गिरीश चंद्र तिवाड़ी 'गिर्दा' / महेश चंद्र पुनेठा

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कितना मुश्किल है किसी शख्स का ’गिर्दा‘ होना
लेखकः महेश चंद्र पुनेठा

कवि-रंगकर्मी लोकगायक गिरीश चंद्र तिवाड़ी ‘गिर्दा’ के व्यक्तित्व और उनके आंदोलनकारी रूप पर तो खूब चर्चा होती रही है पर उनके साहित्य पर कम ही। गिर्दा एक ऐसे कवि थे जिनके जीवन और कविता के बीच फाँक नहीं थी। उनकी कविताओं में वही जीवन व्यक्त हुआ जो उन्होंने देखा और भोगा। गिरदा के लिए लिखना सामाजिक सरोकारों से जुड़ा रहा।

उनकी कविता की एक पंक्ति है-

कुछ नहीं होता है लिख देने भर से खाली किताबें।
उसको व्यवहार में उतारना जरूरी है।

उनकी स्पष्ट मान्यता रही-

मुक्ति चाहते हो तो आओ जन संघर्षों में कूद पड़ो
याद रखो बंधन सदियों के अपने आप नहीं टूटेंगे
तेरे-मेरे गर्दन से जालिम के हाथ नहीं छूटेंगे
उन्हें यह बात जीवन भर बहुत सालती रही कि-
प्यासा पानी रहा उम्र भर
कि आग को आग न लग पाई ।

उन्होंने कभी भी कवि कहलाने के लिए कविता नहीं लिखी। कवि कहलाना कभी उनका ईष्ट नहीं रहा। जब कभी जनता के कष्टों-दुखों-परेशानियों ने बेचैन किया या फिर उसके हर्ष-उल्लास और प्रकृति के सौंदर्य ने प्रफुल्लित किया तब कविता फूटी।

उन्होंने कविता का खनिज दल और औजार जनता से ही लिये और उसे ही लौटा दिए जैसा कि वे स्वयं एक कविता में कहते भी हैं-

जन से लिया
मन से मंथन किया
फिर जनता को ही लौटा दिया

इसलिए उनकी कविता पहाड़ी जन की तरह सरल-सहज एवं और उसकी प्रकृति की तरह निष्कपट है। उनकी कविता जन के कंठ में बस जाने वाली कविता है-

जिसको जन ने सुना
जन ने गाया।

वह जन के मन में बस उसके कंठों से फूट पड़ती है। उसमें सड़कों में गाए जाने की खासियत हैं।यही कारण है उनकी कविता उत्तराखंड के हर आंदोलन की गवाह रही है। वह चाहे चिपको आंदोलन हो ,नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन हो या पृथक राज्य का आंदोलन या फिर नदी बचाओ आंदोलन हो। जनता के कंठ में बस जाने का यही गुण था जिसके चलते कभी कवि को इस बात की आवश्यकता महसूस नहीं हुई कि अपने कविताओं का कोई संग्रह प्रकाशित किया जाय। वे जन की व्यथा जन को ही सुनाते रहे।

कवि शमशेर सिंह ने मलय से अपनी एक बातचीत में कवियों की तीन कोटियाँ गिनाई। पहली कोटि में वे कवि हैं जो सामान्य जनता के लिए लिखते हैं । दूसरी कोटि में वे कवि आते हैं जो अपने व्यक्तित्व के विशिष्ट स्तर को अपने काव्य का केंद्र समझते हैं ,लेकिन अपने प्रत्येक विकास-क्रम और तत्संबंधी अनुभूतियों में वे पूर्णतःईमानदार हैं।तीसरी कोटि में वे महान कवि आते हैं जो व्यक्तिगत रूप से विशिष्ट होते हुए भी सामान्य जनता तक पहुँच रखते हैं। इस वर्गीकरण की दृष्टि से गिरदा पहली कोटि के कवि हैं।

गिर्दा इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि अभिव्यक्ति के माध्यमों पर एक खास वर्ग का अधिपत्य है। इनका इस्तेमाल वह अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए करता है और सत्ता की मदद करता है। वह जनता का दुश्मन है । वह इन माध्यमों का उपयोग जनता में उन्माद या भ्रम फैलाने के लिए करता है । ऐसे में उनका मानना था कि हमें जनता को जागरूक करने के लिए अपने माध्यमों का प्रयोग करना चाहिए- कि हमें अब कविता लिखनी ही होगी। यहाँ यह स्पष्ट हो जाता है कि वे कविता क्यों रचते थे ? उनके लिए कविता का कार्यभार क्या है?

