गुड अर्थ, मदर इंडिया, उपकार वारिस / जयप्रकाश चौकसे

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गुड अर्थ, मदर इंडिया, उपकार वारिस
प्रकाशन तिथि :28 फरवरी 2015


किसान की जमीन ही साहित्य कलाओं की जमीन होती है और गेहूं की तरह ही कला क्षेत्र की फसलें उगती हैं। पर्ल एस. बक की 'गुड अर्थ' महान रचना है और उस पर हॉलीवुड में फिल्म भी बनी है। 'गुड अर्थ' चीन के भूमिहीन किसानों की व्यथा-कथा है और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित है। 'ग्रैप्स ऑफ रेथ' में औद्योगिक क्रांति के बाद किसानों की जमीनें छीनकर उस पर कारखाने खड़े किए गए। इन्हीं किसानों के इस महान उपन्यास पर भी फिल्म बनी है। इसी तरह की रचना मुंशी प्रेमचंद ने भी रची है और उनका 'होरी' आज भी सपनों में आता है। प्रेमचंद की रचनाओं में खेती की जमीन और साहित्य की जमीन एक हो जाती है। हिंदुस्तानी सिनेमा के प्रारंभिक मायथोलॉजी के स्वर्ग वाले दौर में भी धरती को लेकर 'साहुकार पाशा' बनी है तथा सअादत हसन मंटो की पटकथा 'किसान कन्या' पर फिल्म नहीं बन पाई।

मेहबूब खान भी 'जजमेंट ऑफ अल्लाह' इत्यादि फिल्मों से होकर जमीनी 'औरत' पर पहुंचे, जिसे 1956 में 'मदर इंडिया' के नाम से बनाया, जो मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखे जाने महात्मा गांधी द्वारा निर्देशित किए जाने का भ्रम रचती है- कुछ इतनी सच्चाई वाली फिल्म है कि यकीन नहीं होता कि यह किसी फिल्मकार की रचना है। एक लंबे समय तक हिंदुस्तानी सिनेमा में गांव और जमीन की कहानियां बनती रहीं, क्योंकि भारत वहीं बसा था जैसाकि गांधीजी ने भी कहा है परंतु आर्थिक उदारवाद के बाद अधिक आबादी के ग्राम में बसे होने के सत्य के बावजूद निर्माताओं ने लेखकों से कहा कि महानगरीय कथाएं लिखो, इस तरह गांव और जमीन सिनेमा से खारिज हुए और अगर इस दौर में भी कुछ ग्रामीण पृष्ठभूमि की फिल्में बनीं तो वे 'डिजाइनर गांव' में शूट हुईं। रवींद्र पीपट और राज बब्बर की स्मिता पाटिल की केंद्रीय भूमिका वाली 'वारिस' भी जमीन के अधिकार की कमाल फिल्म थी, जिसे हम स्मिता पािटल की 'मदर इंडिया' भी मान सकते हैं। आमिर खान की 'लगान' भी जमीन की महक की ही फिल्म है। वर्ष 1960-61 में किशन धवन की मुंशी प्रेमचंद की कथा 'दो बैलों की कथा' पर बनी 'हीरा-मोती' सिनेमाई मील का पत्थर।

