गीले आखर’ (चोका संग्रह) / सुरंगमा यादव

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श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' एवं डॉ. भावना कुँअर द्वारा संपादित चोका संग्रह 'गीले आखर' में नए-पुराने कुल 21 रचनाकारों के उत्कृष्ट चोका संकलित हैं। इस चोका संग्रह की सर्वप्रमुख विशेषता यह है कि इसमें भाव, विचार और संवेदना की कसौटी पर खरी उतरने वाली रचनाओं को ही स्थान दिया गया है। संपादक द्वय का उद्देश्य श्रेष्ठ रचना और रचनाकारों को प्रकाश में लाना है। 'चोका' हाइकु परिवार की ही एक शैली है। इसका श्ल्पि भी वर्ण-क्रमानुसार है। 5-7-5-7 वर्ण क्रम में लिखे गये चोका में अनेक चरण हो सकते हैं, जब तक भावों की शृंखला चलती रहे, चरणों का क्रम बढ़ता रहेगा; परन्तु अन्तिम दो चरणों में 7-7 वर्ण होने आवश्यक हैं।

सद्यः प्रकाशित चोका संग्रह 'गीले आखर' भाव और शिल्प दोनों दृष्टियों से खरा उतरता है। विषय-वैविध्य एवं भावप्रवणता इस संग्रह की विशिष्टता है। प्रकृति का मनोहारी चित्रण, गहन प्रेम की अभिव्यक्ति, स्मृतियों की पूँजी, बेमानी होते रिश्ते, जीवन संघर्षों से हार न मानने वाला मन, पर्यावरण की चिन्ता, नारी संघर्ष की गाथा आदि की सशक्त भावाव्यक्ति हमें इसमें देखने को मिलती है। श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जापानी काव्य विधाओं के प्रचार-प्रसार के लिए जिस प्रकार समर्पित हैं, वैसी लगन अन्यत्र दुर्लभ है। इसके लिए आप कोटिशः साधुवाद के पात्र हैं। आपके मन की कोमलता आपकी रचनाओं में सर्वत्र व्याप्त है। प्रेम एक ऐसा शाश्वत तत्त्व है जो देश, काल और जन्मों की सीमा से परे है। यह सृष्टि का आदि से अन्त तक व्याप्त रहने वाला तत्त्व है। प्रेम का उदात्त चित्रण कविता को गम्भीरता प्रदान करता है। प्रेम की मादकता और मधुरता काम्बोज जी की रचनाओं में घुल-मिल गयी है। प्रेम के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का आपने बखूबी चित्रण किया है-

चूमा था भाल / खिले नैनों के ताल / चूमे नयन / विलीन हुई पीर / चूमे कपोल / था बिखरा अबीर / भीगे अधर / पीकर मधुमास / ज्यों ही थे चूमें / खिला था रोम-रोम... (पृ014)

उनकी रचनाओं में समर्पण का भाव देखते ही बनता है-

कण-कण से / जो कभी मैंने पाया / दे दूँ तुझको / नयन मिले जब / छोड़ सभी को / मैं रूप भरूँ, देखूँ / सिर्फ तुम्हीं को (पृ0 19)

प्रिय मिलन की स्मृतियाँ भी कम मादक नहीं होती हैं। मन बार-बार उन्हीं क्षणों को पाने के लिए आतुर रहता है। प्रिय का आमंत्रण मिलते ही मानों आशाएँ गुंजायमान हो जाती हैं-

ये आलिंगन / हमारे नयनों के / अमृतरस / मैं आकण्ठ निमग्न / हर्षित मन / उद्वेलित-सा तन / चलचित्र से / घूमे मेरी स्मृति में / वे संस्मरण... (कविता भट्ट, पृ0 63)

कभी-कभी सर्वस्व सर्मपण के बाद भी प्रेम बिन्दु दुर्लभ ही बना रहता है। यह पीड़ा इतनी व्यापक

होती है, जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। प्रिय के रंग में रंगने के बाद भी सूनापन मन को सालता रहता है। प्रेम का कोई विकल्प नहीं है इसीलिए मन, प्रिय प्रेम की आकांक्षा में कुछ भी करने को तत्पर रहता है-

क्या बन जाऊँ! / जो पी के मन भाऊँ / सारे सपने / अपने बिसराऊँ / स्वप्न पिया के / मैं नयन बसाऊँ / ...तब शायद / पिया के मन भाऊँ / प्रेम-बूँद पा जाऊँ (सुरंगमा यादव, पृ0 128)

