गाना / गोवर्धन यादव
मेरे एक मित्र बडॆ गपाडिया हैं, यहां-वहाँ की फ़ाकने में उन्हें बहुत मज़ा आता है, कुछ ही बातें सच के करीब होती, और बाक़ी की बातों का तो कोई आधार ही नहीं होता, या यह कहें, बगैर सर-पैर के बातें करने में वे अभ्यस्त है, अतः लोग केवल मज़ा लेने के लिए उन्हें सुनना पसंद करते थे, एक बार की बात है, एक महफ़िल सजी हुई थी और लोगों का आग्रह था कि वे एक गाना सुनाएँ, बात गप्प मारने की होती तो उन्हें कहना नहीं पडता कि कुछ सुनाओ, लेकिन गाना-गाना उन्हें आता ही नहीं था, वे बार-बार अपनी ओर से सफ़ाई दे रहे थे कि गाना-गाना उन्हें सचमुच में नहीं आता, लेकिन लोगों ने ज़िद पकडली थी कि उसे गाना ही होगा, उसने अब दिलेरी दिखाते हुए कहा कि वह केवल एक ही गाना, गाना जानता है और अब उसे सुनाने जा रहा हूँ, वह अपनी सीट पर से उठ खडा हुआ और सावधान की मुद्रा में खडा होकर"राष्ट्र गान" गाने लगा, जैसे ही राष्ट-गान का पहला पद लोगों ने सुना तो हाल में बैठे सभी लोग अपनी-अपनी सीट से उठकर खडे हो गए और उसने साथ आगे की पंक्तियाँ गाने लगे, "राष्ट्र-गान" समाप्त होते ही उसने 'भारत माता कि जय' का जयकारा लगाया और अपनी सीट पर बैठ गया, गया,
लोगों ने तालियाँ पीटते हुए उससे कहा-"वाह भाई वाह, तुम तो अच्छा गा लेते हो,"
तत्काल ही उसने अपनी शर्ट की कालर को ऊँचा उठाते हुए कहा-"भाई अपना ऐसा ही है, जब गाने को उठ खडा होता हूँ तो अच्छे-अच्छे लोग अपनी सीट से उठकर खडॆ हो जाते हैं,"