वे ऐसी कविता लिखना चाहते थे - जो जीना सिखा सके ......जो मरना सिखा सके ......जो लड़ना सिखा सके ......जो प्यार करना सिखा सके। अर्थात ऐसी कविता जो जीवन के प्रति एक उल्लास पैदा कर सके ,जो जीवन की कठिनाइयों से लड़ने की ताकत प्रदान कर सके ,जो अन्याय-अत्याचार-उत्पीड़न के खिलाफ प्रतिरोध करने का जज्बा पैदा करे ,उनके लिए यही कविता के कार्यभार थे जो केवल कहने मात्र तक सीमित नहीं थे। उनकी कविता ने हमेशा इन कार्यभारों का निर्वहन किया और आज भी कर रही है।

वे जनता की शक्ति पर विश्वास करने वाले कवियों में हैं । उनका मानना था कि जनता यदि जाग जाती है तो सत्ता के मजबूत से मजबूत किले भी ढह जाते हैं । कोई भी सरकार जन विरोधी होकर अपनी सत्ता अधिक दिनों तक नहीं बचाए रख सकती है भले उसके पास कितनी ही बड़ी सेना हो-

सुरक्षित रख सकेंगे वो
अपनी जन विरोधी राजनीति को
षडयंत्री संसद के घेरे में
सेना की छावनी में
पुलिस के तंबू में ,डेरे में
झंडों और टोपियों के हेरे-फेरे में
आखिर कब तक सुरक्षित रह सकेंगे वो

यह जनता पर कोरा विश्वास ही नहीं बल्कि उनका गहरा इतिहासबोध भी है।

जनकवि गिर्दा की कविताओं में आशा अंतःसूत्र की तरह निहित हैं । समाज-परिवर्तन के प्रति उत्कट आस्था व आशा ही थी जिसने उनसे फैज की ’ यब्का वजह-ए-रब्बका‘ का भावानुवाद कुमाउँनी और हिंदी में करवाया उस दिन की कल्पना में-

जिस दिन ये जुलुम के भारी पहाड़
रूई की तरह उड़ जाएंगे
भूखों के नंगे पांव तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और तख्तनशीनों के सर पर
जब बिजली कड़-कड़-कड़केगी
.....राज करेगी ये जनता।

भले गिर्दा वह दिन नहीं देख पाए पर उस दिन की आशा का गीत शोषितों-उत्पीडि़तों को जीने की ताकत हमेशा-हमेशा देता रहेगा। यही आशा उनकी ’जैंता ,एक दिन तो आलो‘ कविता में व्यक्त होती है जिसमें उनका विश्वास है कि वह दिन एक दिन जरूर आएगा ,जब कोई छोटा-बड़ा न होगा ,अन्याय-अत्याचार न होगा ,सब समान रूप से सुखी होंगे। भले वह दिन हमारे जिंदा रहते-रहते नहीं आ सके पर आएगा जरूर। समतावादी समाज की आकांक्षा उनकी रग-रग बसी थी जो फाग बनकर आज भी हमारे कानों में गूँज रही है।

गिर्दा गगन-बिहारी कवि नहीं थे उनकी जड़ें अपनी जमीन में गहरे तक पैठी थी । वे हमेशा अपनी जनता एवं उसके संघर्षों के बीच रहे। मरने तक अलग नहीं हुए। उनकी कविताओं में पहाड़ी जनजीवन उनके कष्ट उनकी प्रकृति दिखाई देती है। उसकी व्यथा को अपना स्वर प्रदान करती है। पहाड़ के पर्यावरण और उसके संसाधनों की लूट कर रहे लोगों के प्रति आक्रोश इनकी कविता में फूट पड़ता है। जल-जंगल-जमीन के लिए होने वाली लड़ाइयों में उन्होंने पर्यावरण और राजनैतिक चेतना पैदा करने वाली रचनाएं दी। उन्हें अपने जन और अपनी मिट्टी से गहरा लगाव ही नहीं बल्कि गर्व भी था कि

