गुड बाय जेडी! / जवाहर चौधरी

Gadya Kosh से
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कारपोरेट संसार की तेज रोशनी में नहाया एक जोड़ा होटल के पोर्च में कार से उतरा। यूनिफार्म- सज्जित एक आदमी ने पहले सेल्यूट 'ठोंका' फिर हाथ आगे कर दिया। साहब ने कार की चाबी उसे दे दी और आगे बढ़ गए। मुख्य द्वार पर एक और आदमी था वैसा ही, उसने भी लगभग वैसा ही सेल्यूट 'ठोंका' और आगे बढ़ कर दरवाजा खोल दिया। अंदर पहुँचते ही एक और आदमी ने उनका स्वागत किया जिसके जवाब में साहब ने अपना कार्ड दे दिया। उसने आगे चलते हुए रिजर्व्ड टेबल तक उन्हें पहुँचाया और कमर से झुक कर बैठने का आग्रह किया। टेबल पर पीले फूल सजे थे, जिन्हें बड़े अदब के साथ बदल दिया गया। सागरिका ने देखा कि नए फूल उसकी ड्रेस के रंग से मिलते हुए हैं। वह प्रसन्न हुई और यह भी नोट किया कि बॉस ने तीनों से कहा कुछ नहीं। सब कुछ जैसे तयशुदा तरीके से घट रहा था। जहां वे बैठे थे वहां न तो रोशनी थी न ही अंधेरा। आकृतियों को देखा जा सकता था पर चेहरों को पहचानना कठिन था। हर कोई अपने न होने के साथ मौजूद था। सागरिका को अंधेरे के कारण एक तरह की सुरक्षा और उजाले से आनंद की अनुभूति हुई।

“सर, म्यूजिक ठीक है या चेंज करूं?” फ्लोर मेनेजर ने आ कर पूछा। टेबल के पास मंद आवाज।

कोई पश्चिमी संगीत बज रहा था।

“मल्लिका पुखराज है? या फिर मेहंदी हसन लगा दो।”

“मल्लिका पुखराज है, सर।”

“ठीक है...”

“कारपोरेट वर्ल्ड एक अलग ही दुनिया है... पश्चिम की दुनिया।” मैनेजर के जाने के बाद सागरिका ने मुस्कराते हुए कहा।

“तुम जानती हो कारपोरेट कल्चर के बीज कहाँ से मिले हैं दुनिया को...?”

“नहीं।”

“हमारे इंडियन क्लचर से... हमारे मिथकों, पुराणों, ग्रंथों से...” बॉस ने सागरिका को इंप्रेस

करने के लिए बताया।

“लेकिन ये कंसेप्ट तो बाहर का है।” सागरिका ने अपने ढलकते दुपट्टे को नजरअंदाज करते हुए कहा।

“ऐसा लगता है, लेकिन है इंडियन कल्चर से ही।... देखो, कृष्ण माखन चुराते थे... पता है

कैसे?” बॉस ने ढलके दुपट्टे का लाभ लेते हुए अपनी बात जारी रखी।

“नो सर।”

“वो पहले लेबर ग्वालों को खड़ा करते थे एक रिंग में... फिर... उसके उपर ग्वालों का दूसरा रिंग ... फिर उसके उपर अपने सखा यानी फ्रेंड्स और सबसे उपर खुद चढ़ कर मटकी से माखन खाते थे... और थोड़ा बहुत नीचे वालों के लिए भी गिराते जाते थे... सिम्पल।” बॉस ने मुस्करा कर सागरिका की आँखों में झाँकते हुए बताया।

“रिएली!! ग्रेट कन्सेप्ट!! यही तो होता है!” सागरिका ने चहक कर माहौल बनाए रखा।

“जमींदारी सिस्टम सुना है तुमने?”

“नो सर।”

“कास्ट सिस्टम का तो पता ही होगा?”

“नो सर।” सागरिका ने हंस कर अपनी कम समझ की भरपाई की।

“ज्वाइन्ट फेमिली?”

“या-या, वो सुना है। पर डिटेल नहीं मालूम।”

“अरे मैं भी कहाँ की बातें ले बैठा... बताओ क्या लोगी?” मेन्यू कार्ड आगे बढ़ाते हुए बॉस ने

पूछा।

“जो आपको पसंद हो, सर।”

बॉस आज सागरिका को पहली बार केन्डल-लाइट डिनर पर लाए हैं। जाहिर वजह, पिछले कुछ दिनों से वे सागरिका के काम से बहुत खुश हैं। सितारा होटल में आने का सागरिका का यह नया अनुभव नहीं है।

“पहले कुछ ड्रिंक्स ले लें?... इफ यू डोन्ट माइंड...” बॉस ने पूछा।

“क्यों नहीं सर... श्योर...”

