गीतिका का तानाबाना / ओम नीरव
गीतिका इस लेखक द्वारा प्रतिष्ठित एक लोकप्रिय काव्य विधा है। इसकी परिभाषा और मुख्य लक्षण यहाँ पर स्पष्ट किये जाते हैं।
गीतिका की परिभाषा-
गीतिका हिन्दी भाषा-व्याकरण पर पल्लवित एक विशिष्ट काव्य विधा है जिसमें मुख्यतः हिन्दी छंदों पर आधारित दो-दो लयात्मक पंक्तियों के स्वतंत्र अभिव्यक्ति एवं विशेष कहन वाले पाँच या अधिक युग्म होते हैं जिनमें से प्रथम युग्म की दोनों पंक्तियाँ तुकान्त और अन्य युग्मों की पहली पंक्ति अतुकांत तथा दूसरी पंक्ति समतुकान्त होती है।
गीतिका के लक्षण
(1) हिन्दी भाषा औए हिन्दी व्याकरण
गीतिका की भाषा हिन्दी हैं जिसमें अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्दो का स्वल्प एवं सुरुचिपूर्ण प्रयोग किया जा सकता है किन्तु हिन्दी-व्याकरण का प्रयोग अनिवार्य है'। उदाहरण के लिए हिन्दी प्रधान गीतिका में' सवाल'शब्द का यथावश्यक प्रयोग तो कर सकते है लेकिन इसका बहुवचन हिन्दी व्याकरण के अनुसार' सवालों'होगा,' सवालात' नहीं।
(2) आधार छन्द
गीतिका की पंक्तियों को पद कहते हैं। गीतिका के सभी पद एक ही लय में होते हैं। इस लय को निर्धारित करने के लिए 'आधार छन्द' का प्रयोग किया जाता है। आधार छंद के रूप में हिन्दी के मापनीयुक्त और मापनीमुक्त, मात्रिक और वर्णिक सभी छंदों का प्रयोग किया जा सकता है।
(3) समान्त और पदान्त
पूरी गीतिका में तुकान्त एक सामान रहता है l तुकान्त में दो खंड होते है—अंत का जो शब्द या शब्द-समूह सभी पदों में समान होता है उसे पदान्त कहते हैं तथा उसके पहले के शब्दों में जो अंतिम अंश सामान रहता है उसे समान्त कहते हैं। कुछ गीतिकाओं में पदान्त नहीं होता है, ऐसी गीतिकाओं को 'अपदान्त गीतिका' कहते हैं।
(4) मुखड़ा
गीतिका के प्रथम दो पद तुकान्त होते हैं, इन पदों से बने युग्म को मुखड़ा कहते हैं। मुखड़ा के द्वारा ही गीतिका के समान्त और पदान्त निर्धारित होते हैं। कतिपय गीतिकाओं में एक से अधिक मुखड़े भी हो सकते हैं, तब दूसरे मुखड़े को 'रूप मुखड़ा' कहते हैं।
(5) न्यूनतम पाँच युग्म
गीतिका के दो-दो पदों को मिलाकर युग्म बनते हैं। पहले युग्म के दोनों पद तुकान्त होते हैं जिसे मुखड़ा कहते हैं और अन्य सभी युग्मों में पहला पद अतुकान्त होता है जिसे 'पूर्व पद' या 'प्रथम पद' कहते हैं और दूसरा पद तुकान्त होता है जिसे 'पूरक पद' कहते हैं। गीतिका में कम से कम पाँच युग्म होना अनिवार्य है। गीतिका में अधिकतम युग्मों की संख्या का कोई प्रतिबंध नहीं है, तथापि ग्यारह से अधिक युग्म होने पर गीतिका का मूल स्वरूप और प्रभाव प्रायः नष्ट होने लगता है। युग्म की अभिव्यक्ति अपने में स्वतंत्र होनी चाहिए अर्थात युग्म को अपने अर्थ के लिए किसी अन्य का मुखापेक्षी नहीं होना चाहिए. अंतिम युग्म में यदि रचनाकार का नाम आता है तो उसे 'मनका' कहते हैं, अन्यथा अंतिका कहते हैं।