इस सुदूर पहाड़ी गाँव में जन्मा ठेठ पहाड़ी हूँ मैं
कि मेरे रोम-रोम में हिमालय की मिट्टी बसी है
कि शीश मेरा चूमता है आसमान और
मेरी गोद में खेलती हैं पर्वत श्रृंखलाएं।

ये पंक्तियाँ वे उस समय लिख रहे थे जब प्रवास में गए लोग अपने पहाड़ी होने की पहचान छुपाना चाह रहे थे।‘पहाड़ी’ शब्द का प्रयोग ‘गए-गुजरे’ के अर्थ में किया जाता था। इन पंक्तियों को पढ़ते हुए ’ दागिस्तान‘ के मसहूर कवि रसूल हमाजातोव का यह कथन याद हो आता है-निश्चय ही हम कवि सारी दुनिया के लिए उत्तरदायी हैं ,मगर जिसे अपने पर्वतों से प्यार नहीं ,वह सारी पृथ्वी का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। इस रूप में गिरदा सारी पृथ्वी का प्रतिनिधित्व करने वाले कवि हैं। वे पृथ्वी के जन-जन से प्रेम करने वाले कवि हैं क्योंकि उन्हें पता है- दिल दुखाने में कुछ नहीं लगता/ दर्द जाने में वक्त लगता है। वे प्रेम की तड़फ को बढ़ाने वाले कवि हैं-

बिना कहे भी सब जाहिर हो जाता है पर
कहने पर भी कुछ रह जाना क्या कहने हैं
अभी अनकहा बहुत-बहुत कुछ है हम सब में
इसी तड़फ को और बढ़ाना क्या कहने हैं।

वास्तव में गिर्दा को अपनी जन ,समाज और प्रकृति से गहरा प्रेम था , इसलिए ही अपने जन के दुःख-दर्द ,हर्ष-उल्लास उनकी कविताओं के विषय बने। उन्होंने अपने आसपास से कविता के विषय उठाए और यह कह पाए-शांत हिमालय धधक रहा है दुष्टों की करतूतों से/अस्त-व्यस्त है जन-जीवन/इस तस्कर तंत्री भूतों से। इस तरह उनकी कविता उन दुष्टों का पता भी बाताती हैं जो हिमालय के धधकने-दरकने-टूटने तथा उसके जनजीवन के अस्त-व्यस्त होने के लिए जिम्मेदार हैं। पर वे केवल उत्तरखंड या हिमालय तक अपने आप को सीमित नहीं रखते हैं उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान लिखी उनकी ये पंक्तियाँ गवाह हैं-

उत्तराखंड की
आज लड़ाई यह जो
हम लड़ रहे हैं सभी
सीमित हरगिज उत्तराखंड तक
इसे नहीं/साथी !समझो
यदि संकुचित हुआ कहीं
तो भटक लड़ाई जाएगी
इसीलिए
खुले दिल औ ‘दिमाग से
मित्रो !लड़ना है इसको।