इसी प्रकार मन मंदिर में प्रिय की मूरत बसा कर मन प्रेम-आराधक बन जाता है और प्रेम को ही पूजा मान लेता है, परन्तु अपने देवता से प्रसाद स्वरूप प्रेम-अंजुरी पाने की आशा भी रखता। जब यह आशा पूर्ण नहीं होती तो पीड़ा से भर उठता है-

नित वन्दन / मैं करती रही हूँ / तेरा ही प्रिय / मंदिर की पूजा-सा / मेरा प्रेम है / दीपशिखा-सी जली / किया प्रकाश / तेरे घर आँगन / रही पालती / भ्रम मन में यह / मंदिर-सा ही / कभी न कभी तुम / मेरे देवता / प्रसाद में दोगे ही / प्रेम अँजुरी... (कविता भट्ट, पृ0 66-67)

युग बदला, परिस्थितियाँ बदलीं लेकिन नारी जीवन की व्यथा अब भी उसकी कथा बनी हुई है। आँखों में आँसू लेकर मुस्कराना उसकी नियति बन चुकी है। परिवार जिसके लिए वह सर्वस्व समर्पित करती है, वहाँ भी अस्मिता का लोप करने की शर्त पर ही उसे आश्रय मिलता है-

सजल नैन / अधरों पर हास / ढली आकृति / दया, त्याग, ममता / अर्पण करो / सारी खुशियाँ, प्यार / यही तो यहाँ / रचा गया विधान ... (सुरंगमा यादव, प्र0129)

रचनाकार, सामयिक परिस्थितियों और परिवर्तनों का अपनी क़लम के माध्यम से साक्षी भी बनता है और प्रेरणा का स्रोत भी। नारी की संघर्ष गाथा और उसकी सफलता के कीर्तिमान आधुनिक युग की प्रमुख घटना है। आज यह लेखन का प्रमुख विषय भी बन चुका। घर-बाहर तमाम संघर्षों के बावजूद नारी ने हार नहीं मानी। ख़ुद को बचाने, सँभालने और आगे बढ़ते जाने की कला उसने बखूबी सीख ली है। वास्तव में यही समय की माँग भी है-

चल रही थी / मैं सीधी सच्ची राह / मासूम मन / कोमल-सा ले तन / बढ़ती रही / सँभलकर पग / धरती रही / दिखा था अचानक / राहों में मेरी / वो वहशी दरिंदा / लगा बैठा था / जाने कब से घात... (भावना कुँअर, पृ0 37)

विपरीत समय में हार न मानना, काँटों पर चल कर विजय प्राप्त करना नारी का स्वभाव रहा है-

भीत शंकित / कर शक्ति संचित / लड़ती रही / हवाएँ प्रतिकूल / राहों में शूल / साध विजय लक्ष्य / चलती रही... (भावना सक्सेना, पृ0 99)

प्रकृति ने मनुष्य को सब कुछ दिया है: परन्तु मनुष्य की स्वार्थ लिप्सा उसे संतुष्ट नहीं होने देती। मनुष्य अपनी महात्वाकांक्षाओं के लिए प्रकृति से खिलवाड़ कर रहा है। वृक्षों की जगह बहुमंजिला इमारतें लेती जा रही हैं। ऐसे विकास का क्या लाभ, जो विनाश की ओर ले जाये। एक वृक्ष का कटना महज़ उस वृक्ष का धराशायी होना नहीं होता वरन् धरा का हरित आवरण, पक्षियों का नीड़, कोयल की गायन स्थली, शीतल छाँव और जीवन के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ ऑक्सीजन की हानि होती है। ज्योत्सना प्रदीप का चोका इन्हीं सब चिंताओं को लेकर रचा गया है-

तुमने आज / वृक्ष नहीं काटा है / छीना है भू का / सुन्दर आभरण / हरिताभ-सा / समाधि से टूटे हैं / मिट्टी के कण / इत्र लूटा हवा का / ये खग प्यारे / टूटे नीड़ निहारें... (ज्योत्स्ना प्रदीप, पृ0 105)

सचेतन प्रकृति का अनेक स्थलों पर सुन्दर मानवीकरण भी इस संग्रह में देखने को मिलता है। जेठ-वैशाख र्की गर्मी में तपती धरती को भोर की बेला में ही थोड़ी राहत महसूस होती है। उषा और सुबह की शीतल हवा दोनों सखियाँ मिलकर उसका ताप कम करती हैं-

