गीता का अर्थ समझा / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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यों तो गीता मेरे जीवन का एक अभिन्न अंग सदा से ही रहीहै। मैंने गीता का विचार सब ग्रंथों की अपेक्षा कहीं ज्यादा कियाहै। इसे पढ़ा-पढ़ाया भी खूब हीहै। मगर एक बड़ी भारी कसर के साथ। जैसी कि परिपाटी संस्कृत के पंडितों और छात्रोंकी है, मैंने सदा ही उसका मनन भाष्यों और टीकाओं के आधार पर, उन्हीं की सहायता से किया था। पचासों टीकाएँ और भाष्य मेरे पास मौजूद हैं। संस्कृत में जितनी भी टीकाएँ और जितने भाष्य मिल सके हैं मैंने सबों का संग्रह कियाहै। उन्हीं की सहायता से गीता का अर्थ समझने-समझाने की बार-बार कोशिश मैंने तब तक की थी। स्वतंत्ररूप से समस्त गीता के मनन करने का शायद ही अवसर मिला हो। इसकी जरूरत भी नहीं समझी जाती थी। कभी मैंने स्वयं ऐसा सोचा भी नहीं। कभी-कभी कुछ श्लोकों के बारे में ऐसा हुआ। मगर सारी गीता के बारे में कभी नहीं। इसका एक परिणाम हुआ कि बुद्धि और विचारशक्ति पंगु हो गई। गीतार्थ के बारे में उसमें स्वतंत्रऊहापोह की शक्ति आने ही न पाई। यह बड़ी भारी भूल थी, जबर्दस्त कमी थी।

एक बात और थी। पहले से ही कुछ सिद्धांत निश्चित कर रखे थे, दूसरों से जान कर या अन्यान्य ग्रंथों को पढ़-पढ़ा कर। ऐसा तो होता ही रहता है। बिना पढ़े ही कुछ सिद्धांत तो लोग मानते ही हैं। आजकल तो भारतवर्ष के निरक्षर बूढ़े, जवान, मर्द, औरतें सभी कर्मवाद, प्ररब्धवाद और भगवानवाद की दुहाई देते रहते हैं। जिससे बातें कीजिए तकदीर, कर्म और भगवान की दया की बातें बघाड़ता है। बात करने का शऊर नहीं। फिर भी बड़ी-बड़ी दार्शनिक बातें इसी तरह छाँटता रहता है। यदि उनके विपरीत बोलिए तो बुरा मानता और हँस देता है। उसे समझाना साधारण काम नहीं।वंश परंपरागत संस्कार और बचपन की दकियानूसी मंडली का ही यह असर उस पर होताहै।

ठीक यही बात पढ़े-लिखों की भी होती है। कुछ बातों को पहले से ही दिल में रखते हैं और ग्रंथों में उन्हीं को ढूँढ़ते हैं। उन्हीं की पुष्टि करते हैं। हमारे भीतर भी यही बात थी। कुछ सिद्धांत हमने निश्चित किये थे और गीता में जब न तब उन्हीं की ढूँढ़ते थे, पाते थे। यह भी एक प्रकार की पंगुता ही हैं। इसके करते भी गीतार्थ स्वतंत्र रूप से हम समझ न सके।

गीता का महत्त्व तो बहुत सुना था, लोगों से भी और पोथी-पुराणों में भी। मगर हमें तब तक कुछ ऐसी खास बात उसमें मिली थी नहीं। इसीलिए हमें कभी-कभी आश्चर्य होता था कि ऐसा क्यों माना जाता है। कभी-कभी सुनते थे कि कुछ लोग ─ स्वदेश और विदेश ─ घूम-घूम कर आम जनता में गीता पर उपदेश देते रहते हैं हम यह समझ न पाते थे। हम तो जानते थे कि गीता में अद्वैत दर्शन और अध्यात्मवाद है। उसे जन साधारण कैसे समझते होंगे। यही सोचते थे। हिंदी, अंग्रेजी, मराठी आदि की टीकाओं ने भी हमें कुछ ऐसा न सुझाया था।

ऐसी दशा में फैजाबाद जेल में कुछ तो परिस्थितिवश और कुछ ऐसा ख्याल भी हो आया कि गीता का स्वतंत्र मंथन किया जाए। इसीलिए उस नन्हीं सी गीता का ही परायण, चिंतन, मंथन हमने शुरू किया। मजबूरी तो थी ही। आखिर भाष्यादि मिलते भी कहाँ से? जहाँ रखे थे वहाँ से मँगाना आसान तो था नहीं। आते-आते भी समय लग जाता। यह भी सोचा कि कौन यह फिक्र करने जाए? बहुत दिन भाष्य पढ़े, टीकाएँ पढ़ीं। जरा यों भी तो देखें। एक प्रकार की उत्सुकता भी थी। इस प्रकार हमने स्वतंत्र रूप से बिना किसी की सहायता के उसका मनन शुरू किया।

शुरू करते ही मजा आने लगा। फिर तो चसक गए। जो लोग हमसे पढ़ते थे प्रश्नोत्तर भी करते थे। उत्तर देना ही पड़ता था। इस तरह जब हमने गीता का अभ्यास शुरू कर दिया तो कुछ ही दिनों में हमारी आँखों के पर्दे खुल गए। हमें एक निराली दुनिया नजर आई। हमने नया अर्थ उसमें पाया। अर्थ तो प्राय: पुराना ही था। मगर उसमें नई रोशनी थी, नई आभा थी, नया तेज था, जिसने हृदय को खिला दिया। हमारे जीवन में यह पहला ही मौका था जब हमने गीता का रहस्य समझा और जीवन की बाधाओं तथा चिंताओं से निश्चिंत हो गए। जीवन भर वेदांत और अन्य दर्शनों के पढ़ने से जो शांति उपलब्ध न हो सकी वही हमें गीता की कृपा से फैजाबाद जेल में प्राप्त हो गई। हमारा जीवन स्थिर हो गया (My life be came settled) मैंने तब समझा कि गीता का महत्त्वइतना क्यों माना जाताहै। गीता पर उपदेश देनेवालों को भी तभी समझ पाया कि क्यों आम जनता में ऐसा वे लोग कहते हैं। यही कारणहै कि उस नन्हीं सी गीता से मेरा अपार प्रेमहै। सुंदर खादी की जिल्द बना कर बराबर एक बेठन में उसे लपेट रखता हूँ।

लखनऊ जाने के कुछ ही दिन पूर्व फैजाबाद में मुझे आम और अपच की शिकायत हो गई। अत: कुछ खा-पी न सकता था। हार कर जेलवाले रोज थोड़ा दही देते थे। उसे ही पीता था। इसी बीच सरकार ने जेलवालों से हमारे बारे में पूछताछ की, वे चारों फर्स्टक्लास के कैदी हैं। वे वहाँ कैसे हैं। उनका हाल लिखिये। जेलवालों ने हमसे पूछा तो हमने सारी दास्तान कही। उन्होंने यही बातें शायद सरकार को लिख दीं। क्योंकि दूसरा कारण तो कोई था नहीं। हमसे उनने यह भी कहा कि आप लोग यहाँ रहने न पाएँगे, लखनऊ भेज दिए जाएगे। यहाँ यह भी कह देना है कि हमारे तीन साथियों ने जब देखा कि शेष लोग तो लखनऊ चले गए, इन्कार न किया और मजा कर रहे हैं, तो उन्हें भीतर से ग्लानि हुई। वे अपनी भूल पर पश्चाताप भी करने लगे थे।