यह उन लोगों को चेतावनी है जो क्षेत्रवाद को बढ़ावा देते हैं। आज भी इस तरह के स्वर सुनाई दे रहे हैं जो उत्तराखंड को केवल पहाडि़यों के लिए आरक्षित कर देना चाहते हैं। जैसे ठाकरे महाराष्ट्र को मराठियों के लिए। गिरदा जानते थे कि यदि लड़ाई क्षेत्रवाद तक सीमित होकर रह जाएगी तो कभी भी समतावादी समाज की संकल्पना संभव नहीं हो सकती है। वे जानते थे कि जब तक वर्ग विभाजित समाज रहेगा तब तक शोषण और उत्पीड़न का अंत नहीं हो सकता है। वर्गीय समाज ही शोषण-उत्पीड़न का मुख्य कारण है। गिर्दा की वर्ग दृष्टि अपलक ओर जाग्रत थी। वे समाज के वर्गीय स्वरूप को अच्छी तरह समझते थे और आजीवन उस वर्ग के प्रति प्रतिबद्ध रहे जो श्रम से जुड़ा है। उनकी कविता उस लोहार की दास्तान कहती है जो एक-एक धमनी , एक-एक शिरा झोंक देता है आँफर में लोहा पीटते हुए ,उस जुलाहे के बारे में जो हाथ-पाँव दोनों एक कर देता है कपड़ा बुनते हुए ,उस दर्जी के बारे में जो अंगुली काट लेता है कपड़ा काटते हुए ,आँखें फोड़ लेता है कपड़े सीते-सीते। इसी तरह के तमाम उन लोगों के बारे में जो हमारे जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक वस्तुओं का निर्माण करते हैं ,जिनके रहते हमारा जीवन सुविधाजनक हो पाता है। गिर्दा अपनी कविता में इस तरह श्रम की महत्ता को रेखांकित करते रहे। उनकी कविता ओढ़-वारुडि़-ल्वार-कुल्ली-कभाड़ी की आशा-आकांक्षाओं और ताकत की कविता है।

गिरदा उस हर समसामयिक घटना को कविता का विषय बनाया जो जनमन को उद्वेलित करती थी। गणेश की मूर्ति का दूध पीना हो , रामभक्तों की कार सेवा या फिर अन्य कोई राजनीतिक-सामाजिक घटना उनकी कविता की अंतर्वस्तु बनी। वे कविता के द्वारा अपना हस्तक्षेप दर्ज करते थे। इस रूप में वे नगार्जुन की परम्परा को आगे बढ़ाते हैं। उनकी कविता जनता को खबर भी देती थी और खबरदार भी करती। जैसा कि हम ऊपर कह आए हैं गिर्दा कविता से खबर पहुँचाने का काम भी लेते रहे उत्तराखंड आंदोलन में ‘नैनीताल समाचार’ की ओर से आयोजित उत्तराखंड बुलेटिन में कविता के द्वारा यह कार्य लेते रहे। कविता को उन्होंने जन संवाद का माध्यम बनाया। दरवाजा खटखटा कर सूचना देने जैसा अंदाज है उनकी कविता का। एक बानगी देखिए -

हैलो ! खबर है तुम्हें
वो चम्मच से दूध पी गया
गणपति बप्पा मोरिया
बप्पा गणपति मोरिया...और मधुर मीडिया
’नारद‘ को भी मात कर गया ......पर बलि जाऊँ दैनिक छापा
औरी-और बात कर गया।

क्या अद्भुत अंदाज है यह! इसमें सूचना भी है और व्यंग्य भी।ऊपर से देखने में ये विशुद्ध-सीधी-सपाट खबर सी लगती हैं पर थोड़ा ठहरकर पढ़ें तो उसकी व्यंजना समझ में आती है।पूँजीवादी मीडिया की भूमिका को उघाड़कर रख देती है यह कविता। उनकी कविताएं ’जन सरकार‘ पर कभी सीधी चोट तो कभी व्यंग्य करती है। उन्तीस जून सन् 1984 में गरमपानी में हुई भूस्खलन की घटना पर आपदा की त्रासदी और सरकारी रवैए पर उनकी कविता ,’ हमरे बच्चे सोए चार ‘ में देखिए-

कितने जनगण गाड़ बग गए?
कितने गौं-घर घाट लग गए ?
कितने भागीरथों के सर से गुजरी गंगा की धारा?
तुम क्या जानो तुम तो ठहरे भारत की सरकार ।

कविता में आगे सरकार के हृदयहीन रवैए को रेखांकित किया गया है-

कौन बड़ी यह बात हो गई?
कुछ ज्यादा बरसात हो गई
कुल्ल मरे हैं चार ,मचाते खाली हा-हा कार।

