गिरता रूपया गिरती साख / सत्य शील अग्रवाल

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किसी भी देश की मुद्रा की अंतर्राष्ट्रीय मुद्राओं के सापेक्ष विनिमय दर उस देश की आर्थिक स्थिति की ओर संकेत करती है, अर्थात उस देश की विश्व स्तर पर उसकी साख को प्रदर्शित करती है। जिस प्रकार से भारतीय मुद्रा अर्थात रूपये की कीमत अंतर्राष्ट्रीय मुद्राओं के मुकाबले निरंतर गिरती जा रही है, वह हमारे देश की गिरती अर्थव्यवस्था को इंगित कर रही है। इसी प्रकार जब किसी देश की मुद्रा विश्व सत्र पर विनिमय दर में बढ़ोतरी करती है तो उस देश की बढ़ रही साख, बढ़ रही अर्थ व्यवस्था को प्रदर्शित करती है अर्थात वह देश उन्नति के पायदान पर तेजी से आगे बढ़ रहा है। अतः यह यह एक गंभीर प्रश्न है आखिर क्यों हमारे देश की मुद्रा तेजी से लगातार नीचे और नीचे आ रही है, पिछले तीन माह में ही उसमे 17%का अवमूल्यन हो चूका है और अभी गिरावट लगातार जारी है।

जब किसी देश का आयात, निर्यात से अधिक होने लगता है तो देश को आर्थिक घाटे से गुजरना पड़ता है उस घाटे को पूरा करने के लिए उसे विदेशों से कर्ज लेना पड़ता है। यही व्यापारिक असंतुलन उस देश की मुद्रा का अवमूल्यन करता है। हमारे देश में यही स्थिति आज बन चुकी है अर्थात हम खर्च अधिक कर रहे हैं और आमदनी कम कर पा रहे है। दुसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं की देश को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा, अमेरिकी डॉलर(विश्व में अधिकांश व्यापारिक सौदे अमेरिकी डॉलर में ही होते हैं ), यूरोपियन यूरो, ब्रिटेन का पोंड, जापानी येन इत्यादि की प्राप्ति कम और मांग अधिक है। और सभी विकसित देशों की मुद्राएँ रूपए के मुकाबले महँगी होती जा रही है। आमतौर पर डॉलर की कीमत को आधार मान कर समस्त अध्ययन किये जाते हैं।अतः इस लेख में भी डॉलर को आधार मान कर अपने लेख को आगे बढाया जायेगा।अमेरिकी डॉलर 2007 में 45 रूपए की विनिमय दर पर उपलब्ध था जो गत दिवस यानि 22 अगस्त2013 को 65 रूपए तक पहुँच गया। गत तीन माह में ही इसने करीब 17 %की छलांग लगायी है और अभी भी स्थिर होने के आसार नहीं लग रहे।

