गिरीश पंकज से बातचीत / लालित्य ललित
व्यंग्यकार गिरीश पंकज से डॉ. लालित्य ललित की बातचीत
व्यंग्यकार गिरीश पंकज के दस व्यंग्य संग्रह, पांच उपन्यास समेत विभिन्न विधाओं में 40 पुस्तकें प्रकाशित हैं। आपको व्यंग्य लेखन के लिए "अट्टहास सम्मान", "श्रीलाल शुक्ल व्यंग्य सम्मान", "लीलारानी सम्मान" समेत अनेक सम्मान-पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। सम्प्रति स्वतंत्र लेखन। "सद्भावना दर्पण" नामक अनुवाद की मासिक पत्रिका का प्रकाशन।
लालित्य ललित: गिरीश भाई, आपने लेखन की शुरुआत शायद कविता या गजल से की थी और आप ने उपन्यास में भी कलम का जोहर दिखाया और अब आप पूरी तरह से व्यंग्य में कूद पड़े है। आप अपने को किस विधा के अनुकूल पाते है?
गिरीश पंकज: लगभग हर लेखक कविता के साथ साहित्य की यात्रा शुरू करता है। मैंने भी की। मगर कविता अब तक मेरे साथ चल रही है। मै खुद समझ नहीं पाता कि किस विधा के सर्वाधिक निकट हूँ। फिर भी किसी एक विधा का चयन करना हो तो सबसे पहले व्यंग्य-विधा का ही नाम लूंगा। व्यंग्य के बगैर मेरा जीवन अधूरा है।
लालित्य ललित: क्या हरिशंकर परसाई पाठशाला के विद्यार्थी आप कहलाना पसंद करेंगे या ज्ञान चतुर्वेदी पाठशाला का विद्यार्थी?
गिरीश पंकज: विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ खुद को किसी पाठशाला का विद्यार्थी नहीं मानता। ज्ञान चतुर्वेदी की भी कोई पाठशाला है, यह जानकार आश्चर्य हुआ। खैर, मगर यह कहने में संकोच नहीं की शरद जोशी मेरे व्यंग्यादर्श रहे। मै शरद जोशी की पाठशाला का अनियमित विद्यार्थी बनना पसंद करूँगा।
लालित्य ललित: व्यंग्य में महिलाओं का न आना क्या साबित करता है।
गिरीश पंकज: व्यंग्य में महिलाओं का न आना अनायास ही है। वैसे भी पुरुषवादी मानसिकता के कारण औरतें हाशिये पर रही। साहित्यिक इतिहास को देखें तो महिलाओं का प्रतिशत नगण्य ही है। उस पर वे व्यंग्य विधा में आ जाती तो पुरुष-समाज की सत्ता हिल जाती। बहरहाल, स्त्रियों ने अपने आप को साहित्य की कोमल विधा के माध्यम से अभिव्यक्त किया। और जहां ज़रूरत समझी, व्यंग्य का तड़का भी खूब लगाया। वैसे व्यंग्य कठोर विधा है। नारी मन कोमल होता है। वे विसंगतियां झेल लेती हैं। वे व्यंग्य नहीं करती। भारतीय स्त्री शुरू से संस्कार से बंधी रही, लेकिन मुझे लगता है। अब समय आ गया है कि स्त्रियाँ भी व्यंग्य साहित्य को समृद्ध करें।
लालित्य ललित: कितने महाविद्यालयों में आप के व्यंग्य पर विद्यार्थी शोध कर रहे है?
गिरीश पंकज: मैं व्यंग्य साहित्य पर शोध कार्य करना चाहता था लेकिन किसी कारणवश नहीं कर पाया मगर यह देख कर संतोष होता है की अब मेरे व्यंग्य साहित्य पर शोध होने लगा है। मेरे व्यंग्य साहित्य पर कर्णाटक के एक विद्यार्थी ने शोध कार्य कर के पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त कर ली है। इन दिनों मध्यप्रदेश में एक छात्रा और छत्तीसगढ़ में दो विद्यार्थी मेरे व्यंग्य साहित्य पर शोधकार्य कर रहे है। महाराष्ट्र में भी एक विद्यार्थी शोध कार्य के लिए पंजीकृत हुआ है। वैसे इसके पहले भी कर्णाटक, पंजाब और छत्तीसगढ़ के सात विद्यार्थी मेरे व्यंग्य साहित्य पर लघु-शोध कर चुके हैं
लालित्य ललित: लगातार की जा रही यात्राएं आप के लेखन में कही बाधा तो नहीं पहुचाती?