“तुम...?”

“ले लूँगी... लाइट...”

“दैट्स गुड... तुम्हारे घर में कौन-कौन है ?”

“माय मॉम.... ओनली।”

“जॉब में होंगी?” बॉस को पता है कि अर्थशास्त्र के साथ संभावनाशास्त्र गहरे से जुड़ा होता है।

“हाँ, टीचर हैं।”

“टीचर! वेरी नोबल प्रोफशन... रिएली।”

“बस नोबल ही है,... सारी जिन्दगी हो गई... पहले भी टीचर थी, आज भी टीचर ही हैं।... कोई प्रोग्रेस नहीं, एम्बिशन नहीं, कोई लाइफ नहीं...।”

सागरिका ने नहीं बताया कि वो 'मिस' नहीं है और शहर में उसके साथ उसके हजबेंड भी हैं।

“तुम क्या चाहती हो?” सवाल के साथ उन्होंने नजरें सागरिका के वक्षों पर जमाए रखीं।

“जिन्दगी में कुछ करना... बहुत कुछ पाना...। एक बड़ा थ्री बीएचके वाला फ्लैट, गाड़ी, बैंक

बैलेंस, वर्ल्ड टूर, पावर, पब्लिसिटी, नेम-फेम... सब कुछ। इतना कि जिन्दगी उत्सव हो जाए। मैं चांद-सितारे भी अपनी मुट्ठी में बंद करना चाहती हूं।”

“शादी नहीं करोगी?” बॉस ने दोहरे-तिहरे अर्थों के साथ एक मुस्कान भी फेंकी।

“ना... मेरी प्रायरिटी करियर है... शादी-बच्चे-वच्चे नहीं।”

“फिर भी हजबेंड के मायने तो हैं। आखिर कार की सीट पर, बगल में बैठने वाला कोई तो होना चाहिए।”

“ड्राइवर रख लूँगी... और दूसरी डोमेस्टिक सर्विसेस भी अवेलेबल हैं मार्केट में।”

“कारपोरेट वर्ल्ड में तुम बहुत उँची जाओगी।... जो निचली सीढ़ी पर पैर रखने से नहीं हिचकता है उसी का स्थान उपर के पायदान पर सुरक्षित रहता है।” बॉस ने निचली सीढ़ी आगे की।

“सर, वो 'लो-टाटा-को' वाली डील का क्या हुआ...?” सागरिका ने सीढ़ी की ओर पैर बढ़ाया।

“नेक्स्ट वीक मीटिंग है... डेल्ली में। बोलो चलोगी?.... पार्टी को सेट करने में मेरी मदद हो

जाएगी।”

“कितने दिन लगेंगे?” सागरिका ने बनावटी चिंता के साथ पूछा।

“चार दिन.... उसमें रातें भी शामिल हैं... ऑन ड्यूटी... ट्वेन्टी फोर ऑवर्स... हें हें... हें।”

बॉस ने जाम टकराए - "चीयर्स... तुम्हारे खूबसूरत नाम... इस खूबसूरत शाम के नाम...”

ऑफिस में कोई नहीं जानता कि सागरिका शादीशुदा है और उसका पति इसी कंपनी में नियुक्त है। उसे लगता है कि तरक्की के लिए लड़की का कुंवारी होना जरूरी नहीं है लेकिन 'अनमैरिड' रहना जरूरी है। कुंवारी लड़की को पदों पर बैठे आदमी अपना समझते हैं। जेडीएस यानी जयदेव सिंह से उसने शादी से पहले ही तय कर लिया था कि किसी को इसका पता नहीं चलना चाहिए वरना करियर की गति मंद पड़ जाएगी। खुद जेडीएस को भी करियर की चिंता है। सागरिका की तरक्की उसकी ही तरक्की है। और फिर आजकल ढोल पीटने का जमाना भी नहीं है। क्या होगा सब को बता कर? किसे फुरसत है कि आपकी जिन्दगी में झांके भी। वैसे भी फाइव-डे वीक और काम के जुनून में किसी को किसी में कोई दिलचस्पी नहीं रह पाती है। दो दिन का वीकेण्ड मिलता है तो सब अपनों में ही गुजारते हैं। टूर निकल आए तो उसके दो दिन भी गए। पंद्रह-पंद्रह दिनों तक उन्हें घर की चौखट नसीब नहीं होती है।

