गांव की गाय / कमलेश पाण्डेय
वो जो ज़रा चौंकी-सी, सहमी-सी, यहां वहां सूंघती, छरहरी और चमकते सींगों वाली धीरे-धीरे टहलती-सी जा रही है, वही है गांव की गाय। वैसे नायिका या मुख्य आकर्षण के तौर पर कहानियों में गांव की गोरी रखने की परम्परा है, पर यहां सीन पर गाय ही है तो उसी से काम चलाते हैं। कुछ गाय भैसों को लादे गांव से चले ट्रैक्टर के शहरी ट्रैफ़िक जाम में फंस जाने पर ये गाय घबरा कर सड़क पर कूद पड़ी थी और बदहवासी में इतनी तेज भागी कि किसी के हाथ नहीं आई. दम लौटने पर खुद को इस चौराहे पर पाया. यहीं उसे शहर की गाय दिखी।
गाँव की गाय शहर की गाय को देख मुस्कराई। गाय मुस्कराती हुई कैसी दिखती है, इसकी कल्पना आपको खुद ही कर लें, मैंने तो अंदाजा लगाया कि पहली बार गायें भी आपस में वैसे ही मिलती होंगी जैसे हम. खैर! उसकी इस हैलोनुमा मुस्कराहट पर शहर की गाय ने ध्यान नहीं दिया। फिर ज़रा आगे बढ़ कर उसने कुछ गाय-सुलभ भंगिमाओं और चेष्टाओं से उसका ध्यान आकृष्ट करना चाहा। इस पर शहर की गाय ने न ही उसे मुहावरे वाली घास डाली न चारे वाली। गांव की गाय ने निराश होकर थूथन लटका लिया।
शहर की गाय को दया आयी। वह भी मुस्करा दी। फिर क्या था, दोनों ने पूंछ फटकार कर और एक दूसरे को चाट कर परस्पर परिचय किया। शहर की गाय ने पूछा- ‘कहां से आई हो! गाँव की लगती हो! उस पास के गांव से तो नहीं जो इसी शहर में है।’
‘नहीं पहली बार इधर आई हूं! न जाने मुझे कहां ले जा रहे थे। बीच में उतर कर भागी तो रास्ता भटक गई!’
‘आ जा तू भी जम जा इस सड़क पर! बेघरों का यही ठिकाना है शहर में. मैं तो शहर की ही हूं …पर जब से सूख गई, इधर ही पड़ी रहती हूं…चिकनी सड़क है, कहीं भी फैल जाओ! और चारा भी क्या है।‘
‘वैसे इधर का चारा है क्या?’ गांव की गाय अपने भूखे पेट के मतलब की बात पूछ बैठी।
‘बहुत है! सारा अभी खायेगी क्या! चल आ जा करवाती हूं तेरी पार्टी…’, शहर की गाय उसे टहलाती हुई कुछ दूर बड़े कूड़ाघर तक ले आई।
कूड़ाघर सचमुच बड़ा था। पशुयोग्य खाद्य-सामग्री का विशाल ढेर, जिस पर मंडराते, कुत्ते, कौवे और चील। गांव की गाय लपकी और ढेर में मुंह घुसेड़ दिया। मजे की चीज़ें थीं- सड़े-गले फल, अंडे-टमाटर, अधखाए टोस्ट, बर्गर, पिज़्ज़ा, केंचुओं से नूडल्स, मुर्झाए हुए फूल, चॉकलेट के रैपर, विष्ठा में लिपटे नैपीपैड- घास-पत्तियों के अलावा सबकुछ धरा था शाकाहारी गाय के सामने। वह कुछ अचकचाई।
शहर की गाय ने हौसला बढाया, ‘ये ख़ास कूड़ाघर है। आस-पास दूसरा कोई नहीं इसके टक्कर का। पॉश लोकेलिटी है ये शहर की। सब लोग अंग्रेजी खाना ही खाते हैं। हर चीज़ का स्वाद अलग। मैं तो यहां रोज़ ढेरों पनीर और पिघली हुई आइसक्रीम खा जाती हूं जो हमारा या भैंस के दूध का बना तो लगता नहीं… कुछ खास ही होता है। एक रोज़ एक बड़ी पार्टी हुई थी उधर, क्या गजब का माल आया था अगले रोज़, मैं तो एक बोतल से बहते पानी को चाट कर घंटो मस्त पड़ी थी। अरे, इनके तो बच्चों का वो…भी लज़ीज़ होता है। पिछले कूड़ाघर में तो रोज़ वही सड़ी सब्ज़ियां, छोले और जली रोटियां होती थीं। यहाँ आकर लगा कि खाना क्या होता है. तू तो बस ऐश कर्…।‘
