गीता-पाठ और पुस्तकें लिखना / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
गीता के पठन-पाठन का काम भी चलता रहा। कुछ साथियों ने हठ किया कि उन्हें गीता पढ़ा दूँ और मैंने मान लिया। उसका समय निधर्रित था और कुछ लोग चाव तथा उत्साह के साथ नियमित रूप से पढ़ने आया करते थे।
जीवनी (मेरा जीवन-संघर्ष) के सिवाय मैंने 'किसान कैसे लड़ते हैं?', 'क्रांति और संयुक्त मोर्चा', 'किसान-सभा के संस्मरण', 'खेत-मजदूर', 'झारखंड के किसान' और 'गीता हृदय' ये छ: पुस्तकें और भी लिखीं। इनमें पहली दो तो प्रकाशित भी हो गई हैं। शेष प्रकाशित होने ही को हैं। इनमें गीता हृदय तो जेल से निकलने के ठीक पूर्व जैसे लिखा जा सका। जानें मेरे दिल में रिहाई के दो मास पूर्व क्यों यह बात जम गई कि गीता हृदय पूरा करो,नहीं तो रिहाई होने ही वाली है और फिर वह पड़ा ही रह जाएगा। बस, मैंने उसमें हाथ लगा दिया। सचमुच ही मेल की गति की बात ही क्या, मैं स्पेशल ट्रेन की चाल से चलता रहा। तब कहीं यह लंबी पुस्तक पूरी हो सकी। लिखित कॉपी (हस्तलिपि) पर रोज-रोज की तारीखें नोट हैं कि किस दिन कितना लिखा। फिर भी इसका आशय यह नहीं है कि ऊलजलूल बातें लिख मारीं। ऐसा नहीं हुआ। जो कुछ लिखा गया वह खूब समझ-बूझ के,इतने पर भी दोई भाग पूरे हुए। तीसरा लिखा न जा सका। उसके लिए कुछ खास छानबीन और अन्वेषण जरूरी था और वैसी पुस्तकें जेल में मिल न सकती थीं। मेरा अपना विचार है कि 'गीता हृदय' में लिखी बातें अपने ढंग की निराली हैं। उनमें अधिकांश विचार के परिपाक के परिणाम हैं। कुछ तो लिखते-लिखते अकस्मात सूझीं और मैं आश्चर्यचकित रह गया। उन्हें लिपिबध्द करने में मुझे अपार आनंद हुआ।
कुछ और भी साथी थे जिन्हें किसान-सभा के विकास का इतिहास बताता रहा और किसानों में काम करने की शिक्षा दी। जेल में ही श्री जयप्रकाश बाबू तथा अन्यान्य पुराने साथियों से कभी बातें करने और विचार विनिमय का मौका आया तो कभी वे बेहद नाखुश भी हुए। मेरी लाचारी थी। जिससे मैं न तो उनकी सभी बातें मान सकता था और न उन्हें खुश कर सकता था।
श्री जयप्रकाश बाबू ने मुझसे बार-बार अनुरोध किया कि वे एक नई पार्टी, 'पीपुल्स पार्टी' (जनता की पार्टी) बनाना चाहते हैं जिसमें मुझे भी रहना चाहिए। मगर मैंने नहीं की। मेरे दिल में यह बात क्यों नहीं जँची, कौन कहे? यह बात उन्हें बुरी लगी होगी जरूर। मगर इससे वे मुझसे नाखुश हुए, ऐसा मुझे मालूम न हुआ। हाँ, अन्यान्य साथी सख्त रंज थे।