अक्सर पति-पत्नी दस-पंद्रह दिनों में एक बार घर पर होते हैं और प्रायः पहले से ही थके हुए। आज काफी दिनों के बाद वे साथ हैं। सोचा था कि घर पहुँच कर आज घमाल हो जाएगा लेकिन शरीर जैसे बेजान हो गया लग रहा है। पिछले कई दिनों से काम के कारण वह सामान्य नहीं रह पा रहा है। तकिए के नीचे कंडोम के पाउच रखे दो महीने होने वाले हैं, वो अभी भी वैसे ही पड़े हुए हैं।

“कम से कम कपड़े तो बदल लो.... ड्रेस कोड से लगता है अभी भी ड्यूटी पर हो।” सागरिका ने लस्त पड़े जेडी से कहा। जेडी को कंपनी का ड्रेस कोड पसंद नहीं है। दफ्तर में सारे वर्कर एक से दिखाई देते हैं। जैसे मीठी ब्रेड में पड़ी इल्लियां बिलबिला रही हों। हमेशा घर आते ही ड्रेस उतार कर फेंक देता है लेकिन आज वह वैसे ही पड़ा हुआ है, एक कटे पेड़ की तरह।

“सागरिका, मुझे लगता है कि हम लोग उलझ गए हैं। देखो ना, क्या जिन्दगी है हमारी! सुबह से शाम तक कंपनी के लिए काम करो, कंपनी के लिए सोचो, कंपनी के लिए मरो। अगर ऐसा ही रहा तो हम जिएँगे कब! कब अपने मन का करेंगे! कंपनी पैसा देती है लेकिन समय पूरा ले लेती है। बिना समय के पैसा किस काम का ! हम-तुम हफ्तों नहीं मिल पाते हैं। ये देखो, दो महीने से पड़ा है।” जेडी ने तकिया उठाते हुए कहा।

“पता है... लेकिन ये नेपकिन नहीं है... कि रखा है तो यूज कर लो। जिन्दगी सिर्फ इसी के लिए नहीं है। अभी थके हो, जब ठीकठाक हो जाओ तब यूज कर लेना। करियर के लिए कंप्रोमाइज और सेक्रीफाइज करने ही पड़ते हैं। इस बारे में सोचना बंद कर दो, हमारे पास कोई रास्ता नहीं है।” सागरिका ने मार और मरहम दोनों लगा दिए।

“मेरी बात को समझो, तंग आ गया हूँ इस नौकरी से मैं... आखिर हम जिएँगे कब? लगता है मध्य युग के गुलाम हो गए हम!”

“टाइम मिले तो इस वीक किसी डॉक्टर को दिखा दो।... मछली जिस पानी में रहती है वही उसका जीवन होता है।... नौकरी छोड़ने का विचार बनाना भी मत... वरना बाहर आते ही तड़फ कर मर जाओगे।” सागरिका ने हिदायत दी।

“वैसे भी यह नरक है। मुझे लगता है कि हम यहाँ जी नहीं रहे हैं।” जेडी सागरिका से सहानुभूति चाहता है।

“अब सो जाओ, अगली बार देखेंगे।... और हां, मुझे नेक्स्ट वीक टूर पर जाना है। अब हमारा

मिलना शायद पंद्रह दिन बाद हो।” सागरिका ने सूचना दे कर कीमती वक्त बरबाद न करने की इच्छा व्यक्त की और अपने लैपटाप पर उँगुलियां दौड़ाने लगी।

“कितने दिनों के लिए जा रही हो?”

“आठ-दस दिनों के लिए।”

जेडी थके शरीर से भागते पलों को पकड़ना चाहता था। उसे लगा कि आठ-दस दिनों के टूर ने भागती सागरिका को जैसे पंख लगा दिए हैं। अब वह उसकी पहुंच से और दूर जाती लग रही है। उसे दोनों की पहली मुलाकात याद हो आई। साथ करियर शुरु करते, साझा सपनों ने उन्हें कब दोस्त और बाद में जीवनसाथी बना दिया पता ही नहीं पड़ा। आज जेडी को लग रहा है कि जो सपने उनके दांपत्य की बुनियाद में थे वे बीमार हो एक-एक कर मरते जा रहे हैं।

सागरिका ने आधे घंटे में एक बार भी लैपटाप से नजरें नहीं हटाई हैं। काम निबटा कर उसने लाइट बंद की और सो गई। अँधेरे के साथ एक खामोशी तैर जाती है कमरे में जो दूसरे दिन आलार्म की आवाज से भंग होती है।

