गीता में ईश्वर / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती
सबसे पहली बात आती है ईश्वर की। गीता में ईश्वर का नाम और उसकी चर्चा बहुत आई है, इसमें शक नहीं है। मगर यह चर्चा कुछ निराले ढंग की है। अठारहवें अध्याय के 'ईश्वर: सर्वभूतानां' (61) श्लोक में ईश्वर शब्द से ही उसका उल्लेख आया है। जितना स्पष्ट वहाँ लिखा गया है उतना और कहीं नहीं। और जगह दूसरे-दूसरे शब्दों के द्वारा उसका उल्लेख होने से वह सफाई नहीं है। एक बात और भी है। तेरहवें अध्याय के 'समं पश्यन्हि सर्वत्र' (28) में भी ईश्वर शब्द आया है। उससे पहले के 27वें श्लोक में परमेश्वर शब्द भी आया है। मगर उसमें वह सफाई नहीं है जो अठारहवें अध्याय के उस ईश्वर शब्द में है। वहाँ तो कुछ ऐसा मालूम होता है कि सबों से अलग और सबों के ऊपर कोई पदार्थ है जिसे ईश्वर कहते हैं और उसकी शरण जाने से ही उद्धार होगा। इस प्रकार जैसा आमतौर से ईश्वर के बारे में खयाल है ठीक उसी रूप में वहाँ आया मालूम होता है। मगर यहाँ जो ईश्वर और परमेश्वर है वह उस रूप में उसे बताता मालूम नहीं पड़ता है। 'प्रकृतिं पुरुषं चैव' इस 19वें श्लोक से ही शुरू करके यदि देखा जाए तो देह और जीव या प्रकृति और पुरुष का ही वर्णन इस प्रसंग में है। उन्हीं को क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ भी पहले तथा इस प्रसंग में भी कहा है। फिर 22वें श्लोक में तो साफ ही कहा है कि इसी पुरुष को पर, परमात्मा, महेश्वर आदि भी कहते हैं जो इसी देह में मौजूद है। आगे चल के 26वें में उसे ही क्षेत्रज्ञ कह के 27-28 में परमेश्वर और ईश्वर कहा है। इसलिए वह सफाई यहाँ है कहाँ? यहाँ तो जीव और ईश्वर एक ही प्रतीत होते हैं। 31वें श्लोक में भी 'परमात्माऽयमव्यय:' शब्दों के द्वारा इसी पुरुष को ही अविनाशी परमात्मा कह दिया है।
बेशक पंदरहवें अध्याय के 17-18 श्लोकों में परमात्मा, उत्तम पुरुष, पुरुषोत्तम तथा ईश्वर शब्दों से ऐसे ही ईश्वर का उल्लेख आया है जो प्रकृति एवं पुरुष के ऊपर - दोनों से निराला और उत्तम - बताया गया है। लेकिन यहाँ वाला ईश्वर शब्द मुख्य नहीं है, ऐसा लगता है। चौदहवें अध्याय के 19वें श्लोक में पर शब्द आया है। उसी के साथ 'मद्भाव' शब्द है। 26 और 27 श्लोकों में 'माँ' या 'अस्मत्' शब्द है। इससे पता लगता है कि पर शब्द भी परमात्मा का वाचक है। मगर वह जीवात्मा से अलग यहाँ प्रतीत नहीं होता। हाँ, सोलहवें अध्याय के 'असत्यमप्रतिष्ठन्ते जगदाहुरनीश्वरम्' (8) में जो अनीश्वर शब्द के भीतर ईश्वर है वह उसी ईश्वर का वाचक है, यद्यपि सफाई में कुछ कमी है। आगे चौदहवें श्लोक का ईश्वर शब्द तो मालिक या शासक के ही अर्थ में आया है। हाँ, 18, 19, 20 श्लोकों में जो 'अहं' और 'माँ' शब्द आए हैं वह जरूर ईश्वर के मानी में हैं। सत्रहवें अध्याय के छठे श्लोक में 'माँ' शब्द स्पष्ट ईश्वर के अर्थ में नहीं है। किंतु जीवाभिन्न ईश्वर ही उसका आशय मालूम पड़ता है। बेशक, 27वें श्लोक में जो 'तदर्थीय' शब्द है उसका 'तत्' शब्द ईश्वरवाचक है। लेकिन वह व्यापक अर्थ में ही आया है।
