गिर्दा और अदम / नवीन जोशी
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लेखक: नवीन जोशी, संपादक हिन्दुस्तान ,लखनऊ
अदम गोंडवी से तब न तो परिचय था और न ही ज्यादा मालूमात।
कविता रंगमंच जन आन्दोलन पत्रकारिता आदि के हमारे आदर्श और नायक गिर्दा ही थे गिरीश तिवारी गिर्दा । बात इमेरजेन्सी के बाद सक्रिय और उम्मीद भरे वर्षो की है। पढाई बीच में छोडकर पत्रकारिता में दिल रम गया था और रोमानी क्रान्तिकारिता का उबाल मन में आया ही करता था। जब भी दो चार दिन की छुट्टी मिली सीधे नैनीताल दौडना होता था । जहाँ नैनीताल समाचार धारदार और जनमुखी पत्रकारिता का झण्डा गाड रहा था और गिर्दा पत्रकारिता और जनआन्दोलनों के इस दौर में तेवरदार सांस्कृतिक और आन्दोलनकारी स्वर थे। उनकी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों में लोकगीतों से लेकर नाजिम हिकमत ,फैज, अली सरदार जाफरी से लेकर कबीर तक की रचनाऐं और रंगमंचीय व नुक्कड नाटक भी होते थे। उनका संगीत और निर्देशन भी गिर्दा का ही रचा-बनाया होता था।
पूरी गंभीरता तन्मयता और ओज के साथ स्वर साधकर गिर्दा जो गीत गाते थे उनमें अनिवार्य रूप से यह गजल भी होती थी जिसे गीत की तरह मिलकर हम सब भी गाते थे -
सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नासाद है।
दिल पर रखकर हाथ कहिए देश क्या आजाद है?
गिर्दा ने इसकी धुन भी बडी शिद्दत से बनायी थी और गाते गाते उनका चेहरा आक्रोश से भर उठता था। इसके बाद एक और रचना हम गिर्दा से जरूर सुनते थे -
ले मशालें चल पडे हैं लोग मेरे गांव के
अब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के।
ये दोनो ही रचनाऐं उत्तराखण्ड में चलने वाले सतत चलने वाले जन आन्दोलनों में बराबर गाई जाती हैं । 1984 -85 में जब गिर्दा ने जागर संस्था बनाकर छोटी छोटी पुस्तिकाऐं प्रकाशित कीं और जनगीतों के कैसेट बनाए तो उनमें भी सौ में सत्तर आदमी....... और ले मशालें चल पडे हैं...... गीत छपे और पदयात्राओं में खूब गाए बजाए गए।
मुझे बहुत दिनों तक पता नहीं था कि सौ में सत्तर आदमी अदम गोंडवी की रचना है और ले मशालें चल पडे हैं के रचनाकार हैं बल्ली सिंह चीमा । रचनाकारों के नाम पता चल जाने के बावजूद उन शख्सिियों के बारे में कुछ खास पता नहीं था...। अदम गोंडवी को लखनऊ में जन संस्किृत मंच के कार्यक्रमों में एक दो बार सुना जरूर था लेकिन ठीक से मुलाकात कई वर्ष बाद नैनीताल में गिर्दा के साथ हुई। उन्हें देखकर यह लगा ही नहीं कि अत्यंत सीधा सरल और गंवई यह इन्सान ऐसी धारदार रचना कर सकता है ऐसा अनुभव बल्ली सिंह चीमा से मिलकर भी हुआ जो आज भी उधमसिंह नगर में खेती किसानी करने हैं। दरअसल यह हमारी नासमझी ही थी क्योंकि साहित्कारों की छवियां हमने अपने मन में बडी भव्य बना रखी हैं जबकि जनता का असली दुख दर्द उनके जैसा साधारण गंवई रचनाकार ही लिख सकता है। रेखा रेखा मेरे छोटे भाई की पत्नी बताती है कि एक बार नैनीताल में गिर्दा के साथ बैठक में अदम गोंडवी ने अपनी रचनाएं सुनाई। अदम से बहुत प्रभावित होकर उसने उनसे अजीब सा प्रश्न पूछ लिया
अदम जी आप कहां तक पढे हैं?
