गीता की अध्याय-संगति / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती
गीता का अर्थ समझने में एक जरूरी बात यह है कि हम उसमें प्रतिपादित विषयों को ठीक-ठीक समझें और उनका क्रम जानें। इसी का संबंध ज्ञान और विज्ञान से है जिसका उल्लेख गीता (7। 2-9। 1) में दो बार स्पष्ट आया है। इस दृष्टि से हम गीता के अध्यायों को देखें तो ठीक हो।
पहला अध्यांय तो भूमिका या उपोद्घात ही है। वह गीतोपदेश का प्रसंग तैयार करता है जो अर्जुन के विषाद के ही रूप में है। यही सबसे उत्तम भूमिका है भी। इसके करते जितना सुंदर प्रसंग तैयार हुआ है उतना और तरह से शायद ही होता।
दूसरे अध्यातय का विषय है ज्ञान या सांख्य। इसमें उसी की मुख्यता है।
तीसरे में कर्म का सवाल उठा के उसी पर विचार और उसी का विवेचन होने के कारण वही उसका विषय है।
चौथे में ज्ञान का कर्मों के संन्यास से क्या ताल्लुक है। यही बात आई है। इसीलिए उसका विषय ज्ञान और कर्म-संन्यास है।
स्वभावत:, जैसे दूसरे अध्या्य में ज्ञान के प्रसंग से कर्म के आ जाने के कारण ही तीसरे में उसका विवेचन हुआ है, उसी तरह चौथे में संन्यास के आ जाने से पाँचवें में उसी का विवेचन है, वही उसका मुख्य विषय है।
छठे में अभ्यास या ध्यानन का विवरण है। यह ज्ञान के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इसे ही पातंजल योग भी कहते हैं। चौथे के ज्ञान और कर्म-संन्यास के मेल को ही ब्रह्मयज्ञ भी कहा है और वही उसका मुख्य अर्थ शंकर ने लिखा है। ठीक ही है। पाँचवें के मुख्य विषय - संन्यास - को उनने प्रकृतिगर्भ नाम दिया है। बाहरी झमेलों से पिंड छुड़ा के किस प्रकार प्राकृतिक रूप में ब्रह्मानंद में मस्त हो जाते हैं यही बात उसमें सुंदर ढंग से लिखी है। संन्यासी के संबंध में प्राचीन ग्रंथों में लिखा भी है कि वह जैसे माता के गर्भ से बाहर आने के समय था वैसा ही रहे - 'यथाजातरूपधार:।' इसलिए इस संन्यास को प्रकृतिगर्भ कहना सर्वथा युक्त है।
इस प्रकार छठे अध्यातय तक जो बातें लिखी गई हैं उनके अलावे और कोई नवीन विषय तो रह जाता ही नहीं। यही बातें आवश्यक थीं। इन्हीं से काम भी चल जाता है। शेष बात तो कोई ऐसी आवश्यक बच जाती है नहीं, जो गीता-धर्म के लिए जरूरी हो और इसीलिए जिसका स्वतंत्र रूप से विवेचन आवश्यक हो जाए। हाँ, यह हो सकता है कि जिन विषयों का निरूपण अब तक हो चुका है उनकी गंभीरता और अहमियत का खयाल करके उन्हीं पर प्रकारांतर से प्रकाश डाला जाए। उन्हें इस प्रकार बताया जाए, दिखाया जाए कि वे हृदयंगम हो जाए। इस जरूरत से इनकार किया जा सकता नहीं। गीता ने भी ऐसा ही समझ के शेष बारह अध्यायों में यही काम किया है। अठारहवें अध्याय में इसके सिवाय सभी बातों का उपसंहार भी कर दिया है। इसीलिए सातवें अध्याकय में कोई नया विषय न दे के ज्ञान और विज्ञान की ही बातें कही गई हैं। मगर कहीं लोग ऐसा न समझ लें कि यह बात केवल सातवें अध्यावय का ही प्रतिपाद्य विषय है, इसीलिए नवें अध्याय के शुरू में ही पुनरपि उसी का उल्लेख कर दिया है।
यहाँ पर ज्ञान और विज्ञान का मतलब समझ लेने पर आगे बढ़ने में आसानी होगी। पढ़-सुन के या देख के किसी बात की साधारण जानकारी को ही ज्ञान कहते हैं। विज्ञान उसी बात की विशेष जानकारी का नाम है। इसके दो भाग किए जा सकते हैं। एक तो यह कि किसी बात के सामान्य (General) निरूपण, जिससे सामान्य ज्ञान हो जाए, के बाद उसका पुनरपि ब्योरेवार (Detailed) निरूपण हो जाए। इससे पहले की अपेक्षा ज्यादा जानकारी उसी चीज की जरूर होती है। दूसरा यह कि जिस ब्योरे का निरूपण किया गया हो उसी को प्रयोग (experiment) करके साफ-साफ दिखा-सुना दिया जाए। इस प्रकार अपनी आँखों देख लेने, छू लेने या सुन लेने पर पूरी-पूरी जानकारी हो जाती है, जिससे वह बात दिल-दिमाग में अच्छी तरह बैठ जाती है। हमने किसी को कह दिया, उसने सुन लिया या कहीं पढ़ लिया कि सूत से कपड़ा तैयार होता है। इस तरह जो उसे जानकारी हुई वही ज्ञान है। उसके बाद सामने कपड़ा रख के उसके सूतों को दिखला दिया, तो उसको विज्ञान हुआ - विशेष जानकारी हुई। मगर सूत का तानाबाना करके उसके सामने ही यदि कपड़ा बुन दिया तो यह भी विज्ञान हुआ और इसके चलते उसके दिल-दिमाग में यही बात पक्की तौर से जम जाती है।
