गीतों का कारवॉं थम गया / स्मृति शुक्ला

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अपने हृदयस्पर्शी गीतों से पूरे भारतवासियों के हृदय में स्थान बनाने वाले, प्रेम को मानवीयता से जोड़ने वाले, लौकिक प्रेम को अलौकिकता की निर्द्वन्द्व यात्रा कराने वाले, अपने गीतों में आमजन के दुख-दर्दो को मुखरित करने वाले, मनुष्य-मनुष्य के बीच आँंखों के पानी से प्यार की कहानी लिखने वाले और कुछ सपनों के मरने से जीवन नहीं मरा करता है यह गाकर निराश हृदयों में आशा की उजास को भरने वाले नीरज आज भौतिक रूप से भले ही हमारे बीच न हों पर वे अपने गीतों के माधुर्य, अनुभूति की तीव्रता, अद्भुत लयात्मकता और तीव्र सम्प्रेषणीयता तथा मानवीय भावों की मार्मिक अभिव्यक्ति के कारण अमर हैं।

नीरज होने के मायने क्या हैं? हिन्दी गीत परंपरा में नीरज का क्या योगदान है? क्यों नीरज अपने गीतों के साथ करोड़ों लेागों के हृदय में निवास करते हैं? वे कौन से तत्त्व हैं जिनसे नीरज के गीतों में एक मदिरभाव प्रकट होता है फिर चाहे यह मादकता प्रेम की हो, वेदना की हो या पीड़ित मानवता के दर्द से उपजी करुणा की हो। इन तत्त्वों की पहचान किये बिना नीरज के गीतों का सही मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।

04 जनवरी 1925 को उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के पुरावली ग्राम में जन्मे नीरज के व्यापक जीवन अनुभवों ने उनके गीतों को स्पंदित किया है। पिता की मृत्यु ने उन्हें 06 वर्ष की अबोध आयु में संसार के आर्ष सत्य मृत्यु का अनुभव करा दिया था। इसके बाद बुआ-फूफा के यहाँ रहकर उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। जीवन के इन प्रारंभिक ग्यारह वर्षो में वे माँ की स्नेहसिक्त ममता की छाँव से दूर रहे। इस वैयक्तिक वेदना ने ही उन्हें विश्व वेदना को देखने की दृष्टि और संवेदना प्रदान की। अपने परिवार की चिंता ने उन्हें 17 वर्ष की आयु में ही जिम्मेदार बना दिया और वे इटावा की कचहरी में ही टाइपिस्ट का काम करने लगे। फिर दिल्ली के सप्लाई विभाग में 67 रुपये माह की नौकरी करते हुए बहुत संघर्ष किया। दिल्ली में कुछ दिन नीरज ने सांग पब्लिसिटी ऑफिस में लिट्रेरी असिस्टेण्ट के पद पर कार्य किया। इस बीच उन्होंने अपने अध्ययन के क्रम को भी जारी रखा। 1953 में नीरज ने स्नातकोत्तर की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की। 1955 तक उन्हें नौकरी नहीं मिली, तथापि इन दो वर्षो में उन्होंने कवि सम्मेलनों के माध्यम से अपनी देश व्यापी पहचान बनाई. उन्हें अपार ख्याति भी मिली। 1955 में उन्हें मेरठ विश्वविद्यालय में प्राध्यापकी मिली; लेकिन कतिपय कारणों से उन्हें यह नौकरी भी छोड़ देनी पड़ी। इस प्रकार बहुत कम उम्र में ही नीरज ने जीवन की वास्तविकता को अनुभूत कर लिया था।