अदम ने निस्संकोच कहा -
बहना मैं तो पाँचवीं तक पढा हूं।
रेखा कहती है कि यह सुनकर मुझे अपनी पी-एच0डी0 पर शर्म आई थी। दरअसल जरूरी नहीं कि विद्यालयी डिग्रियाँ हमें जीवन का भी असली पाठ पढाऐं। सच तो यह है कि कि ये डिग्रियां हमें जीवन से काटती ज्यादा हैं। असली शिक्षा तो समाज के विश्वविद्यालय ही देते हैं।यह अदम ने साबित किया और गिर्दा ने भी। बहरहाल बाद में तो हमने अदम गोंडवी की लगभग सारी रचनाऐं पढीं । खुद उनके मुंह से कई कई बार सुनीं। लखनऊ में उनका आना जाना खूब लगा रहता था।
आइए महसूस करिये जिंन्दगी के ताप को, मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
हमारी जुबान पर ही रहती थी उन दिनों।
मैने अदम को हमेशा अत्यंत सरल और संकोची पाया। यहां एक प्रसंग का उल्लेख करूगा । बात सन 1980 की एक रात की है मैं तब नवभारत टाइम्स लखनऊ में मुख्य उपसंपादक था और रात्रि की पाली का प्रभारी था रात के करीव दस बजे हम नगर संस्करण के लिये खबरें फाइनल करने में मगशूल थे कि अचानक पायजाप कुर्ता और सफेद अंगौछा कन्धे पर डाले एक व्यक्ति को मैने अपने सामने की कुर्सी पर बैठे पाया और चौंका - अरे यह तो अदम गोंडवी है। कब आऐ? बस अभी! बिल्कुल कम बोलने वाले अदम ने बस इतना ही कहा । रात्रि पाली मे बच रहे चंद साथियों से अदम का परिचय कराया । खबरों का संपादन चलता रहा और बीच बीच में संक्षिप्त वार्तालाप चाय चलेगी? खाना खाया? क्या कार्यक्रम है? अदम ने सिर्फ चाय पी और लगभग मौन बैठे रहे। एक बार अनिल सिन्हा को पूछा । अनिल जी तब नवभारत टाइम्स में हमारे सहयोगी थे और दिन की पारी का काम करके घर जा चुके थे।
अखबार के पेज बनवाकर एक डेढ बजे सम्पादकीय विभाग में वापिस लौटा तो देखा कि अदम वैसे ही बैठे हैं। हमारे घर जाने का वख्त हो गया था। मैने औपचारिकावश ही कहा- अदम जी चलिऐ घर चलते हैं । इतनी रात को कहां जाइयेगा। वे उठे और साथ हो लिए। हम स्कूटर से रात करीब दो बजे घर पहुंचे । अदम जी को बैठक के दीवान पर सुलाया। पत्नी ने खाने को पूछा तो उन्होंने हाथ जोड दिये थे।
वह रात मुझे इसलिए भी याद है कि घर पहुंचने के बाद मुझे हिचकियों का दौरा पड गया था और लगातार इतनी हिचकियां आती रहीं कि सो ही नहीं सका।अदम को भी शायद ठीक से नींद नहीं आयी होगी। तडके कुछ आराम मिला तोफिर मैं देर तक सोता रहा। अदम पता नहीं कब उठकर पत्नी से अनिल सिन्हा का घर पता करके उनके यहां चले गये थे। अनिल जी का घर पडोस में ही है। कोई दस बजे अनिल जी के साथ अदम जी फिर हमारे घर आये। वही रात का कुर्ता पाजामा अंगोछा। दोनो हाथ जोडकर नमस्कार कहा। मुस्कराए। इधर उधर की कुछ चर्चा हुई लेकिन रात की कोई बात नहीं। थोडी देर बाद वे अनिल सिन्हा के साथ चले गए।
अदम की वह सादगी और संकोच कभी नहीं भूलते।
नैनीताल में गिर्दा को यह किस्सा बताया था। गिर्दा बीडी सुलगाकर देर तक मुस्कुराते रहे। गिर्दा हों या अदम उनकी यह मुस्कुराहटें कितना कुछ कहती थीं।
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