गांधी बनाम भगतसिंह का यथार्थ / श्री भगवान सिंह

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आधुनिक भारत की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक शख्सियतों में भगतसिंह उसी वक्त शुमार हो गए जब 23 मार्च 1931 को देश की आजादी के लिए उन्होंने हंसते-हंसते फांसी के फन्दे को चूम लिया। जब से उनके आत्म बलिदान एवं विचारों के महत्व को लेकर लगातार लिखा जाता रहा है, हर वर्ष 23 मार्च को देश के विभिन्न नगरों में विचार गोष्ठियों एवं स्मृति-सभाओं का आयोजन होता रहा है। यह निश्चिय ही एक कतृज्ञ राष्ट्र का अपने एक महान शहीद के प्रति कृतज्ञता का प्रमाण है। उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर भगतसिंह की शहादत एवं विचारों को लेकर काफी कुछ लिखा गया जिसे देख कर प्रसन्नता होती है कि हमारे बुद्धिजीवी वर्ग ने भगतसिंह की कुर्बानी को विस्मृत नहीं किया है। इस क्रम में भगतसिंह के विचारों के महत्व को काफी उजागर किया है। बहुतों ने उन्हें शहीद-ए-आजम की संज्ञा से विभूषित किया है, दूसरी तरफ उन्हें मार्क्स एवं गांधी के समतुल्य व्यक्ति के रूप में मूल्यांकित करने के प्रयास भी हुए हैं। मसलन वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर अपने एक लेख (जनसत्ता 23 मार्च 07) में यह कहते हैं ” महात्मा गांधी और भगतसिंह हाल के दो व्यक्तित्व ऐसे हैं जो जन-स्मृति में बराबर बने हुए हैं। अंतराष्ट्रीय स्तर पर कार्ल मार्क्स को ही यह दर्जा हासिल है“।

भगतसिंह के आत्मोत्सर्ग एवं विचारों का सम्मान करने में मेरे जैसा व्यक्ति किसी भी भगतसिंह प्रेमी से पीछे नहीं है, फिर भी मेरा मन यह मानने को कभी तैयार नहीं होता कि ‘शहीदे आजम’ कहलाने के हकदार सिर्फ भगतसिंह ही हैं और व्यक्ति या विचारक के रूप में वे मार्क्स एवं गांधी के समकक्ष हैं। संभव है ऐसा कहने के कारण भगतसिंह प्रेमियों को मुझ पर गुस्सा आये, किन्तु मेरा विनम्र निवेदन है कि जिस तरह हमें मार्क्स या गांधी का मूल्यांकन करते समय अंधश्रद्धा का शिकार नहीं होना चाहिए, उसी तरह भगतसिंह के मूल्यांकन में भी हमें वस्तुनिष्ठ सत्य को अंधश्रद्धा से ओझल न करके, उसे सामने लाने की जहमत उठानी चाहिए। अपने व्यक्तत्व के पक्ष में मैं जो तथ्य एवं तर्क पेश करने जा रहा हूँ, उस पर ठंडे दिमाग से विचार करने की जरूरत है।

चैबीस वर्ष की उम्र में पहुंचा युवक जहाँ आमतौर पर यौवन की नैसर्गिक मांग पर गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर स्त्री-सहवास एवं घर बसाने की इच्छा रखता है, वहाँ भगतसिंह जैसे युवक ने इस उम्र में पहुंच कर देश की आजादी के लिए फांसी के फन्दे को अपनी नियति बना लिया। इसके लिए वे निस्संदेह हम सब को दृष्टि में आदर एवं अभिनंदन के पात्र हैं। किन्तु ऐसा करने में भगतसिंह न अकेले थे, न पहले। उनसे पहले देश की आजादी के लिए सोलह वर्षीय किशोर खुदीराम बोस, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खान, रोशन सिंह, राजेन्द्र लाहिडी जैसे युवक फांसी पर लटकाये जो चुके थे। यही नहीं, ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ जिनके सदस्य भगतसिंह भी थे, के मास्टर माइण्ड माने जाने वाले चन्द्रशेखर आजाद भी उनकी फांसी के पूर्व ही इलाहाबाद के एक पार्क में पुलिस के साथ मुठभेड में मारे जा चुके थे। देश के लिए शहीद होने वाले इन सभी युवकों का जीवन, विवाह एवं रोमांस से अछूता रहा। 23 मार्च 1931 को भी लाहौर जेल में जब भगतसिंह को फांसी दी गई, तब उनके साथ फांसी पर लटकने वाले राजगुरू एवं सुखदेव जैसे दो और क्रान्तिकारी युवक भी थे, यह हमें नहीं भूलना चाहिए। वस्तुतः देश की आजादी के लिए प्राणेत्सर्ग करने वाले ये सभी शहीद हमारे लिए समान रूप से अभिनंदनीय हैं, फिर शहीदे आजम या शहीद शिरोमणी का सेहरा सिर्फ भगत सिंह के माथे क्यों?

