गिरते हैं शहसवार ही, मैदान-ए-जंग में / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 08 अप्रैल 2021
महामारी के आणविक बम के आर्थिक विकिरण प्रभाव सभी जगह नजर आ रहे हैं। समुद्र के किनारे बैठा बगुला आंखें मूंद लेता है और मान लेता है कि तूफान गुजर गया। उद्योग-धंधे चौपट हो गए हैं। दवा बनाने वाले अधिकांश ठिकाने बंद पड़े हैं। तंग गलियों में पनपने वाले, घटिया दवाएं बनाकर लाभ कमा रहे हैं। डॉक्टर और दवा पर विश्वास होने पर मरीज शीघ्र सेहतमंद हो जाता है। ऊपर वाले पर विश्वास करने पर उसका आशीर्वाद मिल जाता है। लेकिन शंका बनी रहती है, ‘आसमां पर है खुदा और जमीं पर हम, आजकल वो इस तरफ़ देखता है कम।’
अंग्रेजी कवि कीट्स, कम वय में चले गए। हमारे महाकवि जयशंकर प्रसाद गंगा के घाट पर दंड बैठक लगाते रहे। 40 की अवस्था के आसपास एक साधारण से रोग ने उनके प्राण ले लिए। इस बीमार विचार में कोई दम नहीं कि छोटे रोग बार-बार होने पर काया मजबूत हो जाती है। यह मिथ्या है। जयशंकर प्रसाद, सुंघनी साहू संपन्न परिवार के सदस्य रहे। अक्षय कुमार और कटरीना कैफ जैसे अनुशासित कलाकार, जो निरंतर कसरत करते रहे, ऑर्गेनिक ढंग से उपजाए भोजन सीमित मात्रा में करते रहे वे भी संक्रमित हो चुके हैं। इलाज जारी है। शुभ संकेत आ रहे हैं। यूनिट के संक्रमित 40 लोगों का उपचार भी चल रहा है। प्राय: ऐसे लोग व्यवस्था संचालित अस्पताल में ले जाए जाते हैं।साधनहीन व्यक्ति अपने एकमात्र गरम कोट के किसी जगह से फट जाने पर वहां पर पैबंद लगा लेता है। समय बीतने पर गरम कोट पर पर पैबंद ही लग जाते हैं। अमिया चक्रवर्ती की फिल्म ‘पतिता’ में मुख्य पात्र मस्तराम, पैबंद वाला कोट पहनता है। आग़ा अभिनीत फिल्म में देवानंद और उषा किरण भी थे। शंकर जयकिशन की मधुर धुनों के लिए शैलेंद्र ने गीत लिखे। गीत की एक पंक्ति है, ‘मिट्टी से खेलते हो बार-बार किसलिए, टूटे हुए खिलौनों से प्यार किसलिए..।’. बड़ी दिलासा दी गई है कि मौत केवल वस्त्र बदलकर नया वस्त्र (जन्म) लेने की तरह है। ‘तेरे दामन का एक तार ही बहुत है, चाक जिगर सीने के लिए।’ महामारी के कारण दामन का तार नहीं मिल रहा है।
महामारी के पहले ही जी.डी.पी को माइनस 23 आंका गया था, परंतु एक मान्यता प्राप्त अंतरराष्ट्रीय संस्था का कहना है कि आगामी समय में जीडीपी प्लस 12 तक जा सकती है। भारत सचमुच में ‘कांटिनेंट ऑफ सिरसे’ है।
हमारे देश में मानसिक चिकित्सा करने वाले डॉक्टरों की संख्या बहुत कम है। लोकप्रिय परंतु गलत बात यह है कि पागल हो जाने वाले व्यक्ति को मनोचिकित्सक से परामर्श लेने जाना होता है। दरअसल हम सबको मनोचिकित्सक से मदद लेनी चाहिए। महामारी ने हमारा आत्मविश्वास तोड़ दिया है। चारों ओर धुंध ही धुंध नजर आती है। ‘नफरत है निगाहों में ये कैसा जहर फैला दुनिया की हवाओं में, वहशत ही वहशत है सारी फिजाओं में।’ आम आदमी को डर से मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए। शारीरिक कसरत, मांसपेशियों के साथ ही मन के बल को भी बढ़ाती है।
आंखें बंद करके शून्य का निर्माण करने का प्रयास किया जा सकता है। शून्य में स्वयं को सशरीर पहुंचाया जा सकता है। शून्य, विराट होकर अंतरिक्ष में बदल जाता है। इसका असफल प्रयास भी सहायता कर सकता है। कम से कम इस क्षेत्र में तो सफलता की कामना को छोड़ा जा सकता है। हम घोड़े नहीं है, जीवन भी रेसकोर्स नहीं है। आणविक विकिरण के प्रभाव भी सदियों तक बने रहते हैं। आर्थिक ध्वंस नियंत्रित हो सकता है यह 90 वर्षीय चक्र है।
आम आदमी को मानसिक संतुलन बनाए रखने के जतन करते रहना होंगे। इस क्षेत्र में बैसाखियां नहीं होतीं। आम आदमी की मज्जा बहुत मजबूत है। सदियों के असमान संघर्ष ने हमें यह मजबूती दी है। गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में, वो तिफ़्ल क्या गिरे जो घुटनों के बल चले।