ज्वर में तपी / रात भर धरती / बेहोश पड़ी / भोर सहेली आई / माथे पर रखी / शीतल जल पट्टी / बयार आ के / झलने लगी धीरे / हाथ की पंखी... (सुधा गुप्ता, पृ0 12)

एक तरफ़ गर्मी में धूप अपना चटक रूप दिखाकर अड़ के बैठ जाती है, तो दूसरी ओर सर्दी में अनमने पाँवों से आती है और दबे पाँव चली जाती है। डॉ0 सुधा गुप्ता ने शीत और धूप का प्रतीक लेकर भ्रष्ट तंत्र और अधिकारियों की मनमर्जी का सुन्दर चित्रण किया है-

शीत राजा ने / शुरू की मनमानी / क्या करे कोई? / नए कानून बने / हुई घोषणाः / 'राशनिंग' धूप की! / बन आई है / अफसरशाही़ की... (सुधा गुप्ता, पृ0 09)

इसी प्रकार रजनी सुन्दरी प्रकृति प्रदत्त सुन्दर-सुन्दर अलंकरणों से विभूषित होकर अभिसार को चलती है, परन्तु तब तक विदाई की बेला आ जाती है-

चंदा की बिंदी / रजनी ने लगाई / सबको भाई / चुन-चुन सितारे / कितने सारे / पवन ने सजाए / वेणी में गूँथी / मोगरे ने कलियाँ... (ज्योत्स्ना शर्मा, पृ0 58)

यादें जीवन भर की साथी होती हैं। रात-दिन, सुबह-शाम, हर मौसम यादें आ-आ करके मन को कभी प्रसन्न तो कभी विचलित करती रहती हैं। आकाश में अंधेरे के पाँव पसारने के साथ ही यादों की गाँठ खुलने लगती है। यादों का एक सुन्दर शब्द चित्र दर्शनीय है-

ढले जो दिन / दबे पाँव उतरे / बावरी साँझ / सलेटी स्मृतियों की / खोलती गाँठ... (कृष्णा वर्मा, पृ0 91)

यादें कभी संदूक के तले में दबी पीली चिट्ठी बनकर तो कभी सूखे हुए फूल के रूप में ताज़ा हो उठती हैं-

एक चिट्ठी है / सालों-साल पुरानी / मुड़ी-तुड़ी-सी / बेरंग पीली पड़ी / बिल्कुल नीचे / संदूक की तली में / खोला तो पाया / उसके वे शब्द थे / भाव में डूबे... (रश्मि शर्मा, पृ0 123)

अतीत के पृष्ठ जब पलटने लगते हैं, तो एक-एक करके जाने कितनी स्मृतियाँ सजीव हो उठती हैं-

याद दिलाएँ / अतीत के जो पन्ने / फड़फड़ाएँ / खट्टी-मीठी-सी यादें / पन्नों से झरें... (जेन्नी शबनम, पृ0 86)

जीवन संघर्षों का दूसरा नाम है। संघर्षों के बीच उम्मीद के सपने टूटने नहीं चाहिए। 'खिलेंगे फूल' में कुछ ऐसा ही भाव है-

ओह! जिंदगी / कौन से लफ़्ज लिखे / तूने पन्नों पे / हम पढ़ न सके / तेरा लिखा ये / मिटा भी नहीं सके... (अनिता मण्डा, पृ0114)

हमारा मन ही सारी समस्याओं की जड़ होता है और उनका समाधान भी वही होता है। जब हम मन रूपी वैद्य की सलाह मानने लगते हैं,तब प्रकृति भी साथी बन जाती है-

वैद की मानी/नहीं टेके घुटने/रुकी, न थमी/ झुकाई न गर्दन/अडिग चली........(शशि पाधा, पृ0 81)

भाव और विचारों से सम्पन्न इस चोका संग्रह में अनेकानेक उत्कृष्ट चोका अपनी चमक बिखेर रहे हैं। ‘गीले आखर’ सचमुच रस से आप्लावित करने में समर्थ है। इस संग्रह की एक और विशिष्टता है कि श्री रामेश्वर काम्बोज जी के अतिरिक्त इसमें अन्य सभी महिला रचनाकार हैं, जिन्होंने बड़ी सुन्दरता के साथ भावों को शब्दों में पिरोया है।

"" गीले आखर'(चोका संग्रह) , प्रकाशक-अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2019, पृष्ठ-132, संपादक-श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु', डॉ. भावना कुँअर"'

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