गुजरात की ओर और फिर वापस / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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सन 1912 की बात है। मेरे साथी पं. हरिनारायण जी एक बार फिर मेरे पास आए और संन्यास लेने को आतुर दिखे। आखिर गुरु जी के पास लिवा ले गया। और उन्हें संन्यास दिलाया। गर्मियों के दिन थे। प्राय: जून होगा। उसके बाद उनने आग्रह किया कि यहाँ खबर पा कर घरवाले परेशान करेंगे। उनने यह भी कहा कि दर्शन पढ़ने की उत्कट अभिलाषा है और आपसे बढ़ कर पढ़ानेवाला अब कौन मिलेगा, ताकि जीवन भर की इच्छा को पूरी कर सकूँ?इसका सीधा अर्थ था कि काशी छोड़ कर कहीं बाहर चलना चाहिए। मैं तैयार तो था नहीं। मगर उनका आभार तो मानता ही था। पहले तो उन्होंने बहुत कुछ सिखाया था। उसका ऋण मेरे मत्थे पर था। आज स्वयं मुझसे सीखना चाहते थे। फिर इन्कार कैसे करता? आखिर ऋण तो चुकाना ही था। बस, चलने की तैयारी हो गई। इस बार, लेकिन पैदल चलने की बात न रही। पुस्तकें भी साथ अधिक लेनी थीं। इसलिए रेल से चले।

जहाँ तक याद है, काशी से एकाएक दिल्ली गए। वहाँ से भिवानी जा पहुँचे। शहर के पास बाहर की ओर एक मंदिर था। उसके हाते में बाहर की ओर छोटी-छोटी कोठरियाँ थीं। ये धर्मशाले का काम देती थीं। लावारिस और आश्रय विहीन लोग उनमें ठहरते थे। हमें तो मंदिर के पुजारी ने एक सुंदर मकान में मंदिर के पास ही ठहराया। एक दिन उसने रुपयों के मोह की एक दिलचस्प कहानी हमें सुनाई। एक कोठरी दिखा कर कहता था कि इसी में बहुत दिन पूर्व एक भिक्षु ब्राह्मण रहता और भीख माँग कर गुजरा करता था। एक दिन उसे हैंजा हो गया। उसका पुर्सांहाल तो कोई था नहीं। मैं उससे पूछने गया कि पैसे हों तो दवा ला दूँ। उसने कहा कि पास में पैसे कहाँ? फिर तो जैसी-तैसी दवा होती रही। आखिर लावारिस ही तो था। धीरे-धीरे बीमारी भीषण हो गई। मैंने उसके घर का पता पूछा। फिर कहा कि पैसे हों तो दे, ताकि घर पर तेरे लड़के को तार दे दूँ। उसने फिर वही जवाब दिया कि पैसे कहाँ? बाद में वह मर गया। हमने जैसे-तैसे उसका दाह आदि करवा दिया। हाँ, बीमारी की दशा में आखिरी बात जो भिखमंगे ने की थी वह उसने बताई। बोला कि कोठरी के बाहर राख की ढेर थी जिस पर बराबर आग जला कर वह तापता रहता था। मगर बीमारी की दशा में कोठरी में रहता था। जब मरने का समय आया तो उसने कहा कि मेरी खाट दरवाजे के सामने कर दीजिए। हमने भी सोचा कि मरना तो हुई। फिर इसकी अंतिम इच्छा क्यों न पूरी कर दें। इसलिए खाट सामने कर दी गई और वह उस राख की ढेर पर ही नजर लगाए मर गया। जब हमने उसका दाह करवा के वह राख हटवाने की कोशिश और उसे उठवाने लगे तो उसमें से झनाझन रुपए गिरे। पूरे तीन सौ थे! उनकी मुहब्बत उसे ऐसी थी कि न तो दवा में उसने एक पाई खर्च की और न तार देने में। तार देने से उसका लड़का तो ले जाता। आखिर उन्हीं रुपयों की ओर नजर लगाए वह मरा। इसीलिए दरवाजे के सामने उसने खाट करवाई थी। कोठरी के कोने से राख देख सकता न था। इसे कहते हैं रुपए का मोह। रुपए न उसी के काम आए और बाल-बच्चों के ही।