अठारहवें अध्याय के 46वें श्लोक में 'तं' शब्द ईश्वर के ही मानी में आया है, चाहे स्पष्टता उतनी भले ही न हो। उससे पहले के 43वें श्लोक का ईश्वर शब्द शासक के ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। 50-58 श्लोकों में ब्रह्म और अस्मत् शब्द बार-बार आए हैं और ईश्वरार्थक हैं। यही बात 65-66 श्लोकों के 'अहं', 'मत्' आदि शब्दों की है। इस पर आगे विशेष बातें लिखी जाएँगी। 68वें श्लोक में भी यही बात है। ग्यारहवें अध्याय के 5-55 श्लोकों में 'अहं', 'माम्', 'मत्', 'मे', 'मम्', 'ऐश्वरम्' आदि शब्द ईश्वरवाची ही हैं। दसवें के 2-42 श्लोकों में भी बार-बार 'अहं' शब्द 'परमात्मावाची' ही है। यही हालत नवें अध्याय की भी है। सातवें के 29-30 श्लोक में और आठवें के शुरू के चार श्लोकों में भी ब्रह्म, अधियज्ञ आदि शब्द ईश्वर के ही अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। आगे के 'अक्षर' शब्द का भी यही मतलब है। अव्यक्त, परपुरुष आदि शब्द भी इसी मानी में आए हैं। यहाँ 'अस्मत्' शब्द के जितने रूप हैं सभी ईश्वर के ही अर्थ में हैं। सातवें अध्याय के 'वासुदेव' तथा 'अनुत्तमागति' ईश्वरार्थ कही हैं। वहाँ 'माम्', 'अहम्' आदि बार-बार आने वाले शब्द भी उसी मानी में आए हैं। छठे अध्याय की भी यही बात है। पाँचवें के 10वें श्लोक का 'ब्रह्म' शब्द और 29वें श्लोक में 'महेश्वर' शब्द निस्संदेह ईश्वरवाचक हैं। 'अहं' या 'माँ' आदि शब्द भी वैसे ही हैं। चौथे अध्याय के पहले श्लोक का 'अहं' शब्द ईश्वरार्थक है। मगर तीसरे के 'मया' और 'मे' कृष्ण के ही अर्थ में आए हैं। छठे के 'अज' एवं 'ईश्वर' शब्द ईश्वर के अर्थ में आए हैं। फिर 14 श्लोक तक 'अस्मत्' शब्द का प्रयोग भी उसी मानी में है। 23वें का यज्ञ शब्द व्यापक अर्थ में ईश्वर को भी कहता है। उसके बाद का ब्रह्म शब्द परमात्मा का ही वाचक है। 31वें में भी ब्रह्म का वही अर्थ है। 35वें का 'मयि' शब्द ईश्वरार्थ है।
तीसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में 'मया' शब्द ईश्वर के ही अर्थ में आया है। दसवें का प्रजापति ईश्वर ही है और पंदरहवें का अक्षर भी वही है। 30वें में 'मयि' शब्द ईश्वर को ही कहता है। मगर 31-32 में जो 'मे' शब्द है वह कृष्ण का वाचक है। जिस प्रकार अठारहवें अध्यावय में अत्यंत सफाई के साथ ईश्वर का जिक्र अंत में आया है, ठीक उसके उलटा दूसरे अध्याय में उसकी चर्चा तक कहीं हई नहीं! वह वहाँ कतई बेदखल कर दिया गया है! वहाँ तो आत्मा ही परमात्मा बना बैठा है। इस प्रकार स्पष्ट रूप में तो बहुत ही कम, लेकिन अस्पष्ट रूप में ईश्वर का उल्लेख गीता में पद-पद पर पाया जाता है।
इस तरह मालूम हो गया है कि गीता में ईश्वर की किसी न किसी रूप में सैकड़ों बार से ज्यादा चर्चा आई है। मगर असली रूप में हम उसे केवल अठारहवें अध्याय के 61वें श्लोक में ही साफ-साफ पाते हैं। कृष्ण ने खुद जो 'मैं' और 'मेरा' आदि के रूप में सैकड़ों बार कहा है उसमें कुछी बार अपने लिए - साकार वसुदेवपुत्र के लिए - कहा है। मगर आमतौर से अपने ईश्वरीय स्वरूप को ही लक्ष्य करके बोल गए हैं। यदि पूर्वापर का विचार करके देखा जाए या शरीरी कृष्ण में वे बातें लागू होई नहीं सकती हैं, जिनका