गांव की गाय थी भूखी, एक गुर्राते कुत्ते को सींगों से धमका कर एक बड़े ढेर पर टूट पड़ी। पर पहला निवाला जाते ही कुछ लिजलिजा-सा मुंह में फंस गया। तब उसने देखा कि हर चीज़ एक चिकने से कपड़े की थैली में बंधी है। बोरे और कपड़े चबाने में तो गांव की गाय को महारत हासिल थी, पर ये चीज़ तो बस दांतों में फिसल-फिसल जाती थी। उसने इस बार मज़बूर निगाहों से शहर की गाय को देखा।
‘अरी! कभी पॉलीथिन नहीं देखी क्या? चख के देख, मज़े की चीज़ है, मैं तो रोज़ दो-तीन किलो निगल जाती हूं, इसमें लिपटे बगैर शह्र में कोई चीज़ आती ही नहीं… तू इसे पूरा का पूरा सुड़क जा, मज़े में फिसलती अन्दर भी जायेगी और वैसे ही गोबर के साथ बाहर भी आ जायेगी।’
भूखी गंवार गाय ने मुंह में जो आया भरना शुरू किया. धडाधड थैलियाँ निगलने लगी. गाँव में इन दिनों चारा दुर्लभ होने लगा था. अपने भूखे पेट को उसने गले तक भर लिया. शहर की गाय पास ही पगुराती उसका गंवारपन देखती रही. दोनों जैसे ही कूड़ाघर से निकलकर चैन से बैठ पगुराने लायक जगह ढूँढने चली, एक बड़ी सी गाडी आकर वहाँ ढेर सारा ताज़ा कूड़ा गिराने लगी. वहाँ मंडराते भोजनार्थियों में भगदड़ सी मच गई. गाँव की गाय ने इस बार भीड़ में कुछ इनसान भी देखे. ये ढेर में से पोलीथीन ही उठा-उठा कर अपने बोरों में भर रहे थे. गाय को इत्मीनान हो गया कि पोलीथीन एक उत्तम खाद्य पदार्थ है.
पर कूड़े की बदबू को झेलना खासी चुनौती था. गाँव में कई बार वो घर का बासी जूठन सूंघ कर छोड़ देती तो मालिक किसान की बेटी ताज़ा घास काट कर ला देती. उसने अपनी नाक की मदद से भरसक साफ़ सुथरी पालीथीन की थैलिया चुन कर अपने जबड़े में ज़ज्ब कीं और बाहर निकल कर लम्बी साँसें लेने लगी.
अपनी शहरी सहेली के साथ सड़क पर पसर कर जब गाँव की गाय ने पगुराना शुरू किया तो उसे अहसास हुआ कि वह तो सिर्फ चबाये जा रही है, पेट में तो कुछ उतर ही नहीं रहा. उसकी परेशानी देख कर शहर की गाय हंसी और बोली, “आया न मज़ा! यहाँ के इंसान एक चीज़ चबाते हैं- च्युंगम- जिसे चबाये जाओ, चबाये जाओ, कभी ख़त्म ही नहीं होती. इस वक़्त पोलीथिन में वही रस ले रही है तू.”
पर गाँव की गाय को इसमें कोई रस नहीं आ रहा था. उसकी भूख तेज़ होती जा रही थी. उसकी आँखों में हरी-हरी घास और रसीले चारे की तस्वीरें भर आईं थीं. उन्हीं धुंधली आँखों से उसे सड़क के बीचों-बीच कुछ हरियाली-सी दिखी. वह सड़क के डिवाईडर पर लगा एक मुरझाया हुआ पेड़ था जो प्रदूषण की मार से कुछ नाटा ही रह गया था. शहर की गाय उसे रोकती तब तक वह उठकर उस पेड़ की ओर भाग खड़ी हुई. पौधे की एक डाली जैसे ही उसके मुंह में आई अचानक लगे एक ज़ोरदार आघात से वो दूर जा गिरी. संभलती, तबतक दो दैत्याकार टायर उसकी गर्दन पर चढ़ गए.
सड़क पर चित पड़ी गाय के मुंह के पास चबाई हुई पोलीथिन की लुगदी के बीच दो हरे पत्ते पड़े थे जो चबाये जाने से रह गए थे. शहर की गाय ने कुछ विरक्ति से इस दृश्य को देखा और अभ्यस्त कदमों से सड़क पार कर गई.