गीली घास / नीरजा हेमेन्द्र
अंकिता के व्याह को पच्चीस वर्ष पूरे होने में बस एक सप्ताह शेष रह गए हैं। आगामी बारह दिसम्बर को उसके ब्याह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ है। निर्मल कितने प्रसन्न हैं। वह अपनी शादी की इस वर्षगाँठ को स्मरणीय बनाना चाहते हैं। उन्होने इस दिन के लिए कुछ विशेष तैयारियाँ पहले से कर लीं हैं। मसलन, एक भव्य पार्टी, अतिथियों का स्वागत, खाना-पीना, पार्टी के लिए उपयुक्त स्थान इत्यादि। निर्मल एक निजी कम्पनी में वरिष्ठ प्रबन्धक के पद पर कार्यरत हैं। उम्र पचास वर्ष के आस-पास। बालों में यत्र-तत्र बिखरी सफेदी तथा तथा आँखों पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा उनकी उम्र का आंकलन करने के लिए पर्याप्त हैं। किन्तु अंकिता ने निर्मल की बढ़ती उम्र की तरफ कभी ध्यान ही न दिया। यूँ कहें कि जीवन के भागदौड़ ने इतना समय न दिया कि वह पीछे मुड़ कर व्यतीत हो चुके समय को दिनोें, महीनों, वर्षों में बाँध सके। निर्मल एक निजी कम्पनी में वरिष्ठ प्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं। अंकिता के नेत्रों के समक्ष उन दिनों की स्मृतियाँ सजीव होने लगीं जब वह युवती थी। शादी के पश्चात् सुनहरे सपनों को पलकों पर सजाये वह ससुराल आ गयी।
निर्मल का परिवार एक मध्यम वर्गीय परिवार था। परिवार के सदस्यों के विचारों से तालमेल बिठाते हुए, खट्टे-मीठे अनुभवों को आत्मसात् करते हुए उसके दिन व्यतीत होने लगे। निर्मल उसका बहुत ध्यान रखते थे। विवाह के डेढ़ वर्ष पश्चात् क्षितिज उसकी गोद में आ गया। परिवार के सदस्यों का प्यार उसके प्रति थोड़ा-सा बढ़ गया। उसका कारण कदाचित् पुत्र का होना था। उसे ऐसा अनुभव भी हुआ कि पुत्री के होने पर परिवार के सदस्यों के स्नेह में इतनी वृद्धि कदापि होती। निर्मल भी बहुत प्रसन्न थे।
दिन मानों पंख लगा कर उड़ते जा रहे थे। इसी बीच पदोन्नति के पश्चात् निर्मल का तबादला दूसरे शहर में हो गया। वहाँ मेरी दूसरी सन्तान पुत्री के रूप में हुई। मंैने व निर्मल ने अपना सम्पूर्ण स्नेह बच्चों को दिया। निर्मल अपनी आर्थिक स्थिति से अधिक बच्चों पर खर्च करना चाहते थे। बच्चों की शिक्षा अच्छे कॉलेज से हो यह उनकी बड़ी इच्छा थी। इसके लिये उन्होंने आर्थिक कठिनाइयाँ उठाई, किन्तु इनकी शिक्षा से कोई समझौता नही किया। घर-गृहस्थी के रोजमर्रा के कार्यों, समस्याओं को निपटाते दो प्यारे-से बच्चों के साथ निर्मल के संरक्षण में सुनहरे दिन पंख लगा कर उड़ते जा रहे थे।
छुट्टियों में वह बच्चों के साथ कभी अपने माता-पिता के घर मैके चली जाती, तो कभी निर्मल के घर ससुराल। मौसम अपना रंग बदलता रहा। कभी तपिश के रूप में तो कभी रिमझिम फुहारों के रूप में, कभी कठोर सर्द दिनों के रूप में तो कभी अमराईयों से लुकाछिपी खेलता वसंत के रूप में।