नीरज की प्रथम काव्यकृति 'संघर्ष' की भूमिका में उन्होंने लिखा है-मैंने कविता लिखना किससे सीखा, यह तो मुझे याद नहीं। कब लिखना आरम्भ किया, शायद यह भी नहीं मालूम। हाँ इतना ज़रूर याद है कि गर्मी के दिन थे स्कूल की छुट्टियाँ हो चुकी थी। मेरे एक मित्र घर आए उनके हाथ में 'निशा-निमंत्रण' की एक प्रति थी। मैंने उसे खोला। इसके पहले गीत ने मुझे प्रभावित किया और पढ़ने के लिए उनसे उसे माँग लिया। पढ़ने में बहुत आनंद आया और मैंने उसे कई बार पढ़ा। उसे पढकर मुझे भी कुछ लिखने की सनक सवार हुई. बच्चनजी से में इसलिए प्रभावित था; क्योंकि उन्हें भी मेरी तरह ज़िन्दगी से बहुत लड़ना पड़ा। इस प्रकार नीरज ने अपने लेखन में 'बच्चन' के प्रभाव को स्पष्टतया स्वीकार किया है। 1946 में उनकी दूसरी कृति 'अन्तर्ध्वनि' प्रकाशित हुई और 1953 में 'विभावरी' । 'विभावरी' में नीरज ने अपना एक स्वतंत्र जीवन दर्शन और चिंतन विकसित कर लिया था और वे 'बच्चन' के प्रभाव क्षेत्र से बाहर आ गए थे।

नीरज 1967 में मुम्बई चले गए यहॉ उन्होंने सुमधुर और आत्मा की गहराइयों तक उतरने वाले लगभग 130 गीत लिखे। नायिकाओं को महान साहित्यिक कृतियों से उपमित करने वाले नीरज ही सपनो की गीतांजलि और ऐसी 'जुही की कली' लिख सकते हैं, दूसरा कोई नहीं। नीरज ने लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचकर मुबई को अलविदा कह दिया; क्योंकि केवल धन कमाकर आत्मकेन्द्रित हो जाना उनकी फितरत में नहीं था। मुंबई के इस पड़ाव को वे भावनगर से अर्थनगर की यात्रा कहते थे।

नीरज को अपने लेखन से अत्यंत लोकप्रियता और लोगों का प्यार मिला। देश के विभिन्न शहरों से महिलाओं और युवतियों ने उन्हें अनाम पत्र लिखे। इन पत्रों में जहाँ एक ओर उनके गीतों का अनुभूतिजन्य सच्चा मूल्यांकन था, तो दूसरी ओर कवि के प्रति असीम अनुराग और श्रद्धाभाव भी प्रदर्शित था। एक महिला द्वारा अंग्रेज़ी में लिखे कुछ पत्रों का अनुवाद नीरज ने 'लिख-लिख भेजत पाती' नाम से प्रकाशित भी करवाया है। उन्होंने इन पत्रों के उत्तर में जो गीत लिखे उन्हें 'नीरज की पाती' में संगृहीत कर प्रकाशित कराया। इस संग्रह के प्रारंभ में नीरज ने लिखा है-

काँपती लौ, यह सियाही, यह धुआँ, यह काजल,

उम्र सब अपनी इन्हें गीत बनाने में कटी,

कौन समझे मेरी ऑंखों की नमी का मतलब

जिन्दगी वेद थी, पर जिल्द बाँधने में कटी.

नीरज ने प्रेम में पत्रों के महत्त्व को स्वयं बड़ी शिद्दत से महसूस किया था तभी तो ये ख़त हमज़ ख़त न होकर उनके लिये हजारों रंग के नज़ारे थे जो सुबह होने पर फूल और रात होने पर सितारे बन जाते थे।

'नीरज' को अपना एक गीत 'कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे' बहुत प्रिय था। काव्यांजलि की भूमिका में उन्होंने इसका जिक्र किया है-इस गीत के कारण मुझे विश्वव्यापी लोकप्रियता मिली क्योंकि 'कारवॉ गुजर गया' यह फ्रेज हिन्दी और उर्दू भाषा-भाषियों ने पहली बार सुना। इसे मैंने 1954 में पहली बार लखनऊ रेडियो स्टेशन से पढ़ा था और रात भर में ही यह हिन्दोस्तान और पाकिस्तान दोनों जगह लोकप्रिय हो गया। श्री आर.चन्द्रा ने इस गीत की लोकप्रियता भुनाने के लिये 'नई उमर की नई फसल' में लिया। मुहम्मद रफ़ी ने जब इस गाने को अपनी आवाज़ दी तो यह फ़िल्मी गीत देश की सरहदें लाँघकर सारे विश्व में प्रसारित हो गया। इग्लैंड, अमेरिका, कैनेडा, आस्ट्रेलिया, मॉरीशस में जहाँ-जहाँ गया, वहाँ ये मेरा सिग्नेचर गीत बन गया। जिस प्रकार 'बच्चन' की 'मधुशाला' । दरअसल इस गीत में नीरज ने हिन्दू-उर्दू के शब्दों को भावों की गहराई और दर्शन की ऊँचाई में जिस तरह पिरोया है, वह ग्रहणीय है। इस गीत का अंतिम पद अवलोकनीय है-