(6) विशेष कहन
युग्म के कथ्य को इसप्रकार व्यक्त किया जाता है कि युग्म पूरा होने पर पाठक या श्रोता के हृदय में एक चमत्कारी विस्फोटक प्रभाव उत्पन्न होता है जिससे उसके मुँह से स्वतः 'वाह' निकल जाता है। इस विशेष कहन को अन्योक्ति, वक्रोक्ति या व्यंग्योक्ति के रूप में भी देखा जा सकता है। इस विशेष कहन को 'गीतिकाभास'(उर्दू में 'ग़ज़लियत' ) भी कह सकते हैं। विशेष कहन परिभाषित करना प्रायः कठिन है किन्तु इसकी कला को समझना सरल है जिसके अंतर्गत युग्म के प्रथम पद में कथ्य की प्रस्तावना की जाती है जैसे कोई धनुर्धर प्रत्यंचा पर तीर चढ़ाकर लक्ष्य का संधान करता है और फिर पूरक पद में कथ्य का विस्फोटक उदघाटन करता है जैसे धनुर्धर तीर छोड़ कर लक्ष्य पर प्रहार कर देता है।
उदाहरण-
क्षम्य कुछ भी नहीं, बात सच मानिए.
भोग ही है क्षमा, तात सच मानिए.
भाग्य तो है क्रिया की सहज प्रति-क्रिया,
हैं नियति-कर्म सहजात सच मानिए.
है कला एक बचकर निकलना सखे,
व्यर्थ ही घात-प्रतिघात, सच मानिए.
घूमते हैं समय की परिधि पर सभी,
कुछ नहीं पूर्व-पश्चात, सच मानिए.
वह अभागा गिरा मूल से, भूल पर-
कर सका जो न दृगपात सच मानिए.
सत्य का बिम्ब ही देखते हैं सभी,
आजतक सत्य अज्ञात, सच मानिए.
-स्वरचित
विन्दुवत व्याख्या:-
(1) इस गीतिका में हिन्दी भाषा और हिन्दी व्याकरण का प्रयोग किया गया है।
(2) आधार छन्द–वाचिक स्रग्विणी(मूल स्रग्विणी छन्द या वर्णवृत्त में रगण अर्थात#12 या गालगा की चार आवृत्तियों के साथ#2 वर्ण होते हैं और किसी गुरु के स्थान पर दो लघु प्रयोग करने की छूट नहीं होती है किन्तु जब इस छूट का प्रयोग किया जाता है तो इसे ' वाचिक स्रग्विणी कहते हैं) । यहाँ पर वाचिक भार के साथ वाचिक मापनी का उल्लेख किया जा रहा है।
मापनी–212#12#12#12
गालगा गालगा-गालगा गालगा
इसे मुखड़े के मात्रा-कलन में निम्नप्रकार देखा जा सकता है-
क्षम्य कुछ / भी नहीं / , बात सच / मानिए.
212 /#12 /#12 /#12 /
भोग ही / है क्षमा / , तात सच / मानिए.
212 /#12 /#12 /#12 /
(3) पूरी गीतिका का तुकान्त है-'आत सच मानिए' , जिसके दो खंड हैं-समान्त 'आत' और पदान्त 'सच मानिए'। इसे गीतिका के युग्मों में निम्नप्रकार देखा जा सकता है-
बात सच मानिए = ब् + आत सच मानिए
तात सच मानिए = त् + आत सच मानिए
जात सच मानिए = ज् + आत सच मानिए
घात सच मानिए = घ् + आत सच मानिए
चात सच मानिए = च् + आत सच मानिए
पात सच मानिए = प् + आत सच मानिए
ज्ञात सच मानिए = ग्य् + आत सच मानिए
(4) मुखड़ा निम्नप्रकार है-
क्षम्य कुछ भी नहीं, बात सच मानिए.