“जेडी उठो... टाइम हो गया। क्विक् क्विक्... “ सागरिका जैसे अचानक मशीन हो उठी।

नहाने-फ्रेश होने में उसे वक्त नहीं लगा। भागते हुए उसने स्कर्ट और टॉप में अपने को घुसाया।

कुछ जरूरी मेकअप किया और कुछ पेंडिंग रखा। कॉफी ऑफिस में हो जाएगी। वे दानों अलग-अलग ऑफिस पहुँचते हैं। 'बाय... एण्ड टेक केयर' का जुमला जेडी के आगे डाल कर वह बाहर हो गई।

जेडी का मन कतई नहीं था जाने का, लेकिन असाइंमेंट कंपलीट करने थे। एक समय था पच्चीस-छब्बीस की उम्र में जब वो काफी सारे काम निबटा लिया करता था। लेकिन अब नहीं होता है। गरदन और पीठ में काफी दर्द रहने लगा है। दिन दिन भर भूख नहीं लगती, हालाँकि उम्र अभी छत्तीस की ही चल रही है। सागरिका खुद बिजी है सो घर का खाना खाए महीनों हो गए हैं। उसे माँ से ज्यादा माँ के हाथ का खाना याद आता है। माँ अभी है इन्दौर में भाई के पास, लेकिन काफी समय से वह बात नहीं कर सका है। काम के दबाव में उसे कुछ याद नहीं रहता है। कई बार तो दफ्तर से बाहर निकलने के बाद मालूम पड़ता है कि रात काफी हो गई है और शहर सोया पड़ा है। हालाँकि चौबीस घंटे चलने वाले उसके दफ्तर में आने-जाने की कोई पाबंदी नहीं है। तीनों फ्लोर पर एक-एक हॉल है बड़ा सा, जिनमें हॉफ कवर केबिन है बहुत सारे। जिसमें हर तरफ तमाम कर्मचारी लैपटाप पर गरदन झुकाए अपने असाइंमेंट से जूझते लगे रहते हैं। लगता है जैसे सब तृतीय विश्वयुद्ध में लगे हैं। योद्धा थकने पर प्रायः यहीं टेबल पर सिर रख कर नींद ले लेने के अभ्यस्त हो गए हैं। देर रात काम खत्म करके घर केवल सोने जाना इनके लिये कठिन होता है। दूरी और ट्रैफिक इतना है कि आने-जाने में दो-तीन घंटे बरबाद होते हैं। बहरहाल, जेडी को एक अजीब सी थकान ने घेर लिया था। आज, पूरा एक दिन घर पर रह कर वह सो लेना चाहता है। सो लिहाफ ओढ़ कर उसने अपने को लंबा कर लिया। लेकिन पाँच मिनट बाद ही अलार्म दोबारा बज उठा और वह यंत्रवत तैयार होने लगा।

लैपटॉप दबाए उसने दफ्तर में प्रवेश किया। रोशनी में नहाया हॉल लगभग भर गया था। हर तरफ एक जैसे केबिन में, एक जैसे कपड़े पहने, हरेक के गले में नीले रिबन से लटकता एक जैसा परिचय-पत्र, एक जैसा लेपटॉप सामने खोले, लगभग एक सी मुद्रा में तमाम लोग बैठे काम कर रहे हैं। सोमवार से शुक्रवार तक यही इन लोगों का संसार है। उसे कोने का एक केबिन खाली मिल गया। पिन लगा कर लैपटॉप ऑन किया। सुस्ती और नींद जैसे उसका पीछा ही नहीं छोड़ रही थी। आज मंगलवार है और वीकेंड में अभी चार दिन बाकी हैं। सोचा पहले थोड़ा सो लूँ, लेकिन असाइंमेंट का दबाव भी बराबर मौजूद था।

“हाय जेडी,... क्या हो रहा है?” जेकी ने पूछा जो पिछले प्रोजेक्ट में उसके साथ था।

“अब शुरू कर रहा हूँ, ... और सुना?”

“छँटनी का सुन रहे हैं... बात हो रही है कि सात सौ से ज्यादा बाहर जाएँगे जिनका परफारमेंस ठीक नहीं है।”

“सात सौ!... !”

“तेरे असाइंमेंट का क्या चल रहा है?”