भिवानी से हम फुलेरा होते जयपुर के रास्ते अजमेर पहुँचे। वहाँ से पुष्करराज गए। पुष्कर शहर और वहाँ का हाल देखा। भारत में ब्रह्मा जी का मंदिर केवल पुष्कर में ही है। और कहीं भी नहीं। मंदिर में गए। दर्शन किया। यह ठीक है कि हम इस बार रेल से ही चलते रहे। मगर पास में पैसे न थे। और लोग ही टिकट कटवा देते। दंडी संन्यासी हो कर पैसे कैसे रखते? पुष्कर की यात्रा तो पैदल ही थी। वहाँ रेल कहाँ? फिर जूना (पुराना) पुष्कर देखने चले। पुष्कर संस्कृति में झील या तालाब को ही कहते हैं, जो प्राकृतिक हो और किसी का खुदवाया न हो। जूना पुष्कर दो पहाड़ियों के बीच में है। वहीं से आजकल अजमेर शहर के लिए पानी लाया जाता हैं। घूमघाम कर हम अजमेर लौटे और रेल पर चढ़ कर सिद्धपुर होते मेहसाना चले आए। बीच में सिद्धपुर के सिवाय कहीं न रुके। मेहसाना तो अहमदाबाद के निकट है। उसके पास ही पाटन नामक बड़ा शहर दस-बारह मील पर है। यह बड़ौदा राज्य का एक बड़ा हेडक्वार्टर है। हमने पाटन जाने की सोची और चल पड़े। यद्यपि मेहसाना से रेल भी पाटन तक आती है। मगर हम पैदल ही चले।

पाटन पहुँचने के पूर्व एक बात सिद्धपुर के बारे में कह देनी है। हमने भागवत आदि ग्रंथों में पढ़ा था कि श्री देवहूति के गर्भ से कपिल भगवान का अवतार सिद्धपुर में हुआ था। इसलिए हम वहाँ उतरे थे कपिल जी के जन्मस्थान का जो मंदिर बताया जाता है उसके पास एक बावड़ी है। उस समय लंबी दाढ़ी और जटावाले एक बूढ़े ब्रह्मचारी बाबा उस मंदिर के अधिष्ठाता थे। दंडी देख कर उनने हमारा आदर किया। यह ठीक है कि केवल गेरुवावस्त्र देख कर लोग उतनी प्रतिष्ठा नहीं करते थे। पर, दंड देख कर मानते थे। हम कई दिन वहाँ रहे। वहीं सरस्वती नदी का दर्शन हुआ उसमें स्नान किया। थोड़ा जल था। बराबर धारा जारी थी। वहाँ दंडी संन्यासियों का एक अच्छा मठ है। वहाँ गए तो बाहरी ढोंग बहुत देखा। मगर प्राय: सबके-सब 'लिख लोढ़ा, पढ़ पत्थर' थे। आदर-सत्कार होता है और अच्छा खाना कपड़ा मिलता ही है। फिर पढ़े-लिखे कौन बेवकूफ?

विपरीत इसके दूसरे साधु और गेरुवाधारी पढ़-लिख के अच्छे-अच्छे पंडित होते हैं। कारण, बिना पढ़े उन्हें पूछे कौन? जहाँ पहले समय में श्री मधुसूदन सरस्वती आदि जैसे अकाट्य विद्वान होते थे जिनने वेदांत आदि के सर्वोत्कृष्ट ग्रथों को तैयार किया, तहाँ आज दंडियों में प्राय: मूर्खों की ही मंडली है। उनका काम मैंने जगह-जगह यही पाया कि मठ में जमा होने पर किस क्षेत्र में क्या भोजन आज मिला। किसका कौन गोत्र है आदि व्यर्थ बातों में ही समय गुजारते हैं! एक मठ के अध्यक्ष दंडी ने काशी में मुझसे कहा कि एक बार एक दंडी ने उनसे शिकायत की कि अमुक स्वामी तो नाक टेढ़ी कर के हमें चिढ़ाते हैं। इस पर मैंने कहा कि तुम हाथ चमका कर उन्हें चिढ़ा दो। यह तो हालत है। मठ बने हैं। खाने के लिए क्षेत्र भी पहले से ही हैं इसलिए घर में कामकाज के योग्य न रह जाने पर आ कर दंडी बाबा बन जाते हैं। सिद्धपुर में भी यही पाया। मेरे दंड से एक दंडी जी का खूँटी पर टँगा वस्त्र (सोला) अचानक छू गया तो बिगड़ उठे। मैंने उत्तर दिया कि बिगड़ना तो मुझे चाहिए कि दंड जिसे विष्णु मानते हैं, आपकी नापाक धोती से छू गया। उलटे आप ही जामे से बाहर हो गए? यही तो उनका धरम-करम रह गया है।

