गुफा से निकाले खानाबदोश बच्चे / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 17 जुलाई 2018
थाईलैंड की जलसेना ने बहुत सूझबूझ और साहस से अंधेरी कंदरा में फंसे बारह बच्चों और उनके फुटबॉल कोच को सुरक्षित बाहर निकाल लिया। पहली बात तो यह है कि संहारक हथियार बनाने वाली टेक्नोलॉजी मनुष्य के प्राण बचाने वाले यंत्रों का भी निर्माण करती है। ज्ञातव्य है कि दवाएं महंगी बेची जाती हैं और उनका यह अधिक मूल्य भी बाजार की ताकतों ने तय किया है। यह सच है कि कुछ पश्चिमी देशों की सरकारें दवाओं के शोध पर बेहिसाब धन खर्च करती हैं परंतु दवाओं को बाजार महंगा कर देता है। एक दौर में कोलकाता की एक कंपनी दस पैसे की बिटामिन बी कॉम्प्लेक्स बेचती थी परंतु महंगे में दवा बेचने वालों ने उस कंपनी को बंद करवा दिया। जब तक चुनाव लड़ना सस्ता नहीं होगा तब तक महंगाई पर रोक नहीं लग सकती। एक दुश्चक्र है कि नेता को चुनाव का चंदा पूंजीपति देते हैं और चुनाव जीतने पर नेता उद्योगपति को धन कमाने का लाइसेंस देता है।
दूसरी बात यह है कि ये तमाम बच्चे उन सरहदी इलाकों से आए हैं जहां सरकार का जमकर विरोध किया जा रहा है। यही असली सहिष्णुता है। तीसरी बात यह है कि सारे बच्चे साधनहीन परिवारों से आए हैं और इनमें एक बच्चे का परिवार अन्याय के विरोध में हमेशा मुखर रहा है। सारे बच्चे फुटबॉल खेल रहे थे और उनकी गेंद गुफा में गिर गई थी। हाल ही में समाप्त विश्वकप में यह निर्णय किया गया है कि हजारों फुटबॉल गरीबों को खेलने के लिए दी जाएंगी।
गुफा में फंसे चार बच्चे ऐसे हैं, जिनके पास किसी भी देश के नागरिक होने का प्रमाण-पत्र नहीं है। अनेक खानाबदोश लोग देश दर देश यात्राएं करते हैं और किसी सराय में रात गुजारते हैं। सच तो यह है कि दुनिया ही एक सराय है, जहां हम सब कुछ समय के लिए ठहरे हैं। निदा फाज़ली के एक शेर का आशय है 'यहां हर राह मुसाफिर है और सफर में ज़िंदगानी है'। गुलजार ने भी लिखा है कि राहों के दिए आंखों में लिए चलता जा मुसाफिर'।
बहरहाल, इन बच्चों और उनके कोच के गुफा से निकाले जाने पर एक रोचक फिल्म बनने की संभावना भी है। इस तरह की फिल्म की घोषणा कभी हो सकती है। ज्ञातव्य है कि मधुर भंडारकर की फिल्म 'पेज थ्री' में भी बच्चों पर यौनाचार का मुद्दा उठाया गया था। इस कांड में एक उद्योगपति का हाथ था, जो अखबार के मालिक पर दबाव डालकर कांड को उजागर नहीं होने देता और खोजी पत्रकार को नौकरी से निकलवा भी देता है। चार्ल्स डिकेन्स के सर्वकालिक महान उपन्यास ऑलिवर ट्विस्ट में बच्चों से भीख मंगवाना व चोरियां करवाने की कथा है, जिस पर इंग्लैंड में तीन बार फिल्में बनाई गई और भारत में दो बार। दूसरी बार बनाई गई खालिद सामी की फिल्म का नाम 'कन्हैया' था।
राज कपूर की 'बूट पॉलिश' फिल्म के भी मुख्य पात्र दो नन्हे हैं, जिन्हें भीख मांगने पर विविश करती है उनकी दूरदराज की चाची! ज्ञातव्य है कि राज कपूर ने अपनी फिल्म 'आह' की असफलता के बाद बच्चों पर केंद्रित सफल फिल्म 'बूट पॉलिश' बनाई। ठीक इसी तरह 'जोकर' की असफलता के बाद नए कलाकारों को लेकर 'बॉबी' जैसी भव्य सफलता गढ़ी। 'ट्रैफिक सिग्नल' नामक फिल्म में भीख मांगने वाले बच्चों की कहानी थी।
यह अत्यंत चिंताजनक है कि मध्यप्रदेश में कुपोषण के कारण बच्चे मर रहे हैं या अवसाद भरा जीवन जी रहे हैं। करोड़ों रुपए से बने रथों की यात्रा पर मुख्यमंत्री चल पड़े हैं। बहरहाल थाईलैंड की गुफा में फंसे बच्चों ने गजब का धैर्य और साहस दिखाया। वे चीखे-चिल्लाए नहीं वरन शांत और संयत बने रहे। उन्होंने कभी आशा नहीं छोड़ी। इन बच्चों की चारित्रिक दृढ़ता से बड़े लोगों को सबक लेना चाहिए।
बचपन की पटकथा पर ही जीवन की फिल्म आधारित होती है। आज बच्चे अपने वजन से अधिक भारी बस्ता लेकर स्कूल जाते हैं। इस भार के कारण ही वे झुककर चलना और दबकर जीना सीख जाते हैं। मौजूदा निजाम भी यही चाहता है कि भावी नागरिक आज्ञाकारी कुबड़े लोग हों। बहरहाल, थाईलैंड के कुछ बच्चे खानाबदोश थे। पाकिस्तान की रेशमा भी खानाबदोश थीं। सुभाष घई ने फिल्म 'हीरो' में रेशमा का गीत लिया था- 'चार दिनों का प्यार हो रब्बा/बड़ी लंबी जुदाई/ होठों पर आई मेरी जान/ दुहाई, हाय लंबी जुदाई'