गीत का ताना-बाना / ओम नीरव
गीत काव्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है। पर्व-त्यौहार से लेकर फ़िल्म संसार तक और खेत-खलिहान से लेकर साहित्य-जगत तक गीतों का वर्चस्व सहज ही देखा जा सकता है। प्रायः सभी रचनाकार किसी न किसी रूप में गीत रचने की इच्छा रखते हैं और प्रायः सभी काव्य प्रेमी सहृदय व्यक्ति अवसर मिलने पर गीत गाने-गुनगुनाने की इच्छा रखते हैं। जब गीत अपेक्षित शिल्प में सधा होता है तो उसे सस्वर पढ़ने, गाने या गुनगुनाने में विलक्षण आनंद की अनुभूति होती है और इससे स्वयं रचनाकार को एक अवर्णनीय सुख की अनुभूति होती है। इसके विपरीत जब गीत अपेक्षित शिल्प से विचलित होता है तो उसे गाने में खींच-तान करनी पड़ती है जिसमें पाठक और रचनाकर दोनों का रसानंद बाधित होता है। इसलिए प्रत्येक रचनाकार के लिए आवश्यक हो जाता है कि वह गीत रचने के पहले उसका तानाबाना अवश्य समझ ले। आइये इस आलेख में हम गीत-विधा के शिल्प और भाव पक्ष पर विस्तार से चर्चा करते हैं।
कुछ बातें हैं जो गीत को अन्य काव्य विधाओं से अलग पहचान देती हैं, पहले उन बातों को समझना आवश्यक है।
गीत के लक्षण
(1) मुखड़ा-इसमें प्रायः एक से चार तक पंक्तियाँ होती है जो प्रायः सामान लय में होती हैं। यह लय किसी सनातनी छंद या लौकिक छंद या मापनी या स्वेच्छा पर आधारित हो सकती है। कुछ गीतों में मुखड़े की पंक्तियों की लय एक दूसरे से भिन्न भी हो सकती है।
(2) टेक-मुखड़े की एक पंक्ति ऐसी होती है जो अंतरे के अंत में जोड़कर गाई जाती है, इसे टेक कहते है!
(3) अन्तरा-गीत में दो या अधिक अंतरे होते हैं। प्रत्येक अंतरे में प्रायः तीन या अधिक लयात्मक पंक्तियाँ होती हैं। इनमे से अंतिम पंक्ति को पूरक पंक्ति तथा शेष को प्राथमिक पंक्तियाँ कहते हैं। प्राथमिक पंक्तियों का तुकांत विधान स्वैच्छिक होता है किन्तु जो भी होता है वह सभी अंतरों में एक समान होता है।
(4) पूरक पंक्ति-अंतरे की अंतिम पंक्ति को पूरक पंक्ति कहते हैं, इसके साथ टेक को मिलाकर गाया जाता है। पूरक पंक्तियों और टेक का तुकांत एक समान होता है। प्रायः दोनों की लय भी एक समान होती है किन्तु कभी-कभी भिन्न भी होती है लेकिन तब लय में निरंतरता अनिवार्य होती है।
(5) तुकांत एवं लय विधान-एक अंतरे में तुकांत और लय का जो क्रम या विधान निर्धारित हो जाता है उसका अनुपालन सभी अंतरों में अनिवार्य होता है। इसके साथ आदि से अंत तक लय में निरंतरता भी अनिवार्य होती है!