रूपए की वर्तमान दुर्दशा के लिए मुख्यतया हमारी केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियाँ ही जिम्मेदार हैं। हम सभी जानते हैं 1991 में हमारे देश की आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर हो गयी थी, की अपने देश की तेल आवश्यकता पूर्ती के लिए खरीदारी करने के लिए विदेशी मुद्रा पंद्रह दिन का भी काम चला पाने लायक नहीं बची थी। और मजबूरी वश रिजर्व बेंक को सोना गिरवी रख कर आवश्यक विदेशी मुद्रा का प्रबंध करना पड़ा था। और तत्कालीन सरकार को भविष्य में आर्थिक कमजोरी से निबटने के लिए अपनी आर्थिक रणनीति बदल कर उदारवादी अर्थ व्यवस्था की घोषणा करनी पड़ी। और सभी विदेशी कम्पनियों के लिए, देश के द्वार खोल दिए गए, उन्हें अपने कारखाने लगाने, व्यापार करने के लिए आमंत्रित किया गया। परिणाम स्वरूप अनेक विदेशी कम्पनियों का आगमन हुआ, विश्व की दिग्गज कम्पनियों ने देश भर में अपने कारखाने लगाये, जिसने देश में डॉलर की आवक को तेजी से बढ़ा दिया और अपने देश के विदेशी मुद्रा भंडार में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। अथाह विदेशी मुद्रा भंडार के चलते सरकार ने आयात की खुली छूट दे दी, सरकारी खर्चे बढ़ा दिए गए। नेताओं ने सरकारी कोष में दौलत को देखते हुए अपने भ्रष्ट कार्यों में वृद्धि कर दी, अर्थात सरकारी खजाने को लूटने के प्रबंध किये। सरकार ने कोई भावी में आर्थिक रणनीति नहीं अपनाई, निर्यात को बढ़ावा देने के पर्याप्त उपाय नहीं किये गए, जिससे देश को भविष्य में मुद्रा की प्राप्ति, निर्बाध रूप से देश की आवश्यकताओं के अनुरूप होती रहे, सही दिशा निर्देशों के अभाव में आयात पर कोई अंकुश नहीं लगाया गया। परिणाम स्वरूप देश में विलासिता पूर्ण सामग्री का आगमन बढ़ गया। विलासिता पूर्ण वस्तुओं से तात्पर्य है ऐसी सामग्री, जिससे भविष्य में कोई आमदनी का जरिया नहीं बढ़ता, जो सामग्री कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाती है जिससे जनता को कुछ समय का लाभ मिलता है, परन्तु दीर्घ कालीन कोई व्यवस्था नहीं बनती, युवाओं के लिए रोजगार के अवसर नहीं बढ़ते। देश को प्राप्त हुई अथाह विदेशी मुद्रा जो हमारी नहीं थी उसका सदुपयोग नहीं किया गया। विदेशी कम्पनियों ने भी अपने उत्पादनों के देश में ही बेच कर लाभ कमाया, अर्थात निर्यात में कोई रूचि नहीं दिखाई और अपना लाभांश निरंतर अपने गंतव्य स्थल पहुंचाते रहे। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुस्तक *रिच डेड -पुअर डेड* के लेखक रॉबर्ट कियोसकी ने अपनी पुस्तक में लिखा है, यदि हम अपनी बचत को ऐसी वस्तुओं को खरीदने में व्यय करते है, जिनसे भविष्य में आमदनी बढ़ने की सम्भावना हो जैसे जमीन-मकान-दुकान अर्थात जायदाद, शेयर, बैंक ऍफ़ डी, सरकारी बांड या व्यापार इत्यादि। तो हमारा भविष्य सुरक्षित हो सकता है। परन्तु यदि बचत को ऐसी वस्तुएं खरीदने में लगा देते है जिनसे या तो खर्चे बढ़ जाते है, या खर्च किया धन कुछ समय पश्चात् समाप्त हो जाता है जैसे कार (महँगी कार ), इलेक्ट्रोनिक उत्पाद, महगी खाद्य वस्तुएं, दैनिक उपयोग के प्रसाधन, खिलौने इत्यादि, तो भविष्य के खर्चे पूरे होने की सम्भावना भी कम हो जाती है। उपरोक्त उक्ति देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी उतनी ही कारगर है। यदि हमारे देश में आ रहे विदेशी मुद्रा के प्रवाह को समय रहते रोजगार परक कार्यों में लगाया गया होता, विदेशी धन का उपयोग नए उद्योग लगाने, नयी मशीनरी लाने, देश का इन्फ्रास्ट्रक्चर मजबूत करने अर्थात सड़कें बिजली पानी जैसे जनउपयोगी कार्यों पर खर्च किया होता, निर्यातकों को प्रोत्साहन देने के लिए नियम बनाये जाते, सरकारी खर्चों की सीमा रखी जाती, भ्रष्टाचार को नियंत्रित किया जाता(भ्रष्टाचार से विदेशो में साख बिगडती है और विदेशी अपना पैसा देश में लाने से कतराते हैं) तो अवश्य ही देश की जनता को आज के हालातों का सामना नहीं करना पड़ता। अतः भारतीय मुद्रा की वर्तमान स्थिति के लिए केंद्र सरकार की नीतियाँ जिम्मेदार हैं।

रूपए की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कीमत कम होने के कारण, देश में पेट्रो उत्पाद यानि पेट्रोल, डीजल, गैस इत्यादि महंगे हो जायेंगे जिससे आवागमन महंगा हो जायेगा और वस्तुओं की कीमतें बढेंगी, खाद्य तेल जिसका काफी बड़ा हिस्सा आयात करना पड़ता है, वह महंगा हो जायेगा, विदेश में पढने वाले विद्यार्थियों के अभिभावकों के लिए पढाना महंगा हो जायेगा, स्थानीय उत्पादन इकाइयाँ जो विदेशी कच्चे मॉल पर निर्भर हैं उनके उत्पाद जनता को महंगे मिलेंगे, किसानों को खाद महँगी मिलेगी जिससे कृषि उत्पादों की कीमत पर असर पड़ेगा।अतः रूपए की कीमत का गिरना जनता के लिए अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न करेगा।(SA-119C)