दूसरी बात यह है कि भगतसिंह ने क्रान्तिकारी साहित्य को पढ़ने एवं उनका प्रचार करने में जितना भी समय लगाया हो, किन्तु उनकी राष्ट्रीय प्रसिद्धी दो कार्यों के कारण हुई - पहला कार्य था, चन्द्रशेखर आजाद एवं राजगुरू के साथ 17 दिसम्बर 1928 को लाहौर में पुलिस अफसर सांडर्स की हत्या करना और दूसरा कार्य था 8 अप्रैल 1929 को राष्ट्रीय असेम्बली में बटुकेश्वर दत्त के साथ बम फेंकना। दूसरे कार्य के कारण वे गिरफ्तार हुए और पहले कार्य के कारण वे मृत्यु दण्ड के पात्र बने। यहाँ ध्यान रखने की बात यह है कि ये दोनों कार्य भगत सिंह के व्सक्तिगत निर्णयों की परिणति नहीं थे, हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी के निर्णय थे। ” इस आर्मी की स्थापना “ जैसा कि इतिहासविद् विपिन चन्द्र ने अपने एक लेख में बताया है, 9-10 सितम्बर 1928 में विजय सिन्हा, शिव वर्मा, भगवतीचरण वोहरा, भगत सिंह, सुखदेव आदि के प्रयासों से चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में दिल्ली में हुई। ये सभी ऊंचे दर्जे के बौद्धिक थे। चन्द्रशेखर आजाद यद्यपि अंग्रेजी कम जानते थे फिर भी जब कोई बात उन्हें अच्छी तरह समझा दी जाती, तभी वे उसे स्वीकार करते थे। ‘बम का दर्शन’ का क्रान्तिकारी वक्तव्य भगवती चरण वोहरा द्वारा आजाद के अनुरोध पर उनके साथ पूरी बहस करने के बाद ही लिखा गया था ( इण्डिया स्ट्रगल फार इन्डेपेन्डेंस, पृ 255)

उपरोक्त तथ्यों के आलोक में स्पष्ट है कि भगत सिंह हि.सा.रि.आ. के महत्वपूर्ण सदस्यों में एक थे और सांडर्स हत्या से लेकर असेंबली में बम फेंकने जैसे कार्यों में उनकी भागीदारी संगठन के नीतिगत फैसले के तहत थी। गिरफ्तारी के बाद उन्होंने अदालत में भी जो बयान दिया कि ‘यह बम बहरे कानों को सुनाने के लिए फेंका गया’ संगठन द्वारा ही निर्देशित था। इन बातों को देखते हुए तथा उनके पूर्व देश के लिए शहादत देने वाले शहीदों को ध्यान में रखते हुए सिर्फ भगत सिंह को शहीदे आजम कहना अन्य शहीदों की अवमानना करना तो है ही, उस व्यक्ति पूजा का भी शिकार होना है जिसे भगत सिंह जैसे समाजवादी सोच वाले युवक पसंद नहीं करते थे। हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी के तमाम सदस्यों का सपना था भारत में समतामूलक समाज की स्थापना करना तो फिर उन्हें सम्मानित करने में हमारे द्वारा असमानतापूर्ण व्यवहार क्यों?