मौजूदा राजनीतिक माहौल पर उनकी ये पंक्तियाँ कितनी सटीक हैं-

पक्ष-विपक्ष या दैंण कि बौं हो
सबना का एक नस्सै हाल...
हमारा तौ गिज अगास लागिया
उनरा गलड़ा भया लाल।

जनता के पक्ष में खड़ा कवि ही ऐसी पंक्तियाँ लिख सकता है। वे भूख-उदासी-अभाव-शोषण के लिए जिम्मेदार तंत्र की ओर सीधे-सीधे अंगुली कर जनता को बताते हैं-

पानी बिच मीन पियासी
खेतों विच-भूख-उदासी
ये उलटवासियाँ नहीं कबिरा
खालिस चाल सियासी।

गिर्दा की दृष्टि में किसी तरह का भ्रम नहीं था।वे केवल विसंगतियों-विडंबनाओं-समस्याओं-गड़बडि़यों का चित्रण ही नहीं करते बल्कि उनके लिए जिम्मेदार कारणों को भी साफ-साफ बताते हैं इतना ही नहीं इनसे मुक्ति का रास्ता भी दिखाते हैं जो एक जनवादी कवि की विशेषता है। गिर्दा कहते हैं-

तमाम व्यक्तिगत असफलाताओं के बाद
अंतिम सफलता के लिए
अब तो
तुम्हें-हमें संगठित हो ही जाना चाहिए।

क्योंकि वे इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि .-

अकेली लकड़ी
या तो बुझ जाती है
या राख हो जाती है
सुलग-सुलगकर।

गिर्दा को मुक्ति की राह को लेकर किसी तरह का कोई संशय नहीं रहा। मुक्ति की रहा अकेले नहीं पार की जा सकती है उसके लिए संगठित होकर संघर्ष करना जरूरी है। यह एक वैज्ञानिक एवं प्रमाणिक तरीका है।

गिरदा की कविता हमें खबरदार भी करती है और होशियार भी और लगातार सोचने के लिए प्रेरित भी। उनकी कविताओं में ’सोचो तो‘ शब्द-बंध बार-बार आता है। वे हमारा ध्यान अपने परिवेश की छोटी-छोटी वस्तुओं-स्थितियों और घटनाओं की ओर खींचते हुए उन पर गहराई से सोचने के लिए प्रेरित करते हैं क्योंकि देखने मात्र से हम यर्थाथ तक या उसके सारतत्व तक नहीं पहुँच पाते हैं उसके लिए चिंतन-मनन और विश्लेषण करना जरूरी है-

सोचो तो इक बार कौन इस सबका जिम्मेदार ?
करें हम ठीक-ठीक कहाँ पर वार
मिले जो इन सबसे निस्तार।

’छतरी या बारहमासा ‘ कविता में वे प्रश्न करते हैं-

सोचा है?
कुछ ऐसे लोगों के बारे मे
जिनके कर्मों से
छाता जन्मी होगी
जिसे आज आप ओढ़ा रहे हो बच्चे को
क्या छाता
छाता कैसे बना
यह भी बता रहे हो?

कवि भविष्यदृष्टा भी होता है वह उन संघर्षशील ताकतों को भी साफ-साफ देख लेता है जो व्यवस्था परिवर्तन के वाहक होते हैं-

समय केगर्भ में हैं संतति
जिसके हाथों में है अग्नि
जिसके आँखों में उजाला है।

गिरदा वस्तुओं को केवल उपयोग या उपभोग की दृष्टि से ही न देखकर उसमें निहित मानवीय श्रम एवं सहयोग की दृष्टि से भी देखते हैं। उनकी कवि-दृष्टि चीजों को देखते हुए वहाँ पहुँच जाती है जहाँ से उसकी उत्पत्ति हुई या उसका प्रस्थान बिंदु है। जैसे जलेबी को देखते हैं तो उसके बाहरी रूप-रंग या स्वाद तक ही सीमित नहीं रह जाते हैं बल्कि वहाँ पहुँच जाते हैं जब पहली जलेबी बनी थी। उसकी पूरी रचना-यात्रा कवि की कल्पना में साकार हो उठती है -