अफसोस कि फिल्मकार भरी जवानी में मर गया। बिमल रॉय की 'दो बीघा जमीन' एक क्लासिक है। मनोज कुमार की 'उपकार' एक मनोरंजक फिल्म थी, जिसका किसान नायक आवश्यकता पड़ने पर फौजी बन जाता है। अगर हम नेहरू युग की प्रतिनिधि फिल्म 'मदर इंडिया' माने तो शास्त्रीजी की 'उपकार' और इंदिरा युग की 'वारिस' मान सकते हैं। फिल्मों को कई तरह से श्रेणियों में बांटा जा सकता है। इंदिरा युग को 'गर्म हवा' और रिचर्ड एटनबरो की 'गांधी' के लिए भी याद किया जा सकता है। बहरहाल सदियों पुरानी कहावत है कि सारे युद्ध 'जर, जोरू और जमीन' के लिए लड़े जाते हैं। कई बार तो यह भी लगता है कि सारे युद्ध नारी हृदय और शरीर को रणभूमि बनाते हैं। इस तर्ज पर कुरुक्षेत्र तो द्रौपदी ही थी। भारत के महानतम फिल्मकार सत्यजीत रॉय की 'अशनी संकेत' बंगाल अकाल की पृष्ठ भूमि पर बनी फिल्म है, जो एक नोबेल पुरस्कार विचार प्रस्तुत करती है कि सारे अकाल मनुष्य के द्वारा बनाए गए हैं, अकाल ईश्वर का कहर नहीं है। इसी विचार को अर्थशास्त्र के आंकड़ों के साथ अमर्त्य सेन ने प्रस्तुत कर नोबेल पुरस्कार पाया। सत्यजीत रॉय ने पूरी अकाल फिल्म हरी-भरी जमीन पर फिल्माई और यही संकेत था कि वह मनुष्य के लालच के द्वारा रचा अकाल था। दरअसल, सारे अभाव, सारी भूख मनुष्य के असीमित लालच का परिणाम रहे हैं। लालच पर विजय पा लें तो जमीन इतना देती है कि दुनिया में कोई भूखा नहीं रह सकता परंतु सारी फसल हड़प ली जाती है। एक जमाने में मध्यप्रदेश में कहते थे, 'सारी जमीन गोपाल (कृष्ण) की जो बची भोपाल की।'

बहरहाल, कुछ वर्ष पूर्व जानकारी मिली थी कि 'कृषि मंत्रालय' का 12 हजार करोड़ रुपए रखरखाव में जाता है। इतने धन से कितनी जमी उपजाऊ बनाई जा सकती है? कृषि भूमि जनसंख्या के अनुपात में पहले ही बहुत ही कम है। पूना-पटना जैसे शहरों में खेती की जमीनें बिक गई हैं और वहां बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें बन गई हैं। इस तरह खेती की जमीन धीरे-धीरे हर तरीके से कम की जा रही है। कृषि उपजाऊ जमीन आगे जाकर सिर्फ इमारतें ही पैदा करेंगी। मनुष्य विकास खाएगा, विकास ओढ़ेगा और विकास पहनकर सो जाएगा। व्यवस्था का हाल यह है कि सरकारी कागज ही जमीन है, वह कभी नहीं खसकता।

फाइलों में सिमटा है सारा ब्रह्मांड। तेलंगाना की किसान क्रांति को ठंडे बस्ते में डालने के लिए सरकारी बाबा विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन शुरू किया, जिसमें महाजनों ने बंजर जमीनें दान देकर स्वर्ग में सीट बुक कराई और सुना है कि यह भी रिश्वत लेकर सरे आम बेच दी गई। पहले बंजर जमीन कल कारखाने के लिए अधिकृत की जा सकती थी, नए प्रस्तावित अधिनियम में उपजाऊ भी ली जा सकती है और किसान को अपील का अधिकार नहीं है। दरअसल, यह अधिनियम आने वाले निरंकुश दौर का संकेत मात्र है। केवल परदा हटाया जा रहा है, खेल अभी शुरू नहीं हुआ है। दशकों पूर्व ताराशंकर बंधोपाध्याय के 'आरोग्य निकेतन' का नाड़ी वैद्य अपनी मृत्यु को पायल बांधे स्त्री के रूप में धीरे-धीरे उनकी ओर आने का काव्यमय वर्णन करते हैं। उनकी पंक्तियों में कुछ हेर-फेर करके प्रस्तुत कर रहा हूं, 'उसकी पायल की झंकार गांव की सरहद से सुनाई दे रही है। अब वह बाबू का खेत पारकर मेरी ओर अा रही है।

अबवह पड़ोस की मेड़ पर पहुंच गई है। यह अजीब है कि वह जैसे-जैसे नजदीक आती है, उसकी पायल की आवाज मुझे धीमी-सी होती सुनाई देती है। अब वह बेआबाज है, शायद मेरे नजदीक है।' मृत्यु तानाशाह होती है। जीवन गणतंत्र है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है।