एक रोज एक गेह, चाँद जब नया उगा

नौबतें जी हुई, हटाने और रतजगा

कुंडली बनी कि जब मुहूर्त्त पुण्यमय लगा

इसलिए कि दे सके न, मृत्यु जन्म को दगा

एक दिन न पर हुआ, उड़ गया पला सुआ

कर सके न कुछ शकुन, कर सके न कुछ दुआ

और हम डरे-डरे, नीर नयन में भरे

ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे।

चाह थी न किन्तु बार-बार देखते रहे

कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे।

नीरज ने प्राणगीत, दर्द दिया है, बादर बरस गयो, मुक्तकी, दो गीत, नीरज की पाती, गीत भी अगीत भी, आसावरी, नदी किनारे, लहर पुकारे, कारवाँ गुजर गया, फिर दीप जलेगा, तुम्हारे लिए, नीरज की गीतिकाएँ आदि कृतियों से हिन्दी-साहित्य को अनेक हृदयस्पर्शी गीत दिए हैं। गीतों के अतिरिक्त नीरज ने दोहे और ग़ज़लें भी लिखी हैं।

नीरज ने अपार लोकप्रियता पाई. अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार उन्हें मिले। भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री और पद्मभूषण सम्मान प्रदान किया। विश्व उर्दू परिषद् पुरस्कार के साथ उन्हें उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ द्वारा 'यश भारती' सम्मान प्रदान किया गया। फ़िल्म जगत् में उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार के रूप में तीन बार फ़िल्म फेयर पुरस्कार से नवाज़ा गया। उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें कैबिनेट मंत्री पद का विशेष दर्ज़ा देकर भाषा संस्थान का अध्यक्ष नामित किया था, पर नीरज को इन तमाम उपलब्धियों के बावजूद हिन्दी आलोचकों की उपेक्षा खलती रही। एक साक्षात्कार में नीरज ने यह पीड़ा व्यक्त की है कि मंचीय कवियों के साथ समीक्षकों ने अन्याय किया है। मेरे साथ ही नहीं; बल्कि मेरी पीढ़ी के अन्य गीतकारों यथा गोपाल सिंह नेपाली, बलवीर सिंह रंग, चंद्रप्रकाश वर्मा, देवराज दिनेश, रामावतार त्यागी, रमानाथ अवस्थी, वीरेन्द्र मिश्रा, सोम ठाकुर आदि का समुचित मूल्यांकन नहीं हुआ। गीत देश के सामूहिक मन को छूते हैं। मैंने कविता को जीवन की आवश्यकता मानकर लिखा है। (आजकल दिस। 2004) आलोचक क्षेमचन्द्र सुमन ने लिखा है कि उनकी प्रारंभिक रचनाओ में यदि घोर निराशा, अतृप्ति, वेदना विवशता और आकुलता है, तो बाद की रचनाओं में प्रेम का प्राधान्य है। नीरज के मन में घृणा, दंभ, द्वेष और वैषम्य के संहार का जो अहम है, उसके समर्पण का ही नाम प्रेम है। इस प्रेम की दो परिणतियाँ हैं-एक विश्व-प्रेम और दूसरा ईश्वर प्रेम। यही प्रेम उनकी कविता का मूल स्वर है। तभी तो वे लिख सके कि 'आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ'। प्रख्यात साहित्यकार पंकज मिश्र लिखते हैं कि शुरूआाती दौर में, मैं नीरज को रूमानी कवि समझता था। यह बात मैने नीरज से कह दी थी कि आप समय और समाज से कटे हुए रूमानी कवि हैं। इस बात पर नीरज तनिक भी गुस्सा नहीं हुए और उन्होंने जवाब दिया-मैं जनता का कवि हूँ, जनवादी कवि हूँ। मैं मनुष्य और मनुष्यता को तोड़ने वाली दीवारों का कड़ा विरोधी हूँ। मेरी निष्ठा जातिविहीन और वर्गविहीन समाज में है। पाकिस्तान के नाम एक गीत में वे लिखते हैं-

