी की गोलाई। गांधीजी समानता की बात करते थे। भूख मिटाने की बात करते थे। प्यार और सद्भाव की बात करते थे। बातें उनकी अब भी सुनी, बोली और पढ़ी जा रही हैं। सुतार जी कहते हैं, "विदेशों में भी उनके मतों को मानने वाले लाखों की तादात में हैं। वे भी गांधी चाहते हैं। उनको भी हमने बना कर दिया है। लगभग 350 से ज़्यादा बड़े मूर्तिशिल्प तो विदेशों में मेंने बनाए हैं। देश में हजारों। आप गांधी की प्रतिमा को एक निर्जीव मूर्ति की तरफ़ कभी न देखें। मन में विचार हों तो वह प्रतिमा आपसे बातें करेंगी।"
ठीक वैसे ही, जैसे गांधी बनाते हुए सुतार जी ख़ुद से बाते करते हैं। लगभग छह दशक की कला यात्रा में इन्हें हर मोड़ पर गांधी मिले हैं। कला के वाद पर भरोसा करने वालों ने इन्हें रियलिस्टिक कलाकार बताकर आधुनिक मानने से भले ही उनकार कर दिया हो, लेकिन इन्हें कोई शिकायत नहीं। कोई परवाह नहीं। आर्किटेक्ट और मूर्तिशिल्पकार बेटे अनिल सुतार के साथ आज भी इनकी यात्रा जारी है। जाहिर है, कई और गांधी आएंगे। इन्हें यक़ीन है कि गांधी के विचार कभी ख़त्म नहीं होंगे, तो इनकी कला का कारख़ाना कभी खाली नहीं रहेगा।