भगत सिंह के विचारों को प्रकाश में लाने के लिए सर्वश्री जगमोहन एवं चमनलाल द्वारा ‘भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज’ नाम से जो पुस्तक बहुत परिश्रम से तैयार की गई है, उसमें कुछ लेख ही भगत सिंह के नाम से हैं, कुछ छद्म नाम से लेख हैं और कुछ महत्वपूर्ण लेख हि.सा.रि.आ. के सदस्यों द्वारा सामूहिक रूप से विचार-विमर्श के उपरान्त लिखे गए हैं। क्या चार-पाॅच लेखों की बदौलत कोई मार्क्स या गांधी के समतुल्य विचारक या व्यक्तित्व हो सकता है, इस पर राजकिशोर जी जैसे परिपक्व विचारक को विचार करना चाहिए। दूसरी बात कि भगत सिंह के लेखों में जाति, धर्म आदि के विभेदों से परे, शोषणविहीन समतामूलक समाज के जो विचार व्यक्त हुए हैं, वे कोई उनके मौलिक विचार नहीं थे। वस्तुतः रूसी क्रान्ति की सफलता ने विश्व स्तर पर समाजवादी सिद्धान्तों के प्रति बौद्धिकों को आकृष्ट कर रखा था। जार्ज बनार्ड शा, रोमा रोला, रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार रूसी क्रान्ति और वहाँ की समाजवादी उपलब्धियों से अभिभूत थे। लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय भी जिन्हें आज के सेक्युलिस्ट ‘हिन्दूवादी’ सिद्ध करते हैं, रूसी क्रान्ति के प्रशंसक थे और ब्रिटिश सरकार की निगाह में वे ‘बोल्शेविक एजेन्ट’ समझे जाते थे। ऐसे परिवेश में भगत सिंह एवं उनके युवा साथियों का रूसी क्रान्ति एवं उसके नायक लेनिन के प्रति आकृष्ट होना, उनसे प्रभावित होना बहुत स्वाभाविक था। भगत सिंह और उनके साथी हिन्दुस्तान में जिस तरह की क्रान्ति और समाज निर्माण का सपना देख रहे थे, जो उनके लेखों से पता चलता है, वह पूरी तरह रूसी क्रान्ति एवं समाजवाद के मॉडल का था, लेकिन उनके विचार मार्क्सवाद या गांधीवाद की तरह समग्र जीवन-दर्शन का रूप नहीं ले पाये थे। भगत सिंह के विचारों में राष्ट्रभाषा का सवाल, स्त्री-समस्या का सवाल, साहित्य संस्कृति-कला का सवाल, आध्यात्मिक विकास, मनुष्य एवं मनुष्येतर के संबंध का सवाल जैसे कितने ही मुद्दे अनुपस्थित हैं और इसे उनका दोष भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि चैबीस वर्ष की उम्र तक वे जितना सोच सके थे, वही काफी था। विदित है कि गांधी ने अपने चिंतन एवं कर्म में इन सारे विषयों का समावेश किया था, इसलिए गांधी के समतुल्य भगत सिंह को रखना बहुत अटपटा लगता है।