गीता में भी शुरू के छ: अघ्यायों में जिन बातों का निरूपण हुआ है। वह तो ज्ञान हुआ मगर उन बातों के प्रकारांतर से निरूपण करने के साथ ही सातवें में सृष्टि के कारणों आदि का विशेष विवरण दिया है।
आठवें में अधिभूत आदि के निरूपण के साथ ही उत्तरायण आदि का विशेष वर्णन किया है।
नवें में फिर प्रकृति से सृष्टि और प्रलय के निरूपण के साथ क्रतु, यज्ञ, मंत्र आदि के रूप में इस सृष्टि को भगवान का ही रूप कहा है।
दसवें में इसी बात का विशेष ब्योरा दिया है कि सृष्टि की कौन-कौन-सी चीजें खासतौर से भगवान के स्वरूप में आ जाती हैं।
इस तरह जिस तत्वज्ञान की बात दूसरे अध्याकय से शुरू हुई उसी को पुष्ट करने के लिए इन चारों अध्यायों में विभिन्न ढंग से बातें कही गई हैं। सृष्टि के महत्त्वपूर्ण पदार्थों की ओर तो लोगों का ध्याान खामख्वाह ज्यादा आकृष्ट होता है खुद-ब-खुद। अब यदि उन पदार्थों को भगवान का ही रूप या उन्हीं से साक्षात बने हुए बताया जाए तो और भी ज्यादा ध्या-न उधर जाता है। हम तो कही चुके हैं कि आत्मा, परमात्मा और पिंड, ब्रह्मांड इन चारों में एक ही बुद्धि - सम बुद्धि ही - तत्वज्ञान है। इस निरूपण से उसी ज्ञान में मदद मिलती है। इस प्रकार ब्योरेवार निरूपण के द्वारा विज्ञान में ही ये चारों अध्यासय मदद करते हैं। सातवें का विषय जो ज्ञान-विज्ञान कहा है वह तो कोई नई चीज है नहीं। इसमें ज्ञान या विज्ञान का स्वरूप बताया गया है नहीं कि वही इसका विषय हो। सिर्फ पहले के ही ज्ञान की पुष्टि की गई है। इसी प्रकार नवें का विषय राजविद्या-राजगुह्य लिखा है। मगर उसके दूसरे ही श्लोक में ज्ञान-विज्ञान का ही नाम राजविद्या-राजगुह्य कहा गया है। इसलिए यह भी कोई नई चीज है नहीं। आठवें का विषय जो तारक ब्रह्म या अक्षरब्रह्म है वह भी कोई नई चीज नहीं है। अविनाशी ब्रह्म या आत्मा के ही ज्ञान से लोग तर जाते हैं - मुक्त होते हैं और उसका प्रतिपादन पहले हो ही चुका है। ओंकार को भी इसीलिए अक्षर या तारक कहते हैं कि ब्रह्म का ही वह प्रतीक है, प्रतिपादक है। दसवें को तो विभूति का अध्या्य कहा ही है और विभूति है वही भगवान का विस्तार। इसलिए यह भी कोई स्वतंत्र विषय नहीं है।
इस प्रकार ब्योरे के प्रतिपादन के बाद पूरी तौर से दिमाग में बैठाने के लिए प्रत्यक्ष ही उसी चीज को दिखाना जरूरी होता है और ग्यारहवें अध्या य में यही बात की गई है। भगवान ने अर्जुन को दिव्य दृष्टि दी है और उसने देखा है कि भगवान से ही सारी सृष्टि कैसे बनती और उसी में फिर लीन हो जाती है। यदि प्रयोगशाला में कोई अजनबी भी जाए तो यंत्रों तथा विज्ञान के बल से उसे अजीब चीजें दीखती हैं जो दिमाग से पहले नहीं आती थीं। कहना चाहिए कि उसे भी दिव्य-दृष्टि ही मिली है। दिव्य-दृष्टि के सींग पूँछें तो होती नहीं। जिससे आश्चर्यजनक चीजें दीखें और बातें मालूम हों वही दिव्य-दृष्टि है। इसलिए 11वें में विज्ञान की ही प्रक्रिया है।
ग्यारहवें अध्याय के अंत में जिस साकार भगवान की बात आ गई है उसकी और उसी के साथ निराकार की भी जानकारी का मुकाबिला ही बारहवें अध्याय में है। यदि उससे अंतवाले भक्तनिरूपण को चौदहवें के अंत के गुणातीत तथा दूसरे के अंत के स्थितप्रज्ञ के निरूपण से मिलाएँ तो पता चलेगा कि तीनों एक ही हैं। इसी से मालूम होता है कि बारहवें की भक्ति तत्वज्ञान ही है जो पहले ही आ गया है यहाँ सिर्फ ब्योरा है उसी की प्राप्ति के उपाय का।
तेरहवें में क्षेत्रक्षेत्रज्ञ का निरूपण भी वही विज्ञान की बात है।
चौदहवें का गुणनिरूपण सृष्टि के खास पहलू का ही दार्शनिक ब्योरा है।
पंदरहवें में पुरुषोत्तम या भगवान और जन्ममरणादि की बातें, सोलहवें में आसुर संपत्ति की बात और सत्रहवें की श्रद्धा विज्ञान से घनिष्ठ संबंध रखती है।
इसमें तथा अठारहवें में गुणों के हिसाब से पदार्थों का विवेचन गुण-विभाग में ही आ जाता है। अंत में और शुरू में भी अठारहवें में कर्म, त्याग आदि का ही उपसंहार एवं संन्यास की बात है जो पहले आ चुकी है। ध्यांनयोग भी पहले आया ही है। उसी का यहाँ उपसंहार है।