उल्लेख उनने ऊपर बताए स्थानों में जानें कितनी बार किया है। जब चौथे अध्याय के शुरू में ही उनने कहा है कि मैंने यह योग पहले विवस्वान को बताया था और विवस्वान ने मनु को, तो यह बात शरीरी कृष्ण में कथमपि लागू हो सकती है नहीं। उसी के आगे जब अवतार की बात के प्रसंग में कहा है कि मैं समय-समय पर पैदा हो जाता हूँ, तो यह भी शरीरधारी के लिए संभव नहीं। कोई नहीं मानता कि कृष्ण बार-बार जन्म लेते हैं। यों तो हर मनुष्य भी बार-बार जन्मता ही है। मगर उसे अवतार नहीं कहते। चातुर्वर्ण्य की रचना भी कृष्ण के शरीर से नहीं होती। हालाँकि उनने कहा है कि मैं ही चातुर्वर्ण्य बनाता हूँ। सातवें अध्याय में अपने को अधियज्ञ कहा है। यह भी ईश्वर के ही लिए संभव है, न कि शरीर वाले के लिए। अधियज्ञ का आशय आगे मालूम होगा। इसी प्रकार प्रत्येक प्रसंग के देखने से पता चलता है कि आत्मज्ञान के बल से कृष्ण अपनी आत्मा को परमात्मस्वरूप ही अनुभव करते थे और वैसा ही बोलते भी थे। वह उपदेश के समय आत्मा का ब्रह्म के साथ तादात्म्य मानते हुए ही बातें करते थे। मालूम होता है, जरा भी नीचे नहीं उतरते थे! उसी ऊँचाई पर बराबर कायम रहते थे। इसीलिए तो इन उपदेशों में अपूर्व आकर्षणशक्ति और मोहनी है। बृहदारण्यक उपनिषद् में वामदेव के इसी प्रकार के अनुभव का उल्लेख आया है। वहाँ लिखा है कि 'तद्वैतत्पश्यन्नृषिर्वामदेव: प्रतिपेदेऽहं मनुरभवं सूर्यश्चेति। तदिदमप्येतहि य एवं वेदाहं ब्रह्मास्मीति स इदं सर्व भवति' (1। 4। 10)।
इसका अर्थ यह है कि 'वामदेव ऋषि को जब अपनी ब्रह्मरूपता का साक्षात्कार हो गया तो उनने कहा कि ऐं, हमीं तो मनु, सूर्य आदि बने! आज भी जिसे ठीक वैसा ही अनुभव अपनी ब्रह्मरूपता का हो जाए वह भी यही मानता है कि वही यह सारा संसार बन गया है।' संसार तो ईश्वर का ही रूप माना जाता है। गीता में तो इसकी घोषणा है। इसलिए जो अपने को ब्रह्मरूप ही मानने लगेगा वह तो यह समझेगा ही कि सारी दुनिया उसी का रूप है। कृष्ण का अनुभव ऐसा ही था। इसीलिए सातवें अध्याय के 3-12 श्लोकों में, नवें के 16-19 श्लोकों में और दसवें के प्राय: सभी श्लोकों में विभूति के रूप में उनने सबको अपना ही रूप बताया है। ग्यारहवें अध्याय में अपने आपको ही उनने कालरूपी कहा है। फलत: गीता के अहम् और मम आदि शब्दों को देख के जो ऐसा मानते हैं कि सगुण ईश्वर का वर्णन गीता में है वह भूलते हैं। अठारहवें अध्याय के 'सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं' (66) इत्यादि पूरे श्लोक में भी निर्गुण तथा निराकार से ही मतलब है, न कि साकार से। क्योंकि यदि कृष्ण का अभिप्राय अपने साकार रूप से होता तो सिर्फ 'मेरी ही शरण जाओ' - "मामेकं शरणं व्रज" की जगह वह कह देते कि मेरी ही शरण आओ - 'मामेकं शरणमाव्रज'। 'व्रज' का अर्थ है जाओ और आव्रज का अर्थ है आओ। जब वह सामने ही मौजूद थे तो जाओ कहना ठीक न था। जाओ तो परोक्ष या दूरवर्ती पदार्थ के ही लिए कहा जा सकता है। 'मामेकं शरणं चेहि' कह देने से श्लोक भी ठीक रहता। 'एहि' का अर्थ है आना। या कुछ दूसरा ही पद कह देते जिसका अर्थ आओ होता। इस पर ज्यादा विचार आगे मिलेगा।