गिरीश पंकज: यात्राओं से रचनात्मकता में व्यवधान तो पड़ता है, मगर मुझे लगता है सृजन के लिए एक फीड बैक भी यहीं से मिलता है। यात्रा करने से अनुभव प्रदेश का विस्तार होता है। अनेक लोगों से मिलने और सीखने का अवसर भी मिलता है। कई बार लौटता हूँ तो नयी रचना भी तैयार हो जाती है।
लालित्य ललित: “मिठलबरा की आत्मकथा” और “माफिया'” आपको दो चर्चित उपन्यास रहे, क्या कहेगे इन के बारे में?
गिरीश पंकज: मिठलबरा की आत्मकथा हिंदी पत्रकारिता के भीतर की दुनिया का सच था, जो शायद पहली बार सामने आया.मेरे इस पहले उपन्यास की भाषा घनघोर रूप से व्यंग्यात्मक थी कहीं-कहीं कुछ ज्यादा ही खुली-खुली -सी। इसलिए पाठकों ने उसे पसंद किया। मगर इस उपन्यास को व्यक्तिकेंद्रित निरूपित करने की विफल कोशिशें भी हुईं। जबकि मेरा अपना मानना है की व्यंग्य व्यक्ति नहीं, प्रवृत्ति पर लिखा जाना चाहिए। 'माफिया' उपन्यास साहित्य में फैले माफियाओं पर केन्द्रित है। इस उपन्यास को हिंदी आलोचकों ने उपेक्षित किया लेकिन संतोष की बात है कि व्यंग्य यात्रा जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका ने "माफिया" पर तीन लेखको से समीक्षाएं लिखवाईं। इस उपन्यास का कन्नड़ में भी अनुवाद शुरू हो गया था। मगर मेरा दुर्भाग्य कि अनुवादिका जानकी की आकस्मिक मृत्य हो गयी। माफिया' लिख कर भी मुझे बेहद संतोष हुआ की मैंने साहित्य जगत की विसंगतियों पर प्रहार करने की हिम्मत की।
लालित्य ललित: विदेशों में व्यंग्य के क्या हालात है? क्या वह भी व्यंग्य सरकार या आम जनता के प्रतिनिधियों पर किये जाते है?
गिरीश पंकज: व्यंग्य पूरी दुनिया में रचनात्मक हथियार रहा है।चाहे वह कविता या उपन्यास की शक्ल में ही क्यों न सामने आये। लेकिन यह भी सच है की व्यंग्य-हथियार को दुनिया में कहीं भी पसंद नहीं किया जाता.व्यंग्य या व्यंग्य-चित्र सत्ता-केन्द्रित ही ज़्यादा होते हैं।.और हम देखते हैं कि कुछ देशों के लेखको को अपने लेखन के कारण ही देश निकाला मिला या फांसी पर लटकाया गया। फिर भी व्यंग्य लिखने वाले अपना काम करते रहे हैं।
लालित्य ललित: यहाँ पर आप किस पर व्यंग्य करना पसंद करते है और क्यों?
गिरीश पंकज: मैं यहाँ राजनीति, अफसरशाही और पुलिस व्यवस्था पर व्यंग्य करना पसंद करता हूँ। क्योंकि इन तीनों ने मिल कर इस देश के लोकतंत्र बेहद कमजोर किया है। आम आदमी के पाखंड पर भी व्यंग्य करता हूँ लेकिन मेरे निशाने पर व्यवस्था ही रहती है। व्यंग्य शोषकों पर किया जाता है। और इस देश शोषक राज-सत्ता ही है।
लालित्य ललित: ”पालीवुड़ की अप्सरा” को खास पसंद न हीं किया गया। कुछ मित्रों ने उस की भाषा को ले कर सवाल खड़े किये थे। क्या आप मानते है कि उस की भाषा वाकई कमजोर थी, और क्यों?
गिरीश पंकज: हर सर्जक को उसकी संतान प्यारी होती है। मुझे नहीं लगा कि इस उपन्यास की भाषा कमजोर है। यह उपन्यास कस्बाई फिल्मोदयोंग पर गहरा व्यंग्य था। इस उपन्यास पर पंजाबी की एक छात्रा ने लघु शोध भी किया था। उसका विषय था- "व्यंग्य उपन्यास पालीवुड की अप्सरा का व्यग्यात्मक बोध"। उस छात्रा ने जब इस उपन्यास पर लघुशोध करने की सूचना आदी तो मुझे खुशी हुयी। दक्षिण में भी एक छात्रा ने इस हिंदी उपन्यास पर एक लंबा परचा तैयार किया। अगर इसकी भाषा अराजक होती तो यह विद्यार्थियों को आकर्षित नहीं करता। इस उपन्यास पर फीचर फिल्म बनाने की बात भी चल रही है।
लालित्य ललित: अगर आप को दुबारा मनुष्य का जनम मिलता है तो क्या बनना चाहेगे? इंसान, नेता या सरकारी नौकर?