विचारक के रूप में भगत सिंह के महत्त्व को उजागर करने के लिए उनके लिखे निबंध ‘ मैं नास्तिक क्यों हूँ ’ को बार-बार आज भी उनके भक्तों द्वारा प्रकाशित किया जाता है गो कि उसके पहले नास्तिकता पर किसी ने कुछ लिखा ही नहीं था। ध्यान रहे यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते अक्टूबर 1930 में लिखा था जब वे 23 वर्ष के थे। इस उम्र में अमूमन आदमी नास्तिक ही होता है। दूसरी बात कि हमारे यहाँ तो चार्वाक, बुद्ध के समय से ही ईश्वर को नकारने की परम्परा चली आ रही है। यूरोप में मार्क्स द्वारा ईश्वर को मनुष्य का मानस-पुत्र एवं नीत्से द्वारा ईश्वर की मृत्यु की घोषणा करने के बाद से नास्तिक मतावलम्बियों की संख्या बढ़ने लगी थी। किन्तु इससे भी बड़ा सत्य है कि ईश्वर को मानने वाले ही अधिक रहे और आज भी वे बहुसंख्या में हैं। ऐसा नहीं है कि हर नास्तिक अच्छा ही होता है और हर आस्तिक बुरा। सच तो यह है कि सुकरात, ईसा, हजरत मुहम्मद, मंसूर, संत फ्रांसिस और इसी श्रंखला में गांधी जैसे जितने भी महान मानव सेवी एवं सत्य इन्साफ के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले हुए है, सभी आस्तिक ही थे। बीसबीं सदी के महान वैज्ञानिक आइन्सटिन भी ईश्वर में आस्था रखने वाले थे। इसीलिए भगत सिंह के मैं नास्तिक क्यों हूँ वाले लेख से मानव समुदाय को कोई नई दिशा मिली हो, नहीं कहा जा सकता। बहुतों ने भगत सिंह के महत्व को उनके लेख ‘अछूत समस्या’ के आधार पर रेखांकित किया है। यह लेख जून 1928 में लिखा गया था। जाहिर है अस्पृश्यता की समस्या को लेकर लिखा गया यह लेख भी इस समस्या पर कोई पहला लेख नहीं था। इस सवाल पर काम तो 19 वीं सदी से ही शुरू हो चुका था। 1920-22 के असहयोग आंदोलन के दौरान गांधी ने अस्पृश्यता उन्मूलन को राष्ट्रव्यापी मुद्दा बना दिया और 1927 में महाड़ आंदोलन के जरिये डा. अम्बेडकर ने इस मुद्दे मे और एवं गरमाहट ला दी। जून 1928 में लिखे गए भगत सिंह के इस लेख के पीछे अस्पृश्यता विरोधी इसी परिदृश्य का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

यहाँ बहुत विस्तार में जा पाना संभव नहीं है, फिर भी यहाॅ जो तथ्य दर्ज किए गए हैं, उन्हें देखते हुए यह साफ है कि भगत सिंह अपने विचारों एवं कार्यों में अकेले नहीं थे, और वैसा कहने एवं करने में भी वे पहले नहीं थे। उनके साथ प्रतिबद्ध एवं प्रबुद्ध साथियों का दल था जिसके अधिकांश सदस्यों ने समाजवाद का सपना देखते हुए शहादत के पथ का वरण कर लिया, अतएव इन सबका समान महत्व है और वे समान रूप से हमारी श्रद्धा के पात्र हैं। जहाँ तक गांधी के व्यक्तित्व के साथ भगत सिंह की तुलना का प्रश्न है, तो हमें यह बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिए कि गांधी ने भले ही कोई नया विचार न दिया हो, जैसा कि वे स्वयं भी कहा करते थे, किन्तु उन्होंने कार्य ऐसे जरूर किए जो मानव इतिहास में नये थे और इस दृष्टि से वे अनेक कार्यों में पहले और अकेले थे। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ खड़े होने वाले वे प्रथम व्यक्ति थे, और अकेले थे, तो भारत में 1917 में चम्पारण में किसानों पर होने वाले जुल्म के खिलाफ सरकारी आदेश की अवज्ञा कर खुद को जेल जाने के लिए प्रस्तुत करने वाले वे प्रथम भारतीय नेता थे। असहयोग के रूप में पहली बार पूरे देश में राष्ट्रीय आंदोलन खड़ा करने वाले प्रथम नेता गांधी ही थे। और अंत में साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए गोलियां खाने में भी गांधी अकेले थे, जबकि फांसी पर लटकते समय भी भगतसिंह के साथ दो और साथी थे।

वस्तुतः भगतसिंह हों या गांधी किसी का भी मूल्यांकन अंध श्रद्धावश नहीं, तथ्यों के आलोक में होना चाहिए। एक के कद को बढ़ाने के लिए दूसरे के कद को छोटा कर देना मूल्यांकन का सही तरीका नहीं है। गांधी के समकक्ष किसी को अगर रखना ही है, तो सिर्फ भगत सिंह ही क्यों? राम प्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आजाद आदि क्यों नही? यह सवाल भगतसिंह प्रेमियों से पूछा जाना चाहिए। यह भी विचारणीय है भगत सिंह के महत्व को बढ़ाने के लिए क्या दूसरे नेताओं, विशेषकर गांधी को खलनायक सिद्ध करना वांछनीय है?