जो दाढ़ीवाले ब्रह्मचारी बाबा मुझे सिद्धपुर में मिले उस तरह के ब्रह्मचारी उस प्रदेश में बहुत रहते हैं। यह एक पंथ जैसा हो गया है। एक खासा दल उनका पाया जाता है। कुछ तो पढ़े-लिखे भी होते हैं। मगर अधिकांश वही (पूजा-पाठ) करनेवाले और जनता की प्रवंचना में प्रवीण। खाना-पीना खूब मिलता है। पैसे भी काफी आते रहते हैं। इन महाशयों में अधिकांश के चरित्र भी भयं कर होते हैं। उस प्रदेश में वेदांत और ब्रह्मज्ञान का बाहुल्य होने के साथ ही पर्दे के अभाव में स्त्री-पुरुषों के मिलने में कोई रुकावट न होने के कारण ऐसा होना ठीक ही है। उसके बाद तो मुझे भी कई ऐसे ही ब्रह्मचारी मिले। फलत: एक बार तो मैंने यहाँ तक सोचा कि ऐसे चालीस ब्रह्मचारियों के पता लगा के 'ब्रह्मचारी चालीसा' लिखूँ। मगर यह ख्याल ही रह गया।

हाँ, तो मेहसाना से कंधो पर पुस्तकों का बोझ बैल की तरह लादे हुए हम लोग पाटन पहुँचे। पहले पहल वहीं शाम के वक्त बाहर से आनेवाली गायों का समूह देखा। उनकी सींगें बैलों की जैसी थीं। आकार भी उसी प्रकार के थे। हम पूछताछ करते-कराते नागरवाड़ा मुहल्ले में पहुँचे। दंडी स्वामियों के भक्त नागर तथा अन्य गुजराती ब्राह्मणों से वहाँ मुलाकात हो गई। हम निकट के ही एक मंदिर के पास में बने कोठे पर ठहराए गए। चातुर्मास्य का समय सिर पर था। धर्मशास्त्रों के अनुसार हम भ्रमण कर नहीं सकते थे।

संन्यासियों के लिए पर्यटन का समय आठ मास और एक स्थान पर विश्राम करने का चार मास है। इसे ही चातुर्मास्य कहते हैं। आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद और आश्विन ये चार महीने चातुर्मास्य कहाते हैं। अब तो दंडियों ने श्रावण और भाद्रपद केवल इन दो को ही चातुर्मास्य नाम दे रखा है। दो ही महीने वे न तो घूमते और न नदी-नाले पार करते हैं। पोथियों में तो लिखा है कि वर्ष में भूमि पर हवा में तथा चारों ओर नए नए जीव भर जाते हैं और चलने-फिरने से उनका नाश अत्यधिक होता है। साथ ही नदी-नाले भर जाने से पार होने में बह जाने का डर रहता है। इसीलिए दंडी लोग भ्रमण न करें।

मगर अब तो रेलें, मोटरें, हवाई जहाज, सड़कें; पुल बन गए हैं। पैदल चलने की जरूरत भी नहीं। फिर भी यह नियम सख्ती के साथ क्यों पाला जाता है, समझ में नहीं आता। रेलें तो चलती ही रहती हैं और लारियाँ भी। उनसे हिंसा होती ही रहती है। संन्यासियों के चलने से उनके द्वारा हिंसा बढ़ तो जाएगी नहीं। इसे ही कहते हैं लकीर का फकीर होना।

हमें काशी में तो इस बारे में एक ऐसी दिलचस्प बात सुनाई गई कि तरस भी आया, हँसी भी और क्रोध भी। चातुर्मास्य का समय था। लेकिन पानी नहीं पड़ा था। इसलिए काशीवाला असीनाम का नाला सूखा था। कुछ दंडी लोग नाले के पार रहते थे और वहीं खाते-पीते थे। मगर उनके महंत नाले के दूसरी तरफ मठ में रहते थे। एक दिन महंत को जरूरत हुई कि पार रहनेवाले दंडियों को कोई बात समझाई जाए। बस, आदमी भेजा गया और हुक्म हुआ कि नाले के किनारे उसी पार आ कर वे लोग खड़े रहें। ईधर न आएँ, नहीं तो धर्म नष्ट हो जाएगा! स्वयं महंत जी गए, इसी पार खड़े हो कर उपदेश दिया और वापस आए। महंत जी की यह दशा थी कि मठ तो था ही, रुपए-पैसे भी काफी रखते थे, चरित्र भी कुछ ऐसा ही तैसा था। लेकिन इन सब बातों से तो धर्म नष्ट होता न था। वह तो सिर्फ सूखे नाले में पाँव देने से बह जाता!'पेड़ काटि तैं पल्लव सींचा' इसे ही कहते हैं। धार्मिक दुनिया भी ऐसी अंधी है कि इसे ही ठीक मानती है! धार्मिक मामलों में अक्ल के लिए गुंजाईश नहीं!