मैं डूब जाता हूँ
तब ,जब आदमी ने धरती से गेहूँ
गेहूँ से आटा आटे से मैदा
और मैदे से ......नहीं ,नहीं , इतना ही नहीं
धरती से ईख ,ईख से शक्कर
शक्कर से शक्कर घोला
नहीं ,नहीं ,इतना ही नहीं
इससे भी पहले धरती से लोहा
लोहे से चासनी चासनी में
और भी कई चीजें
कि कई-कई यात्राएं की होंगी
कितना जरूरी है चीजों का होना
तब जाकर बनी होगी पहली जलेबी।

इस तरह हम देखते हैं कि कवि का देखना कितना गहरा और भिन्न होता है वह जलेबी को देखते हुए केवल जलेबी को नहीं देख रहा होता है बल्कि जलेबी बनने की प्रक्रिया और उस प्रक्रिया में सहयोगी अन्य वस्तुओं और उनकी उत्पत्ति को देखने लग जाता है। यही बात हमें उनकी ’छतरी और बारहमासा ‘ कविता में भी दिखाई देती है। वे दूसरों से भी इस तरह देखने का आग्रह करते हैं। ऐसा करते हुए वे जीवन में सहयोग और सामूहिकता के महत्व को रेखांकित करते हैं क्योंकि वे जानते हैं-

कितना जरूरी है
होना एक साथ
पत्थर और पानी का
झरना होने के लिए।

इन पंक्तियों से यह निकलकर आता है कि कोमल और कठोर ,मीठे और कड़वे अर्थात विपरीतों के सामंजस्य का होना जीवन के अस्तित्व और सुंदरता के लिए जरूरी होता है।

उनकी कविताओं में ग्राम-गंध से भरपूर हैं जहाँ गाँव की प्रकृति,जनजीवन और मुश्किलें जीवंत हो उठती हैं। इस दृष्टि से ‘सावनी साँझ’ कविता इतनी विशिष्ट है कि इसको यहाँ पूरा देना ही उचित होगा -

सावनी साँझ आकाश खुला है
ओ हो रे ओ दिगौ लाली.....
छानी खरिकों में धुआँ लगा है ,ओ हो ....
थन लागी बाछी की गै पंगुरी ह
द्वी-द्वाँ ,द्वी-द्वाँ दुधी धार छुटी है
दुहने वाली का हिया भरा है
ओ हो रे मन धौ धिनाली
ओ हो...
श्किल से आग का चूल्हा जला है
गीली है लकड़ी कि गीला धुँआ है
साग क्या छौंका कि गौं महका है
ओ हो रे गंध निराली
छानी-खरीकों में धुँआ लगा है
ओ हो ये साँझ निराली
काँसे की थाल सा चाँद टँका है
ओ हो ये साँझ जुन्याली
जौल्याँ मुरली का ‘सोर’ लगा है
आइ-हाइ ये लागी कुतक्याली
ओ हो रे ओ दिगौ लाली।

इस कविता में अपने आस-पास को पाँचों इंद्रियों से ग्रहण कर व्यक्त किया गया है इसलिए रूप-रस-गंध-ध्वनि-स्पर्श सभी कुछ यहाँ मौजूद हैं। ग्राम जीवन और प्रकृति के प्रति ऐसा उत्सव और उल्लास का स्वर बहुत कम कवियों के यहाँ मिलता है। नागार्जुन की कविताओं सा। नागार्जुन की ग्राम जीवन पर लिखी कविताएं याद हो आती हैं। इन कविता में गाँव के प्रति गहरा अपनापा दिखता है। पढ़ने वाले के आँखों के सामने गाँव का दृश्य तैरने लगता है। प्रवास में रहने वाले के आँखों में तो आँसू ही छलक आएंगे।

