गुब्बारा / एक्वेरियम / ममता व्यास
उस दिन मेले में वह बच्चा अकेला हाथ में एक गुब्बारा लिए घूम रहा था। उसके मासूम से चेहरे पर गहरी उदासी थी और नन्हे हाथों में एक गुब्बारा। अकेले वह बार-बार उस गुब्बारे को देखता फिर हथेली में दबा लेता। उसकी उदासी देख वह खुद को रोक न सकी उसके पास गयी और बोली-"क्या हुआ प्यारे बच्चे।"
"ये गुब्बारा कैसे उड़ेगा? मैं इसे उड़ाना चाहता हूँ लेकिन ये तो उड़ता ही नहीं।"
"अरे...ये बिन हवा के नहीं उड़ सकता, इसके भीतर हवा का रहना ज़रूरी है जैसे हमारा मन बिन कल्पना के नहीं उड़ सकता।"
"तुम कौन हो और कैसे जानती हो सब और कहाँ रहती हो?"
"मैं तो हवा हूँ मेरा कोई घर नहीं, देश नहीं, कहीं भी, कभी भी रुकती नहीं मुझे भी घर की तलाश है।" वह उदास हो गयी।
"क्या तुम मेरे गुब्बारे के भीतर रह सकती हो?"
"खुशी से।"
वे दोनों खुश थे हवा को एक घर मिल गया था और उस नन्हे बच्चे को गुब्बारे का होना सार्थक लगने लगा।
एक दिन बच्चे ने आकाश को देखा, न जाने क्या सोचा...और गुब्बारे को आकाश में उड़ा दिया। उस मासूम को लगा गुब्बारा उसकी गेंद की तरह है उसे ऊपर उछालने से वह वापस उसके हाथों में आएगा। गुब्बारा वापस कभी नहीं आया। डोर उसके हाथ से छूट चुकी थी। अपनी हथेलियों पर डोर के तीन गहरे निशान वह कई जन्मों तक देखता रहा।