समय का चक्र अपनी गति से चलता रहा। मेरी पुत्री सारा दस वर्ष की हो गयी। वह बहुत संवेदनशील बालिका थी। गर्मियों की छुट्टियों में मैं ससुराल गयी। निर्मल की माता जी का दृष्टिकोण मेरी पुत्री सारा के प्रति बदला-सा लगा। वही पुराना पुत्र-पुत्री के दकियानूसी सोच से ओत-प्रोत। ऐसा लग रहा था मानो वह अभी से मेरी अबोध पुत्री को जीवन की समस्त जिम्मेदारियाँ उठाने योग्य बना देना चाहतीं हों। घर के तमाम कार्यों के लिए जब-तब उसे पुकारना तथा कार्यों में कुछ कमी की स्थिति में आलोचनाओं की झड़ी लगा देना। वक्त-बेवक्त, आराम के समय भी उसे उठा देना उनकी आदत बन गयी थी। यह सब देख कर कभी-कभी उनका प्रतिकार करने की मेरी तीब्र इच्छा होने लगती, किन्तु घर का माहौल तनावपूर्ण न हो जाए यह सोच कर निर्मल मुझे ऐसा करने से मना कर देते।
समय का पहिया अपनी गति से घूमता रहा। पलों को अपनी आगोश में समेटते हुए दिन-रात ढ़लने लगे। खूबसूरत ऋतुएँ वक्त के पन्नों पर अपनी दस्तक देतीं और चली जातीं। पल दिनों में, दिन वर्षों में तब्दील हो कर व्यतीत होने लगे। मेरे दोनो बच्चे क्षितिज और सारा दो नन्हें परिन्दों की भाँति नीड़ से निकल कर दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाने के लिए प्रयत्नशील रहने लगे। देखते-देखते कब क्षितिज की इन्जीनियरिंग की शिक्षा पूर्ण हो गयी, पता ही नही चला। क्षितिज की नौकरी बंगलूरू में एक निजी कम्पनी में लग गयी। सारा ने भी एम0बी0ए0 में प्रवेश ले लिया।
क्षितिज को नौकरी करते हुए लगभग डेढ़ वर्ष ही हुए होंगे। एक दिन उसने अपने साथ कार्यरत लड़की से विवाह की इच्छा प्रकट की। हमने अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत न होने के पश्चात् भी क्षितिज का ब्याह धूम-धाम से कर दिया। सारा भी भाई की शादी से अत्यन्त प्रसन्न थी।
विवाह के पश्चात् क्षितिज का फोन आना कुछ कम हो गया। जब कभी उससे फोन पर बातें होतीं तो यही प्रतीत होता कि वह अपना घर-संसार सवारनें में
व्यस्त हो चुका है। उसके पास हमारे लिए समय की कमी है। उम्र के इस पड़ाव पर जहाँ अकेलापन धीरे-धीरे हृदय द्वार पर दस्तक देना प्रारम्भ कर देता है, सारा ने हमारे हृदय उद्यान को पुष्पित, पल्लवित रखा। वह घर में होती तो मैं निश्चिन्त हो कर घर के कार्यों को निपटाती। कॉलेज से आ कर वह अपने कॉलेज की तमाम बातें बताती। दिन में व्यतीत हुए किसी हास्य प्रसंग पर मैं भी उसके साथ खिलखिला कर हँस पड़ती। सारा ने हमारे अकेलेपन को खुश्यिों से भर दिया था।
क्षितिज के लिए मेरा मन फिक्रमन्द रहता। वह दिन में एक-दो बार फोन कर लेता। शाम को निर्मल से भी बातें हो जातीं। इस प्रकार उसका कुशलक्षेम पता चलता रहता। बहू से भी बातें हो जातीं। मन बड़ा ही निश्चिन्तता का अनुभव करता कि मेरे बेटे-बहू अच्छे हैं। कम से कम अपने माता-पिता के लिए सोचते हैं।
दिन धीरे-धीरे व्यतीत होते जा रहे थे। मौसम के साथ समय भी कब परिवर्तित हो जाये यह किसी को ज्ञात नही होता। क्षितिज का फोन आना इधर कम होने लगा। मैं और निर्मल फोन से प्रतिदिन बेटे-बहू का हाल-चाल पूछ लेते।