गिरदा को जीवन की गहरी और व्यापक समझ थी । उनकी कविता पाठक-श्रोता को आंदोलित ही नहीं करती है बल्कि ठहरकर सोचने-समझने के लिए भी प्रेरित करती है। ’कैसा हो स्कूल हमारा ‘ उनकी ऐसी ही कविता है जिसमें हमें उनकी शिक्षा और बालमन की गहरी समझ के दर्शन होते हैं। कोई शिक्षाविद ही इतनी सूक्ष्मता से देख और समझ सकता है। वे बच्चों पर शिक्षा का अतिशय बोझ डालने और भय पैदा करने के खिलाफ हैं ,उनका मानना है - जहाँ न बस्ता कंधा तोड़े .....जहाँ न पटरी माथा फोड़े .....जहाँ न अक्षर कान उखाड़े ,ऐसा हो स्कूल हमारा । उनके अनुसार स्कूल एक ऐसा स्थल होना चाहिए -

जहाँ न मन में मुटाव हो
जहाँ न चेहरों में तनाव हो
जहाँ न आँखों में दुराव हो
जहाँ न कोई भेद-भाव हो।

जिस दिन स्कूल ऐसे स्थान बन पाएंगे उसी दिन हमारा समाज अलगाव-दुराव ,तनाव-मुटाव तथा भेद-भाव से मुक्त हो पाएगा। क्या हमारे स्कूल ऐसे स्थल के रूप में विकसित हो पाए हैं ? यह कविता इस महत्वपूर्ण प्रश्न को खड़ा करती है। हमारे शिक्षा संबंधी दस्तावेज आज इस बात को बड़े जोर-शोर से कह रहे हैं -विद्यालय बने आनंदालय जहाँ बच्चे भयमुक्त वातावरण में ज्ञान का निर्माण करें। विषय को रटने के स्थान पर समझने की कोशिश करें। माहौल दोस्ताना और चहल-पहल भरा हो। इस अवधारणा को गिरदा की ये दो पंक्तियाँ बहुत सुंदर तरीके से व्यक्त कर देती हैं-जहाँ फूल स्वाभाविक महके.....जहाँ बालपन जी भर चहके -ऐसा हो स्कूल हो हमारा। ऐसा वही कवि कह सकता है जिसको बच्चों से सचमुच प्रेम हो और उनके मन गहरी पकड़।

गिरदा के काव्य की भाषा किताबी नहीं है ,जनता से सीखी हुई है जो उसके प्यार से ,उसकी पीड़ा से और उसके संघर्षों बनी है। उनका मानना भी रहा है-प्यार ,पीर ,संघर्षों से भाषा बनती है। उन्होंने लोक से बहुत कुछ ग्रहण किया। अपनी कविताओं में लोकधुनों ,लयों और टेकों का कुशलता से उपयोग किया। नए प्रयोग किए। लोक पर्वों-लोक उत्सवों उनसे जुड़े लोक गीतों का जनचेतना के प्रसार के लिए जैसा प्रयोग गिर्दा ने किया वैसे उदाहरण कम ही मिलते हैं । होली गीतों का प्रयोग सत्ता की काली करतूतों उघाड़ने तथा उसके चरित्र पर व्यंग्य करने के लिए जिस तरह से किया वह अद्भुत है। लोक आख्यानों एवं लोक मान्यताओं को अपनी कविताओं का कथ्य बनाया। पर ऐसा करते हुए कहीं भी अंधविश्वास या रूढि़वादिता के शिकार नहीं हुए हैं। उनकी कविताओं का अपना एक अलग मुहावरा है जिसे ठेठ कुमाउँनी मुहावरा कहा जा सकता है। सच्चे अर्थों में इन्हें लोकधर्मी कहा जा सकता है। यहाँ इतने अनछुए और ताजे रूपक-प्रतीक-बिंब है कि उनको पढ़ते हुए मन प्रसन्न हो जाता है। प्रकृति से निकटता और आत्मीयता ही इतने ताजगी भरे ,अनछुए और जीवंत बिंबों को रच सकती है। उनके प्रकृति की खासियत है कि वह निर्जन नहीं है श्रम करता आदमी वहाँ हर जगह दिखाई देता है जिसकी उपस्थिति में प्रकृति और अधिक संुदर हो उठती है। ’खुल गई दिशाएं‘, ’साँझ‘, ’बसंत‘ जैसी कविताएं उनके प्रकृति प्रेम को प्रकट करती हैं। एक दृश्य यहाँ देखा जा सकता है-