“अभी कर रहा हूँ।”

“जल्दी निबटा यार... वरना दिक्कत हो सकती है।” कहते हुए जेकी चला गया।

जेडी को लगा कि अचानक उसमें एक ताकत सी आ गई है। नींद और सुस्ती अविश्वसनीय रूप से स्थगित हो गई हैं। पिछले हफ्ते वह एक स्टेप पर ऐसा उलझ गया था जिसमें पूरे दो दिन बरबाद हो गए थे। लेकिन अब जो भी हो उसे रात-दिन लग कर काम पूरा करना होगा। उसे विश्वव्यापी मंदी का खयाल हो आया।

शाम होने के पहले सागरिका बॉस के साथ टूर पर निकल गई। इससे कंपनी में उसका महत्व, ओहदा और वेतन तीनों बढ़ेंगे। यदि ये डील उस तरह पूरी हो गई जिस तरह कंपनी चाहती है तो उसे पावर भी मिलेंगे। "सागरिका, इस डील के लिए हमें कुछ भी करने के लिए तैयार रहना होगा। हर हाल में हमें इसे हासिल करना है।” बॉस ने होटल पहुँचते ही ध्यान अपने टारगेट पर केन्द्रित किया।

“हम आए ही हैं डील के लिए सर, करके ही जाएँगे।” सागरिका भी आर-पार के मूड में थी।

“चाहे जो हो, चाहे जैसे हो।”

“ओके, सर।” सागरिका ने बात को समझते हुए कहा।

तीन दिनों तक स्टेप-बाई-स्टेप और आगोश-दर-आगोश मीटिंग चलती रही। डिनर से पहले और डिनर के बाद जो-जो हुआ सब डील के अंतर्गत हुआ। कंपनी आज अपने समकक्ष कई दूसरी कंपनियों को पीछे छोड़ते हुए बड़ी सफलता हॉसिल कर रही है। डील पूरी होने की सूचना मिलने पर कंपनी ने बताया कि डील-टीम के लिए एक वर्ल्ड टूर गिफ्ट किया गया है और सागरिका का प्रमोशन किया जा रहा है।

शनिवार की सुबह सफाईकर्मियों ने देखा कि एक 'साब' टेबल पर अभी भी सोए पड़े हैं। उन्हें उठाने की कोशिश की तो लगा बेहोश हैं। गले में लटके परिचय-पत्र से मालूम हुआ कि ये जेडीएस हैं। एम्बुलेंस के अस्पताल पहुँचते ही डॉक्टर जुट गए। पता चला कि न केवल वे मर चुके हैं बल्कि उनकी मौत को तीन दिन हो चुके हैं। उनका शव अस्पताल में सुरक्षित रख लिया गया है। यहाँ कहाँ रहते थे किसी को मालूम नहीं है इसलिए उनके घर, इन्दौर फोन कर दिया गया है।

सोमवार को दफ्तर खुलते ही मैनेजमेंट ने शोकपत्र पर हस्ताक्षर कर दिये और एक कॉपी नोटिस बोर्ड पर लगवा दी। कंपनी की डील-टीम दोपहर तक लौट आने वाली है।

शानदार डील की खुशी में रात आठ बजे कंपनी की तरफ से एक ग्रांड पार्टी आयोजित है। इसी में सागरिका के प्रमोशन को भी सेलीब्रेट किया जाएगा।

सागरिका को जेडी की खबर मिल चुकी थी। घर पहुँच कर तकिए में सिर दिए वह कुछ देर रोती रही। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि जेडी अब नहीं है। उस दिन आखरी मुलाकात के समय वह कितना नर्वस था, काश कि उसने उस दिन उसे थोड़ा समय दिया होता। कारपोरेट सिस्टम में वह सबसे नीचे वाले रिंग में था, इसलिए सबसे ज्यादा दबा हुआ भी। उसे जेडी पर गुस्सा आया। यहां लोग सपनों के साथ उड़ान भरते हैं और वह अपने सपनों के साथ मर गया। लेकिन वह किसी के लिए नहीं मरेगी, न साझा सपनों के लिए न जेडी के लिए।

तभी तकिए के नीचे रखा कंडोम का पाउच उसके हाथ आ गया, जिसें उसने अपने पर्स के अंदर वाले पॉकेट में रख लिया। घड़ी देखी, चार तीस हो गया। उसे अभी पार्लर जाना है, रात आठ बजे से पहले तैयार हो कर पहुँचना है। आज उसके करियर का सबसे बड़ा दिन है। मुँह पर पानी के छींटे मार कर उसने अपने को फ्रेश किया और 'गुड बाय, जेडी!' कहते हुए बाहर निकल गई।