उदाहरण
उदाहरण के रूप में एक गीत प्रस्तुत है—
फुर्र से चिड़िया उड़ी, चिड़िया उड़ी।
आपकी सुधि आ जुड़ी, सुधि आ जुड़ी।
नीड़ कोई हो गया रीता कहीं,
रात-सा कोई दिवस बीता कहीं।
रो पड़ी उद्यान की हर पंखुड़ी,
फुर्र से चिड़िया उड़ी, चिड़िया उड़ी।
उड़ गयी तो उड़ गयी लौटी नहीं,
खो गयी आकाश में जाकर कहीं।
राह कैसी जो न फिर वापस मुड़ी,
फुर्र से चिड़िया उड़ी, चिड़िया उड़ी।
मुक्त आँगन में फुदकना अब कहाँ,
देख नन्हों का ठुनकना अब कहाँ।
चाल आकाशी हुई वह बाँकुड़ी,
फुर्र से चिड़िया उड़ी, चिड़िया उड़ी।
-ओम नीरव ।
विन्दुवत व्याख्या-
(1) (2) इस गीत में दो पंक्तियों का मुखड़ा है, जिसकी पहली पंक्ति टेक है-
फुर्र से चिड़िया उड़ी, चिड़िया उड़ी। (टेक)
आपकी सुधि आ जुड़ी, सुधि आ जुड़ी।
इस गीत की सभी पंक्तियों का आधार छंद मापनीयुक्त मात्रिक छंद 'आनंदवर्धक' है जिसकी मापनी निम्नप्रकार है-
फुर्र से चिड़ि / या उड़ी, चिड़ि / या उड़ी
2122 / 2122 / 212 अथवा
गालगागा गालगागा गालगा
(3) (4) इस गीत में तीन अंतरे हैं, प्रत्येक अंतरे में तीन पंक्तियाँ है जिनमें से दो प्राथमिक पंक्तियाँ और तीसरी पूरक पंक्ति है। पूरक पंक्ति के साथ टेक को दुहराया गया है। इस दृष्टि से पहला अंतरा दृष्टव्य है-
नीड़ कोई हो गया रीता कहीं,
रात-सा कोई दिवस बीता कहीं।
रो पडी उद्यान की हर पंखुड़ी, (पूरक पंक्ति)
फुर्र से चिड़िया उड़ी, चिड़िया उड़ी। (टेक)
(5) टेक और सभी पूरक पंक्तियों का तुकांत 'उड़ी' समान है, कुछ इस प्रकार-
फुर्र से चिड़िया उड़ी, चिड़िया (उड़ी) ।
रो पडी उद्यान की हर पंख् (उड़ी) ।
राह कैसी जो न फिर वापस म् (उड़ी) ।
चाल आकाशी हुई वह बाँक् (उड़ी) ।
अंतरों के तुकांत अलग-अलग हैं, जैसे-
पहले अंतरे का तुकांत-'ईता कहीं'
दूसरे अंतरे का तुकांत- 'अहीं'
तीसरे अंतरे का तुकांत-'अकना अब कहाँ'
लय का आधार छंद 'आनंदवर्धक' सभी पंक्तियों में समान है।
विशेष
(1) कुछ गीतों में सभी पंक्तियों की लय समान होती है अर्थात सभी पंक्तियों का आधार छंद एक ही होता है जबकि कुछ अन्य गीतों में एक से अधिक आधार छंदों का प्रयोग होता है। दूसरे विकल्प में प्रायः पूरक पंक्ति का आधार छंद प्राथमिक पंक्तियों के आधार छंद से भिन्न होता है।
(2) जब अंतरे मैं प्राथमिक पंक्तियाँ दो होती है तो वे अनिवार्यतः तुकांत होती हैं।
(3) जब अंतरे में प्राथमिक पंक्तियाँ तीन होती हैं तो तीनों तुकांत हो सकती हैं अथवा पहली और तीसरी पंक्ति तुकांत तथा दूसरी पंक्ति अतुकांत हो सकती है अथवा दूसरी और तीसरी पंक्ति तुकांत तथा पहली पंक्ति अतुकांत हो सकती है। ऐसे अंतरे बहुत कम देखे गये हैं।
(4) जब अंतरे में प्राथमिक पंक्तियाँ चार होती है तब क्रमागत दो-दो पंक्तियाँ तुकांत हो सकती हैं अथवा पहली, दूसरी और चौथी पंक्ति तुकांत तथा तीसरी पंक्ति अतुकांत हो सकती है अथवा दूसरी और चौथी पंक्ति तुकांत तथा पहली और तीसरी पंक्ति अतुकांत हो सकती है।
(5) इसी प्रकार पाँच या अधिक पंक्तियाँ होने पर तुकांत विधान का स्वैच्छिक चयन किया जा सकता है किन्तु उसका निर्वाह सभी अंतरों में अनिवार्य हो जाता है। अंतरे में प्राथमिक पंक्तियों की संख्या बहुत अधिक होने पर गीत का सौन्दर्य घटने लगता है।