असल में हमारी तो इच्छा थी ही कि ठहरें। वहाँ के ब्राह्मणों ने भी हठ किया कि ठहरें। वे लोग कुछ पढ़ना-लिखना स्वयं भी चाहते थे। एक वृद्ध ब्राह्मण को, जो मरणावस्था में थे, दंडी बनना भी था, जिससे अंत में सद्गति हो जाए! इसलिए तय पाया कि सावन और भादों तो यहीं रहें! आगे देखा जाएगा।

उसी पाटन में एक नगर ब्राह्मण भाई उमाशंकर जी के घर पर पहले पहल श्री डाँ. सुमंत मेहता से, जो गुजरात के प्रसिद्ध जन-सेवक और त्यागी हैं, मेरी मुलाकात हुई। श्री उमाशंकर भाई के अलावे अयाची मणिशंकर मगनलाल नामक गुजराती ब्राह्मण ने हमारी बहुत ही सेवा की। उनके पिता अयाची मगनलाल जी ने मरने से थोड़े दिन पूर्व संन्यास की दीक्षा हमारे साथी से ली। हमारा पढ़ना-पढ़ाना बराबर जारी रहा। मणिशंकर जी का वंश ही 'अयाची' ब्राह्मण कहा जाता है। उन्होंने कभी पौरोहित्य कर्म या पुरोहिती न की। इसीलिए अयाची कहे जाते हैं। यों तो नागर ब्राह्मण भी प्राय: पुरोहिती नहीं ही करते। लेकिन मणिशंकर जी के वंश के संबंध में यह खास बात थी। इसी से उन्हें वंशगत पदवी ही 'अयाची' की मिल गई थी।

वहाँ दो-तीन मास का समय बहुत ही आनंद से कटा। वहाँ से दो ही तीन मील पर सरस्वती थी, जो आगे जा कर लुप्त हो जाती हैं। कभी-कभी उसके तट पर जाते थे। वहाँ पीलु के वृक्षों की झाड़ियाँ बहुत थीं।

लेकिन इसी मुद्दत में हमें जो उस प्रांत का सामाजिक अनुभव हुआ और हमने जो कुछ वहाँ देखा-सुना उससे हमारी उत्कट इच्छा हुई कि हम काशी की तरफ वापस चलें। हमारे साथी ने हमें बहुत समझाया। पर, हमारी हिम्मत उधर रहने की न हुई। चाहे यह दोष हो या गुण बाल्यावस्था से ही मैं स्त्रियों के संसर्ग से दूर रहा हूँ। मेरा कुछ स्वभाव ही ऐसा हो गया है कि ऐसा संसर्ग मुझे पसंद नहीं। मगर वहाँ तो यह बहुत था। यह बात मुझे असह्य थी। एक सच्ची बात यह भी है कि मेरे जैसे जवान संन्यासी के लिए इस प्रकार का ज्यादा संसर्ग कदापि वांछनीय नहीं। पर, मैं यह बात कहता किससे? बस, यही सोचा कि लौट चलूँ। पढ़ने में जो बाधा आ गई थी वह भी इसी प्रकार खत्म होती दीखी। बस, अंत में हमारा और हमारे साथी का संबंध एक बार फिर छूटा। रेल्वे पार्सल से पुस्तकें रवाना कर के हमने वहाँ से काशी तक का एक ही टिकट खरीदा। रास्ते में कहीं रुकना न था। गाड़ी पर खाना-पीना तो हम कभी करते न थे। पर, यदि लंबी यात्रा में प्यास सताए तो? इसके लिए हमने सौंफ बाँध ली। वह गले को तर रखती है। सोचा, इसे ही प्राय: मुख में डाल कर चूसेंगे।

इस प्रकार फिर काशी आ पहुँचे और फिर पूर्ववत पठन-पाठन जारी किया। बीच में जो चार-पाँच मास गुजर गए इसके लिए खेद जरूर हुआ।