गिरीश पंकज: सरकारी नौकर तो कभी भी बनाना नहीं चाहूंगा। हाँ, इन्सान बन कर साहित्य-सृजन के पथ पर ही चलना चाहूंगा।
लालित्य ललित: व्यंग्य में आ रहे नए नौजवानो को क्या सन्देश देना चाहेगे।
गिरीश पंकज: व्यंग्य विधा को करने जो नौजवान आगे आ रहे हैं, उनका स्वागत है। क्योंकि यही एक विधा है, जहां सुविधाएँ कम है। खतरे ज़्यादा हैं। हर तरह के खतरे। घर और घर के बाहर भी। लोग फ़ौरन अपने पर ले लेते हैं। और व्यंग्यकार का दमन करने पर उतारू हो जाते हैं। सरकारी व्यक्ति तो व्यंग्य लिख ही नहीं सकता। अनुशासन का डंडा चलने लगता है। नए व्यंग्यकारों को इस खतरे के लिए तैयार रहना होगा। व्यंग्य को गरिमा प्रदान करने के लिए गंभीरता के साथ व्यंग्य लिखना होगा। बाज़ार से समझौता करके व्यग्य को फूहड़ हास्य में तब्दील न किया जाये। पात्र-पत्रिकाओं में इन दिनों जो व्यंग्य छाप रहे हैं, वे बेहद हल्के-फुल्के है। कहा जाये तो व्यंग्य ही नहीं हैं। स्तरीय व्यंग्य के के लिए नौजवान व्यंग्यकारों को लघु पत्रिकाओं की तलाश करनी होगी।
लालित्य ललित: पाठकों की प्रतिक्रियाओं को कैसे लेते है?
गिरीश पंकज: हर पाठक अपनी मानसिकता के अनुरूप अपनी प्रतिक्रया देता है। पुलिस के खिलाफ लिखा गया मेरा व्यंग्य पुलिसवाले को, या उस परिवार से जुड़े व्यक्ति को पसंद नहीं आएगा मगर जिन्होंने पुलिस अत्याचार झेलें है, या देखा है, वे प्रसन्न होंगे और कहेंगे ठीक लिखा है। राजनीति पर लिखा व्यंग्य नेताओं और उनके चमचों को पसंद नहीं आयेगा। लेकिन मैं इसकी परवाह नही करता कि मेरी व्यंग्यरचना पर पाठक की क्या प्रतिक्रया होगी। ऐसा सोचा कर तो कोई रचना ही नहीं लिखी जा सकती। मैं हर प्रतिक्रया का स्वागत करता हूँ। चाहे अनुकूल हो या प्रतिकूल। दोनों तरह की प्रतिक्रियाएं मुझे आत्म-मंथन के लिये ही प्रेरित करती हैं।
लालित्य ललित: आपकी श्रीमती आप के लेखन से संतुष्ट है?
गिरीश पंकज: श्रीमती का संतुष्ट रहना मेरे लिए हर बार नयी रचना के सृजन का वातावरण बना देता है। कई बार वो मेरी पहली श्रोता या पाठक भी होती है। अनेक रचनाओं में समुचित सुधार का रास्ता भी सुझा देती है। पढ़ी-लिखी समझदार 'श्रीमती' के कारण अपनी 'मति' कभी मारी नहीं गयी। वह सही 'गति' और दिशा में कार्य करती रहती है।
लालित्य ललित: अपने नए सृजन के बारे में कुछ बताये?
गिरीश पंकज: हालही में मेरा एक उपन्यास आया है "एक गाय की आत्मकथा"। भारतीय देसी गायों को ले कर जो पाखण्ड-पर्व-सा चल रहा है, उस पर प्रहार करने की कोशिश की है। गो सेवा के नाम पर इस देश में गो माफिया सक्रीय है। उनका पर्दाफाश करने की मैंने विनम्र कोशिश की है। एक और व्यंग्य उपन्यास "मीडिया नमः" शीघ्र प्रकाश्य है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है की यह उपन्यास मीडिया के बदलते चरित्र पर ही केन्द्रित है। इस उपन्यास की भाषा को लोग पसंद करेंगे ऐसा मेरा विशवास है। इधर एक और उपन्यास तैयार हो चुका है- "टाउनहाल में नक्सली"। इसमें मैंने नक्सलियों को आत्मसमर्पण करा कर मुख्यधारा में लाने का सन्देश दिया है। एक और व्यंग्य उपन्यास "कथा मंगलपुर" लगभग तैयार है जो राजनीति पर केन्द्रित है कि कैसे एक सड़क छाप, आवारा लड़का एक दिन मंत्री बन जाता है।
लालित्य ललित: गिरीश भाई आप ने अपना कीमती समय दिया इस के लिए में आप का हृदय से आभारी हूँ।
गिरीश पंकज: मैं भी आभारी हूँ की आपने व्यंग्य के एक विद्यार्थी को इतना महत्त्व दिया।