गालिब का मशहूर शे’र है - ”जिक्र उस परिवेश का और फिर बयां अपना, बन गया रकीब आखिर जो था राजदां अपना“। बहुत कुछ ऐसी ही सूरत भगतसिंह के मूल्यांकन-महिमामण्डन को लेकर बना दी गई है। भगतसिंह के बहाने उनके भक्त अपने मन की बातों को इतना परोसने लगे हैं जिससे गाालिब के इस शे‘र में इंगित सत्य का अहसास होने लगता है। भगत सिंह को ऊॅंचा उठाने के क्रम में वे अन्य के कद को इतना छोटा करने लगते हैं जो हर एक समझदार एवं जानकार व्यक्ति को नागवार गुजरने लगता है। मसलन, भगत सिंह-प्रेमी जिस तरह गांधी के साथ भगत सिंह के मतभेदों को रखते हैं, उससे यही प्रकट होता है कि वे गांधी को खलनायक, दुष्टात्मा बताकर ही भगत सिंह को महानायक सिद्ध कर सकते हैं। गांधी के साथ उनके मतभेदों को उछाल कर वे यही सिद्ध करते हैं कि गांधी का मुख्य काम ही था भगतसिंह आदि का विरोध करना और इसीलिए यह व्यक्ति भगत सिंह आदि की दृष्टि में बहुत काम का नहीं था। इन आरोपों के पीछे सत्य क्या है, इसे जानकर ही हम दोनों के संबंध में सही राय बना सकते हैं।

सबसे पहले तो हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि गांधी का सिर्फ भगत सिंह से मतभेद नहीं था, मतभेद था तो उन सभी क्रान्तिकारियों से जो देश को आजाद कराने के लिए हिंसा एवं आतंक की कार्यवाहियों में विश्वास करते थे एवं उसे अंजाम भी देते थे। एक दिलचस्प तथ्य है कि 1920-30 के बीच के जो भी क्रान्तिकारी युवक थे, वे सभी मुख्यतः गांधी के असहयोग आंदोलन(1920-22) से ही साम्राज्यवाद विरोध का पाठ पढ़कर क्रान्तिकारी बने थे। चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह आदि उस समय चैदह-पन्द्रह वर्ष के किशोर थे। ध्यातत्व है कि 1922 में असहयोग आंदोलन को स्थगित कर गांधी ने अपने को रचनात्मक कार्यक्रम में लगा दिया, तो उस आंदोलन में शामिल हुए इन तरूणों को लगने लगा कि देश की आजादी सिर्फ अहिंसा के रास्ते नहीं प्राप्त हो सकती और उनका झुकाव हिंसात्मक आतंकवादी कार्यों की ओर हो चला। इसी उद्देश्य को साधने के लिए राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल आदि ने अक्टूबर 1924 में हिन्दुस्तान रिपब्लिक संघ की स्थापना की और जब 1925 में काकोरी टेªन डकैती केस में रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिडी, आशफाकुल्ला की फांसी हो जाने के बाद संगठन कमजोर हो गया तो 1928 में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी नाम से चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह आदि ने इसकी स्थापना की। इसके संबंध में पहले जिक्र किया जा चुका है। यहाँ उल्लेख का मतलब यह देखना है कि 1922 के बाद भारत की राजनीति में इन युवा क्रान्तिकारी का एक दल अपने ढंग से देश की आजादी की लड़ाई लड़ने लगा और चुंकि इनका ढंग हिंसा का था, इसीलिए अहिंसा को अपने जीवन दर्शन का अभिन्न अंग मानने वाले गांधी ने इसे कभी पसंद नहीं किया। गांधी हमेशा कहते रहे कि वे अहिंसा के सवाल को स्वतंत्रता से ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं।