(6) गीतों का आधार छंद मात्रिक ही नहीं अपितु वर्णिक भी हो सकता है। उदाहरण के लिए मात्रिक छंद पर आधारित मुखड़ा के साथ मनहर घनाक्षरी छंद पर आधारित अंतरे प्रयोग करते हुए बहुत सुंदर गीत रचा जा सकता है।
(7) गीत में गेयता अर्थात लय मुख्य है जिसे निर्धारित करने का साधन छंद या मापनी है।
भावप्रवणता
गीत किसी एक भावभूमि पर रचा जाता है। मुखड़े में गीत की भूमिका होती है और इसे कुछ इसप्रकार रचा जाता है जिससे गीत की विषयवस्तु के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न हो। इसमें से उस पंक्ति को टेक के रूप में चुना जाता है जिसका भावात्मक तालमेल प्रत्येक अंतरे की पूरक पंक्ति के साथ स्थापित हो सके. प्रत्येक अंतरा गीत के केंद्रीय भाव के परितः चक्रण करता हुआ तथा उसी की पुष्टि करता हुआ प्रतीत होता है। गीत जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे पाठक या श्रोता उसकी भवभूमि में उतरता चला जाता है और समापन होते-होते वह उस भावभूमि में डूब जाता है। एक उत्तम गीत के प्रत्येक अंतरे की प्राथमिक पंक्तियों में विषय का संधान किया जाता है और पूरक पंक्ति में प्रहार किया जाता है और इसी प्रहार के साथ जब टेक को दुहराया जाता है तो भावविभोर श्रोता बरबस झूम उठता है और उसके मुँह से 'वाह' निकल जाती है। इस स्थिति में श्रोता को उस अनिर्वाचनीय रसानंद की अनुभूति होती है जिसे ब्रह्मानन्द के समतुल्य माना गया है।
लालित्य
गीत में सटीक उपमान, भावानुरूप शब्द-संयोजन, मुहावरे और लोकोक्तियाँ सुरुचिपूर्वक प्रयोग करने से विशेष लालित्य उत्पन्न होता है। इसके साथ नवीन प्रतीकों और बिम्ब योजनाओं के प्रयोग से गीत का लालित्य बहुगुणित हो जाता है। ध्यान रहे कि नवीनता के संवरण में गीत की भावप्रवणता कदापि बाधित नहीं होनी चाहिए. गीत की संरचना ऐसी होनी चाहिए कि पढ़ने और समझने के बीच अधिक समय न लगे अर्थात गीत को पढ़ते या सुनते ही उसका भाव स्पष्ट हो जाये अन्यथा अभिव्यक्ति में अंतराल दोष आ जाता है जो रसानंद में बाधक होता है।
गीत कैसे रचें
प्रारम्भिक अवस्था में गीत रचने के लिए अनुकरण सबसे अच्छा और व्यावहारिक साधन है। यदि आपके मन में कोई गीत बसा हुआ है तो उसे मुक्त कंठ से लय में गाइए और उसकी लय को मन में बसाइए. साथ ही यह भी देखिये कि उसकी किन-किन पंक्तियों में तुकांत मिलाया गया है। इसप्रकार लय और तुकांत की पूरी व्यवस्था को ठीक से आत्मसात कर लीजिये और गुनगुनाते हुए उसी लय पर उसी व्यवस्था में अपने मनोभावों को व्यक्त कीजिये। गीत बनने लगेगा। जब पूरा गीत बन जाये तो ऊपर वर्णित मानकों की कसौटी पर उसे कसकर देख लीजिए, कहीं सुधार की आवश्यकता हो तो सुधार कर लीजिए. इस प्रक्रिया में समर्थ गीतकारों या जानकारों की सहायता लेना भी बहुत उपयोगी होता है। जब इस गीत को लोगों के बीच सुनाइए तो ध्यान दीजिये कि आपके अंतरों पर 'वाह' कितनी मात्रा पर मिलती है। जिस अंतरे पर वाह न मिले या बहुत कम मिले उसपर पुनर्विचार कीजिये और यथावश्यक सुधार करने में संकोच मत कीजिये। इस प्रक्रिया पर चलते हुए आप सरलता से एक अच्छे गीतकार बन सकते हैं। -ओम नीरव