आज हमारी शादी की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर हमने अपने समस्त नाते रिश्तेदारों को आमंत्रित किया है। मेरे भाई-भाभी, दीदी, ननद का परिवार एक दिन पूर्व आ गया। क्षितिज वर्षगाँठ के दिन ही बहू के साथ आया। आशा थी कि वह कुछ दिनों पहले से आकर हमारी तैयारियों व खुशियों में शरीक होगा, किन्तु उसने बताया कि उसे आॅफिस से अवकाश ही नही मिला। सारा उस दिन बहुत प्रसन्न थी। उसके चेहरे पर एक आकर्षण था जो हर युवा लड़की के चेहरे पर होता है। उसकी निश्छल मासूमियत उसके युवा आकर्षण को और बढ़ा रही थी तथा उसे अन्य लड़कियों से कुछ अलग कर रही थी। वह घर के कार्यों में प्रफुल्लित हो कर हाथ बँटा रही थी।
देर रात तक सभी मेहमान भोजन कर के चले गये। घर में कुछ सगे रिश्तेदार ही बचे थे जिन्हे एक-दो दिन रूक कर जाना था। मेरे हृदय को उस समय बहुत धक्का लगा जब क्षितिज देर रात की ट्रेन से जाने की तैयारी करने लगा। उसके व्यवहार मे भी मुझे परिवर्तन नज़र आया। मैं सोच रही थी कि क्षितिज एकाध दिन रूकता। माता-पिता के साथ अपनी बातें बताता तथा उनकी गुजरी बातों को सुनता। कुछ पीड़ायें मैं क्षितिज से कह लेती तो मन हल्का हो जाता, लेकिन धीरे-धीरे हमारे और क्षितिज के बीच कब परायापन पसर गया यह मुझे पता ही नही चला। हमारे घर के साथ ही साथ मेरे व निर्मल के हृदय में भी सन्नाटा कर के क्षितिज बहू के साथ चला गया। हृदय के सन्न्नाटे की इस पीड़ा की अनुभूति किसी को नही हो सकती थी, क्षितिज को तो कदापि नही।
दूसरे दिन घर के कार्यों से समय निकाल कर मैं अन्य रिश्तेदारों के पास आ कर बैठ गयी। सारा भी थकी-सी थी तथा भाई के चले जानेे के कारण कुछ उदास-सी। वह भी आ कर हमारे पास बैठ गयी। निर्मल की माता जी ने सारा को देखा तो कुछ इधर-उधर की बातें करने लगीं। वह सारा को उपदेश देने की भूमिका बना रही थीं। वह सारा से बताने लगीं कि -लड़कियों को बड़ों की किसी बात का प्रत्युत्तर नही देना चाहिए, वोेेेे बातें ग़लत ही क्यों न हों। घर के सारे कार्यों को करना चाहिए। हमेशा चुप तथा झुक कर रहना चाहिए। लड़कों से समानता कभी नही करनी चाहिए....इत्यादि...।” मैने प्रतिकार करना चाहा तो निर्मल ने मुझे पुनः रोक दिया। सारा रूआँसी हो कर दकियानूसी बातों को सुनती रही।उन्हांेने पुनः कहना प्रारम्भ कर दिया कि “लड़कियों को घास की भाँति होना चाहिए।” मैं समझ न सकी घास का क्या अर्थ है। नर्म या पैरों तले रौंदी जाने वाली। यदि नर्म से तात्पर्य है तो सारा कोमल हृदय, संवेदनशील तथा परिश्रमी बच्ची है।
घीरे-घीरे सभी मेहमान चले गये हैं। मुझे व निर्मल को कभी-कभी अत्यन्त अकेलेपन की अनुभूति होने लगती है। सारा ही हमारी खुशियों का केन्द्रबिन्दु बन गयी है। क्षितिज का फोन कम आने लगा है। मैं, निर्मल व सारा ही उसे फोन करते हैं। क्षितिज अनमने भाव से उत्तर देता है। सारा पढ़ाई के साथ ही साथ मेरा व निर्मल का बाहर का कार्य भी करती है। वह अपनी शिक्षा के अतिरिक्त हमारा ध्यान भी रखती है। उसकी सेवा भाव, कर्मठता व कत्र्तव्यों के प्रति लगन देख कर मुझे उस पर गर्व होता है, तथा बेटा-बेटी में फर्क करने वाले लोगों व उनके कुत्सित विचारों से घृणा। सारा ने मेरे व निर्मल के जीवन में सम्पूर्णता भर दी है। वह घास की तरह नर्म ही नही बल्कि गीली घास की तरह नर्म, जीवनदायिनी व शीतलता का अहसास देने वाली है।