दिशाएं धुल गई
कि रात ने प्रभात को जन्म दे दिया
कि पूर्वा क्षितिज पर प्रकाश मानो पिघलता हुआ फैल रहा है
कि ओर से धुली धरती की माँग में सूरज ने किरणों का गुलाल भर दिया है.....।

सच्चे अर्थों में इन्हें कथ्य और शिल्प में लोकधर्मी कहा जा सकता है। संवेदना और विश्वदृष्टि,दोनों में ही वे जनोन्मुखी रहे। उन्होंने कविता को हमेशा जनसंघर्ष के हथियार के रूप में तथा व्यवस्था पर चोट करने के लिए प्रयोग किया। उन्होंने मंच से भी कविताएं पढ़ी लेकिन उनका तेवर हमेशा तीखा ही रहा। एक जनकवि की यह खासियत भी होती है।

इन तरह गिरदा की कविता में लौकिक मनुष्य, अपने समय का समग्र समाज और विराट प्रकृति मिलती है। वह क्रियाशील जीवन, प्रकृति और समाज को गहराई से समझते हैं। उनकी कविता अपने आस-पास का जीवित चित्र है। अपने जमीन के लोगों की क्रियाशीलता और इच्छा-आकांक्षाओं को कहती है। इसमें अनुभव की समृद्धि है। उनकी कविता संघर्षशील लोगों को साहस और भरोसा देती है। एक विजन प्रदान करती है। सच्चा कवि वही होता है जो विसंगतियों-अन्यायों से एक यो़द्धा की तरह जूझता है। उनसे संघर्ष करता है। व्यवस्था में परिवर्तन करना चाहता है। वे हवा का रुख देखकर शब्द नहीं उच्चारते थे। कुलीनता के सारे बंधन तोड़ते हैं। उनकी कविताओं में समाजिक यर्थाथ मुखर और प्रतिरोध की धार पैनी है । विशुद्ध नवीनता जैसी किसी अवधारणा में गिरदा का विश्वास नहीं रहा। उन्हें जहाँ जनता का पक्ष रखने के लिए जरूरत होती थी अपने पुरखे कवियों से भाव भी लेते और भाषा-शिल्प भी। उन्होंने गौर्दा ,फैज ,नागार्जुन, गोरख से बहुत कुछ सीखा और अपनी जनता की बात सशक्त रूप से कही। वे अपने समाज और अपनी परम्परा से गहरे तक जुड़े थे। भले उन्होंने अन्य कवियों से भाव ग्रहण किए परंतु उसको अपना बनाकर प्रस्तुत किया अपनी तरह से। गिरदा की बहुत सारी कविताएं तात्कालिक घटनाओं के प्रति त्वरित प्रतिक्रिया की तरह हैं जो काव्यात्मकता की कसौटी में भले खरे न उतरती हैं पर अपने कथ्य में महत्वपूर्ण हैं। इसका कारण है कि उन्होंने कभी कविता उस तरह से नहीं लिखी जैसे कोई पूर्णकालिक कवि लिखता है। वे कोलाहल को गीत और गीतों से कोहराम मचाने वाले कवि रहे। कवि कहलाने के लिए कविता लिखना तो उनकी फितरत में ही नहीं था।

अंत में उन्हीं की एक कविता जो उन्होंने हंसराज ’रहबर‘ की मृत्यु पर उनकी याद में लिखी जो स्वयं गिर्दा पर भी सटीक बैठती है-

इस महादेश की
महाराजनीति
और साहित्य दोनों में ही
समय-समय पर चली अद्भुत धड़े बाजियों
पैंतरेबाजियों के बीच
अपनी समझ से
सही द्वंद्वात्मक जनपक्षीय सोच पर हमेशा अडिग रहने
और बेपरवाह स्पष्ट बोलने वाले
इस सामान्य से ’घोर संसारी संन्यायी‘ को
हमारी श्रद्धांजली !

वास्तव में यह सही कहा गया है- कितना मुश्किल है किसी शख्स का ’गिर्दा‘ होना।