वास्तव में गांधी का इन क्रान्तिकारी युवकों से कोई व्यक्तिगत मनोमालिन्य नहीं था। वे इनकी देशभक्ति की भावना की प्रशंसा और सम्मान करते थे किनतु अहिंसा में अटूट आस्था के कारण वे इनकी दूसरों की जान लेने वाली गतिविधियों का विरोध करते थे। ध्यान रहे इसी अहिंसा के जरिये गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ संघर्ष की एक नई सभ्यता को जन्म दिया था और जब 1917 में रूस में रक्त रंजित क्रान्ति का इतिहास रचा जा रहा था, तब ठीक उसी वर्ष गांधी चम्पारण में अहिंसा के जरिये अन्याय प्रतिरोध की एक नई सभ्यता को जन्म दे रहे थे। विदित है कि 1937-38 में कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष रहे सुभाष बोस से गांधी के मतभेद का कारण हिंसा बनाम अहिंसा का ही सवाल था। सुभाष चन्द्र बोस सरकार के विरूद्ध कॉन्ग्रेस के नेतृत्व में सशस्त्र संघर्ष चलाना चाहते थे जिससे गांधी कभी सहमत नहीं हुए और अन्ततः सुभाष बाबू ने कॉन्ग्रेस छोड़ कर केवल नई पार्टी ही नहीं बनाई, बल्कि सशस्त्र संघर्ष को मूर्त रूप देने के लिए जर्मनी और फिर जापान पहुँच गए।

तो गांधी का अपना यह जीवन दर्शन था और इसीलिए उन्होंने हिंसा एवं आतंक के मार्ग पर चलने वाले क्रान्तिकारियों की देशभक्ति का सम्मान करते हुए भी, उनके साधनों का समर्थन नहीं किया। आज की तारीख में जब हम हिंसा बनाम अहिंसा के प्रश्न पर विचार करते हैं, तो गांधी का मार्ग ही सही सिद्ध होता है। भगतसिंह आदि रूसी क्रान्ति और रूसी समाजवाद, लेनिनवाद के मॉडल पर भारत में क्रान्ति करना चाहते थे, लेकिन वह सब आज इतिहास की चीजें बन चुकी हैं, पूंजीवादी उपभोक्तावाद के समक्ष रूसी समाजवाद ने दम तोड़ दिया और चीनी समाजवाद ने पूंजीवाद को अपने अन्दर बसा लिया। आज विश्व पैमाने पर गांधी के अहिंसा-अपरिग्रह सिद्धान्तों के प्रति आकषर्ण बढ़ रहा है। अतएव क्रान्तिकारी की हिंसक गतिविधियों का, उनके बम के दर्शन का गांधी द्वारा विरोध किया जाना सही काम था और इससे गांधी को खलनायक समझने की भूल नहीं होनी चाहिए।

प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि ये क्रान्तिकारी भी अपने आखिरी दिनों में यह महसूस करने लगे थे कि उन्होंने हिंसा का मार्ग अपना कर सही काम नहीं किया। इसके प्रमाण स्वरूप जवाहरलाल नेहरू की आत्मकथा का वह प्रसंग द्रष्टव्य है जब अपनी मौत से चंद दिनों पूर्व ही चन्द्रशेखर आजाद नेहरू जी से उनके इलाहाबाद स्थित आवास पर मिले थे और बातचीत में यह स्वीकार किया था कि ” वे और उनके साथी अब इस बात के कायल हो चुके हैं कि आतंकवादी तरीके बेकार हैं और इससे कुछ भला होने वाला नहीं है। .......... आजाद से यह जानकर मैं बहुत खुश हुआ कि आतंकवाद में विश्वास मर रहा था।“ ! विपिन चन्द्रा ने भी पूर्वोक्त लेख में इस बात का जिक्र किया है कि 2 फरवरी 1931 को भगत सिंह ने साफ तौर पर कहा कि ” मैं आतंकवादी नहीं हूँ सिवा क्रान्तिकारी जीवन के आरंभ में और अब मुझे पूरा विश्वास हो चुका है कि हम लोग उन तरीको से कुछ भी हासिल नहीं कर सकते।“ (इण्डियन स्ट्रगल फ़ॉर फीडम, पृ. 255) इन क्रान्तिकारियों की इन आत्म स्वीकृतियों के बावजूद गांधी को इनके साधनों का विरोध करने के लिए लांछित करने के पीछे तथ्यों का कितना बल है, इसे सहज ही देखा-समझा जा सकता है।