भोग ही है क्षमा, तात सच मानिए.
इसके दोनों पद तुकान्त हैं और इन्हीं पदों से तुकान्त 'आत सच मानिए' का निर्धारण होता है जिसका पूरी गीतिका में विधिवत निर्वाह हुआ है।
(5) न्यूनतम पाँच युग्म के प्रतिबंध का निर्वाह करते हुये इस गीतिका में छः युग्म हैं। प्रत्येक युग्म का पूर्व पद अतुकान्त तथा पूरक पद तुकान्त है। प्रत्येक युग्म की अभिव्यक्ति स्वतंत्र है। अंतिम युग्म में रचनाकार का उपनाम न आने से यह मनका की कोटि में नहीं आता है।
(6) विशिष्ट कहन की बात का निर्णय पाठक स्वयं करके देखें, जिस युग्म में वह विशेष कहन न हो उसे गीतिका का युग्म नहीं मानना चाहिए या फिर दुर्बल युग्म मानना चाहिए.
गीतिका की भाषा
गीतिका में केवल व्यावहारिक हिन्दी भाषा और हिन्दी व्याकरण ही मान्य है। इस संदर्भ में आवश्यक विंदुओं पर चर्चा यहाँ पर की जा रही है-
(1) 'गीतिका' में हिन्दी शब्दों का प्रयोग प्रमुखता से होता है किन्तु इतर भाषाओं जैसे उर्दू, अंग्रेज़ी आदि के लोक प्रचलित शब्दों का सुरुचिपूर्ण प्रयोग भी दाल में नमक के बराबर स्वीकार किया जा सकता है।
(2) यदि इतर भाषाओँ जैसे उर्दू, अंग्रेज़ी आदि के लोक-प्रचलित शब्दों का प्रयोग होता है तो उन शब्दों का प्रयोग उसी रूप में होना चाहिए जिस रूप में वे हिन्दी में बोले जाते हैं और उन शब्दों पर वर्तनी और व्याकरण हिन्दी की ही लागू होनी चाहिए. इस आधार पर किसको क्या कहा जाएगा, इसके कुछ उदाहरण बात को स्पष्ट करने के लिए दृष्टव्य हैं-
क-शह्र को शहर, नज्र को नज़र, फस्ल को फसल, नस्ल को नसल आदि।
ख-काबिले-तारीफ़ को तारीफ़ के क़ाबिल, दर्दे-दिल को दिल का दर्द आदि।
ग-दिलो-जान को दिल-जान, सुबहो-शाम को सुबह-शाम आदि।
घ-आसमां को आसमान, ज़मीं को ज़मीन आदि।
छ-अश' आर को शेरों, सवालात को सवालों, मोबाइल्स को मोबाइलों, चैनेल्स को चैनलों, अल्फ़ाज़ को लफ़्ज़ों आदि।
(3) गीतिका में मात्राभार की गणना, संधि-समास, तुकांतता या समान्तता आदि का निर्धारण सामान्यतः हिन्दी व्याकरण के अनुसार ही मान्य है, जबकि ग़ज़ल में इन बातों का निर्धारण उर्दू व्याकरण और उर्दू उच्चारण के आधार पर होता है।
उदाहरणार्थ: टीका, भावना, पूजा आदि में समान्त केवल स्वर 'आ' है जो हिन्दी गीतिका में अनुकरणीय नहीं है(यह अलग बात है कि लोकाग्रह को देखते हुए पचनीय मान लिया गया है) जबकि उर्दू काव्य में पूर्णतः अनुकरणीय है।
(4) उपर्युक्त विंदु# और# में इंगित प्रयोग हिन्दी व्याकरण के अनुरूप न होने के कारण सामान्यतः अमान्य हैं, किन्तु यदि ऐसे शब्दों का प्रयोग किसी विशेष प्रयोजनवश और विशेष काव्य-सौन्दर्य के साथ विशेष परिस्थिति में किया जाता है तो उसे पचनीय माना जा सकता है l