हम नहीं हिन्दू-मुसलमाँ, हम नहीं शेखो-बिरहमन

हम नहीं काजी-पुरोहित, हम नहीं रामू-रहीमन

भेद से आगे खड़े हम, फर्क से अनजान हैं हम

प्यार है मज़हब हमारा और बस इंसान हैं हम।

नीरज के अनेक गीतों में जीवन की युग व्यापी समस्याओं, विसंगतियों की यथार्थ अभिव्यक्ति के साथ गहरे क्षोभ की अभिव्यक्ति है-

अब उजालों को यहाँ वनवास ही लेना पड़ेगा

सूर्य के बेटे अँधेरों का समर्थन कर रहे हैं,

इस कदर अमरित सरे बाज़ार अपमानित हुआ है

हो गया है भाव ऊँचा सब दुकानों पर जहर का।

नीरज के अनेक गीतों में गहरी दार्शनिकता है जो कही-कहीं मध्ययुगीन संत कबीर की बराबरी में जा बैठती है। संसार की नश्वरता को वे अपने गीत में ठीक कबीर के गीत मत कर तू अभिमान रे बंदे की भाँति व्यक्त करते हैं:-

मत क! रूप का अभिमान

कब्र है धरती, कफन है आसमान।

हर पखेरू का यहाँ नीड़ मरघट पर

है बँधी हर एक नैया मृत्यु के तट पर

खुद-ब-खुद चलती हुई यह देह अर्थी है,

प्राण है प्यासा पथिक संसार पनघट है।

नीरज ने हमारे आसपास बिखरे प्राकृतिक सौन्दर्य और जन-जीवन से प्रतीक लेकर बड़ी गहरी और गंभीर बातें कही हैं। मेले में चूड़ी बेचने वाली मनहारिन के माध्यम से सांसारिक मोहमाया को अभिव्यक्त किया है। लेकिन कंगन को प्रतीक बनाकर संसार से बिदा लेने वाले क्षण को भी गीतों में ढाल दिया है-

जब तक कुछ अपनी कहू, सुनूँ जग के मन की

जब तक ले डोली द्वार विदा क्षण आ पहुँचा।

समग्रतः नीरज के गीतों में प्रकृति, सौन्दर्य और प्रेम की अभिव्यक्ति है। उनके गीतों के शिल्प पक्ष की सामर्थ्य उनकी सहज सरल और प्रतीकों से युक्त भाषा है। क्षेमचन्द्र सुमन ने 'काव्यांजलि' की भूमिका में लिखा है कि नीरज की रचनाओं को हम शैली की दृष्टि से दार्शनिक, लोकगीतात्मक, चित्रात्मक और संस्कृतनिष्ठ आदि विभिन्न रूपों में विभक्त कर सकते हैं। दार्शनिक ' शैली में वे प्रतीक-प्रधान व्यंजना के द्वारा सीधे-सादे ढंग से अपनी बात कहते चलते हैं।

नीरज कवि की गरिमा और दायित्व को भली-भाँति जानते थे और इसका निर्वाह उन्होंने ताउम्र किया। वे शब्दों में व्यक्त आत्मा के सौन्दर्य को ही कविता मानते थे और कवि होने को सौभाग्य।

नि: संदेह नीरज अत्यंत सौभाग्यशाली कवि हैं, जो अपने जीवनकाल में ही अपने गीतों के कारण अमरत्व प्राप्त कर चुके हैं। अंत में उनका यह दोहा उन्हें समर्पित है-

आत्मा के सौन्दर्य का शब्द रूप है काव्य।

मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य॥