भगत सिंह को लेकर गांधी पर जो सबसे बड़ा आरोप रहा है वह यह कि उन्होंने भगत सिंह एवं उनके साथियों को फांसी की सजा से बचाने के लिए अपने प्रभाव का जरा भी इस्तेमाल नहीं किया। 23 मार्च 1931 को जब इन्हें फांसी दी गई, उसके कुछ ही दिनों पूर्व यानी 5 मार्च को गांधी और वायसराय इर्विन के बीच वह प्रसिद्ध समझौता सम्पन्न हुआ था जिसके अनुसार 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान गिरफ्तार किए गए लाखों सत्याग्रहियों को जेल से छोड़ा गया था। अतएव तब से लेकर अब तक गांधी पर भगतसिंह के कातिल होने का आरोप भगतसिंह प्रेमी लगाते रहे हैं। लेकिन सत्य इसके विपरीत है। गांधी ने काफी प्रयास किये कि इनके मृत्युदण्ड को किसी और सजा में रूपान्तरित कर दिया जाए। समझौते के दौरान भी गांधी बहुत कठिनाई से वाइसराय से इस मसले पर पुनः विचार करने का अनुरोध कर चुके थे किन्तु जैसा कि नेहरू ने ‘आत्मकथा’ में लिखा है, सरकार ने उनके अनुरोध को अस्वीकृत कर दिया।

इसके बाद भी गांधी चुप नहीं बैठे रहे। 24 मार्च को सुबह में फांसी दी जानी थी, सो गांधी ने जो उस समय दिल्ली में ही थे, वाइसराय को 23 मार्च को पत्र लिखकर पुनः इस सवाल पर विचार करने का अनुरोध किया। उस पत्र के कुछ अंश देखने लायक है - ‘ प्रिय मित्र, आपको यह पत्र लिखना आपके प्रति क्रूरता करने जैसा लगता है, पर शान्ति के लिए अन्तिम अपील करना आवश्यक है। यद्यपि आपने मुझे साफ-साफ बता दिया था कि भगत सिंह और अन्य दो लोगों की मौत की सजा में कोई रियायत किए जाने की आशा नहीं है, फिर भी आपने मेरे शनिवार के निवेदन पर विचार करने को कहा था।......... यदि इस पर पुनः विचार करने की गुंजाइश हो, तो मैं आपका ध्यान निम्न बातों की ओर दिलाना चाहता हूँ जनमत वह सही या गलत सजा में रियायत चाहता है। जब कोई सिद्धान्त दांव पर न हो तो लोकमत का मान करना हमारा कर्तव्य हो जाता है। प्रस्तुत मामले में स्थिति ऐसी है कि यदि सजा हल्की की जाती है, तो बहुत संभव है कि आन्तरिक शान्ति की स्थापना में सहायता मिले। यदि मौत की सजा दी गई तो निस्संदेह शान्ति खतरे में पड़ जायेगी। मैं आपको यह सूचित कर सकता हूँ कि क्रान्तिकारी दल ने मुझे यह आश्वासन दिया है कि यदि इन लोगों की जान बख्श दी जाये तो यह दल अपनी कार्यवाहियां बंद कर देगा। यह देखते हुए मेरी राय में मौत की सजा को क्रान्तिकारियों द्वारा होने वाली हत्याएं जब तक बंद रहती है, तब तक तो मुल्तवी कर देना एक लाजमी फर्ज बन जाता है।“