(5) 'गीतिका' में अग्रलिखित बातें हिन्दी भाषा-व्याकरण के अनुरूप न होने के कारण मान्य नहीं हैं, जबकि ग़ज़ल में ये बातें मान्य हैं-
क-अकार-योग(अलिफ़-वस्ल) जैसे 'हम अपना' को 'हमपना' पढ़ना।
ख-पुच्छ-लोप(हरफ़े-ज़ायद) जैसे 'पद के अंत में आने पर' कबीर'को#2 मात्राभार में' कबीर् 'या' कबी' जैसा पढना।
ग-समान्ताभास(ईता-दोष) जैसे 'चलना' और 'बचना' में समान्त दोषपूर्ण मानना।
(6) गीतिका की चर्चा में हिन्दी पदावली को प्रयोग में लाया जाता है तथापि पहले से प्रचलित उर्दू पदावली के प्रति कोई उपेक्षा का भाव नहीं रहेगा। हिन्दी पदावली के कुछ उदहारण दृष्टव्य हैं-
युग्म = शेर
प्रवाह = रवानी
पद = मिसरा
पूर्व पद = मिसरा ऊला
पूरक पद = मिसरा सानी
पदान्त = रदीफ़
समान्त = काफिया
मुखड़ा = मतला
मनका = मक़ता
मापनी = बहर
स्वरक = रुक्न
स्वरावली = अरकान
मात्रा भार = वज़्न
कलन = तख्तीअ
मौलिक मापनी = सालिम बहर
मिश्रित मापनी = मुरक्कब बहर
पदान्त-समता दोष = एबे-तकाबुले-रदीफ़
अपदान्त गीतिका = ग़ैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल
अकार योग = अलिफ़ वस्ल
पुच्छ लोप = हरफ़े-ज़ायद
धारावाही गीतिका = मुसल्सल ग़ज़ल
गीतिकाभास = ग़ज़लियत
समान्ताभास = ईता
वचनदोष = शुतुर्गुर्बा ... आदि।
(7) गीतिका के शिल्प विधान की चर्चा में स्वरकों-लगा, लगागा, गालगागा, ललगालगा आदि का प्रयोग होता है जबकि ग़ज़ल में इनके स्थान पर क्रमशः रुक्नों-फअल, मुफैलुन, फ़ाइलातुन, मुतफाइलुन आदि का प्रयोग होता है।
गीतिका क्या नहीं है?
1 गीतिका ग़ज़ल नहीं है क्योंकि ग़ज़ल की लय केवल बहर पर आधारित होती है जबकि गीतिका की लय हिन्दी के मात्रिक और वर्णिक छंदों पर आधारित होती है, ग़ज़ल में उर्दू की प्रधानता रहती है जबकि गीतिका हिन्दी-प्रधान है तथा ग़ज़ल अपने शिल्प में उर्दू के व्याकरण को मान्यता देती है जबकि गीतिका के शिल्प में केवल हिन्दी व्याकरण ही मान्य है।
2 गीतिका 'हिन्दी ग़ज़ल' नहीं है क्योंकि हिन्दी ग़ज़ल की लय केवल बहर पर आधारित होती है जबकि गीतिका की लय हिन्दी के मात्रिक और वर्णिक छंदों पर आधारित हैं।
3 गीतिका 'सजल' नहीं है क्योंकि सजल की लय का कोई आधार नहीं है जबकि गीतिका की लय का आधार हिन्दी छंद है।
4 गीतिका वह बहर से भटकी हुई ग़ज़ल भी नहीं है जिसे उसके रचनाकार समीक्षा से बचने के लिए गीतिका बोल देते हैं।
गीतिका क्या है?
वस्तुतः गीतिका एक स्वतंत्र और विशिष्ट विधा है जिसकी निश्चित परिभाषा है, जिसका निश्चित शिल्प है, जिसकी लय का निश्चित आधार हिन्दी छंद है और जिसका एक निश्चित लक्षण ग्रंथ 'गीतिका दर्पण' है।