पत्र और लंबा है, स्थानाभाव के कारण यहाँ इतना ही अंश दे पाना संभव है। फिर भी जो अंश है, उससे साफ है कि गांधी अंत तक सच्चे मन से फांसी की सजा को बदलवाने के लिए प्रयत्नशील थे। लेकिन उनकी अपील का कोई असर नहीं हुआ, उल्टे फांसी के तय समय में ग्यारह घंटे की कमी करते हुए 23 मार्च की शाम सात बजे ही भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव को फांसी दे दी गई। उन्हें फांसी दिये जाने के बाद गांधी ने जो व्यक्तव्य जारी किया, वह भी इन क्रान्तिकारियों के संबंध में उनकी भावनाओं को समझने में काफी महत्वपूर्ण है -” भगत सिंह और उनके साथी फांसी पाकर शहीद बन गए हैं। ऐसा लगता है मानो उनकी मृत्यु से हजारों लोगों की निजी हानि हुई है। इन नवयुवक देशभक्तों की याद में प्रशंसा के जो शब्द कहे जा सकते हैं, मैं उनके साथ हूँ। ........... सरकार के बारे में मुझे ऐसा लगे बिना रहता कि उसने क्रान्तिकारी पक्ष को अपने पक्ष में करने का सुनहरा अवसर गंवां दिया है। समझौते को दृष्टि में रखकर और कुछ नहीं तो फांसी की सजा को अनिश्चित काल तक अमल में न लाना उसका फर्ज था। सरकार ने अपने काम से समझौते को बड़ा धक्का पहुँचाया है और एक बार फिर लोकमत को ठुकराने और अपने अपरिमित पशु-बल के प्रदर्शन की शक्ति को साबित किया है।“

उपरोक्त तथ्यों के आलोक में दिन के उजाले की तरह साफ है कि भगत सिंह आदि की सजा में कमी करने के संबंध में गांधी की वाइसराय से बातें हुई थीं और वाइसराय ने उस पर विचार करने का आश्वासन भी दिया था। गांधी अंत-अंत तक वाइसराय से मिलकर इस मुद्दे पर बात करने को व्यग्र थे जो वाइसराय को मान्य नहीं हुआ। दूसरी बात जो अत्यन्त महत्व की है वह यह कि चाहे चम्पारण सत्याग्रह मामला हो या असहयोग आंदोलन का, गांधी पर जब मुकदमें चलाये गए तो उन्होंने हमेशा अपने लिए कठोर से कठोर दण्ड की मांग की थी। अपने स्वभाव के विरूद्ध जाकर वे वाइसराय से इन क्रान्तिकारियों की सजा कम करने की प्रार्थना कर रहे थे, तो इसे इन क्रान्तिकारियों के प्रति उनकी गहरी सहृयता, संवेदनशीलता का ही प्रमाण समझा जाना चाहिए! फांसी दिए जाने के बाद उनके द्वारा दिये व्यक्तव्य से भी स्पष्ट है कि वे सरकार के पशुबल प्रदर्शन से कितने मर्माहत थे।

इसके बावजूद यह प्रलाप करना कि गांधी चाहते तो फांसी की सजा से उन्हें बचा लेते, उस समय के शासन के दमनकारी चरित्र के प्रति अज्ञान प्रकट करना ही कहा जायेगा। अगर अंग्रेज गांधी की हर बात मान लेते, तब तो उन्हें 1920 के असहयोग आंदोलन के समय ही यहाँ से चले जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा मुमकिन नहीं हुआ और गांधी को 1942 तक आंदोलन करते रहना पड़ा, औरों के साथ-साथ उन्हें भी जेल जाते रहना पड़ा। गांधी को कमजोर करने के लिए अंग्रेजों ने कैसे मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा जैसे साम्प्रदायिक संगठनों, जिन्ना एवं आम्बेडकर जैसे नेताओं को प्रोत्साहित किया, जैसी बातों को ध्यान में रखने पर गांधी की मजबूरी का भी पता चल जाता है। ब्रिटिश शासन की निर्ममता का जो इतिहास था, उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि इन क्रान्तिकारियों को बचाने के लिए ईसा मसीह भी आकर प्रार्थना करते तो उसका भी कोई प्रभाव नहीं होता।

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि भगत सिंह आदि के महत्व को उजागर करने के लिए जिस तरह गांधी की लांछित छवि प्रस्तुत की जाती है, उसका मुख्य कारण सही जानकारी का अभाव है, भगत सिंह के जिक्र के बहाने उनके भक्तों की गांधी के प्रति नासमझी भरी भड़ास भी है और यह वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन का सबसे बड़ा दुश्मन है।