गुब्बारे / कबीर संजय
तनु और नीतू लस्टम-पस्टम स्कूल से घर पहुँचीं। तनु ने लोहे का गेट खोला और दोनों अंदर आ गई। तनु ने गेट के बोल्ट को उल्टा घुमाकर बंद कर दिया। दरवाजे के पास जूतों की रैक लगी हुई थी। यहाँ पर कई जूते-चप्पलों के साथ ही पापा के जूतों की भी एक जोड़ी रहती थी। पापा-मम्मी काम पर जाते समय घर की चाभी इसी जूते में रख जाते थे। तनु ने जूते में से चाभी निकाली और दरवाजे का ताला खोला।
घर के अंदर घुसते ही दोनों बहनों ने सबसे पहले तो बस्ते का बोझ उतार फेंका। नीतू छोटी थी। तनु बड़ी। दोनों में दो साल की छोटाई-बड़ाई थी। लेकिन इतने में भी जिम्मेदारियों और नखरों की भूमिका तय हो ही जाती है। पहले तो तनु ने भी अपने बस्ते को यूँ ही कुर्सी के पास छोड़ दिया और अपने जूते और मोजे उतारने लगी। इतने में नीतू भी अपने जूते और मोजे उतारते हुए अंदर वाले कमरे में जा घुसी। तनु ने अपने जूते-मोजे उतारे और उसे दरवाजे के बाहर जूतों वाली रैक में रख दिया। अंदर जाकर उसने जूते रैक में नहीं रखने के लिए नीतू को डाँट पिलाई तो नीतू भी कुछ ना-नुकुर-सी करते हुए जूते को रैक में रख आई।
नीतू का स्कूल में दाखिला इसी साल हुआ था। पहली कक्षा में। उसकी उम्र छह साल के लगभग रही होगी। तनु उससे दो साल बड़ी। माँ स्वास्थ्य विभाग में नौकरी करती थी। पिता केमिकल फैक्टरी में सुपरवाइजर थे। माँ-बाप दोनों को ही काम पर जाना होता था। इसलिए बेटियों को घर सँभालना और उसकी देख-रेख करना काफी-कुछ आ गया था। सुबह जब वे दोनों सोकर उठती तो पता चलता कि माँ-बाप तो काफी पहले से ही उठ चुके हैं। अपने नाश्ते के साथ-साथ वे बेटियों का टिफिन भी तैयार कर देते। उसी हबड़-तबड़ में तनु और नीतू भी स्कूल की तैयारी करती थीं। सात बजे वे दोनों घर से स्कूल के लिए चल देतीं। स्कूल ज़्यादा दूर नहीं था। कॉलोनी में सब लोग जानते भी थे। तो दोनों बहनें एक-दूसरे का हाथ पकड़े स्कूल चली जाती थीं। बारह बजे स्कूल की छुट्टी होती थी तो दोनों बहनें वैसे ही एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए वापस आ जातीं। तनु और नीतू को चाभी के बारे में पता था। वे दरवाजा खोलती थीं और तब तक घर में ही रहती थीं जब तक कि माँ-बाप काम से वापस नहीं आ जाते थे।
उनके स्कूल जाने के तुरंत बाद ही पिता घर से निकल जाते थे। लेकिन, उनके आने का समय थोड़ा ज़्यादा था। वह शाम को सात-आठ बजे तक घर आते। जबकि, माँ घर से नौ बजे तक निकलती और छह बजे तक घर आ जाती। इस बीच दोनों बहनें घर के अंदर रहतीं। मोहल्ला जाना-पहचाना था। सभी बच्चे घुले-मिले थे। पास-पड़ोस भी सबको जानता पहचानता था। इसलिए कोई दिक्कत की बात थी नहीं थी। कोई परेशानी हो तो आसपास में किसी को भी कहा जा सकता था। रसोई में दोनों बहनों के लिए खाना रखा होता। तनु एक प्लेट में खुद के लिए और दूसरी में नीतू के लिए खाना निकाल देती। दोनों खाना खाते। फिर अक्सर ही आस-पड़ोस की लड़कियाँ भी खेलने आ जातीं। खेल-खेल में कब छह बज जाते पता ही नहीं चलता। इसी बीच कई बार आपस में गुत्थम-गुत्था भी हो जाता। मारपीट और मान-मनोव्वल तो आम-सी बात थी।
उस दिन भी स्कूल से घर आते समय तनु से नीतू थोड़ा नाराज-सी ही थी। तनु ने नीतू का हाथ पकड़ा नहीं और अपनी दोस्त के साथ बात करते हुए आगे ही आगे निकल आई। जबकि, नीतू बार-बार उसे अपना हाथ पकड़ाती रही। इसके बाद भी जब तनु का ध्यान उस पर नहीं गया तो नीतू ने भी मन में सोचा, हुँह बड़ा आईं।
खैर तनु को आखिर अपनी बहन का ध्यान आया और उसने कस कर नीतू का हाथ पकड़ लिया। नीतू ने पहले तो हाथ छुड़ाने की कोशिश की फिर अपना हाथ उसके हाथों में दे दिया और दोनों साथ-साथ चलने लगीं।
जूते-मोजे उतारने, यूनीफार्म उतारकर घर के कपड़े पहनने, मुँह हाथ धोने तक में तनु का रोब चलता है। अपना काम करते-करते वह नीतू को डाँटना फटकारना नहीं भूलती। फिर दोनों खाना खाने लगीं। खाना अभी खतम भी नहीं हुआ था कि बिट्टी और प्रीती भी आ गईं। इससे खाना ज़रा जल्दी खतम हुआ। फिर खेलने का दौर शुरू हो गया। छुपम-छुपाई या आई स्पाई भी बचपन में खेले जाने वाले सबसे मजेदार खेलों में से एक है। चार में से किसी एक को स्पाई का काम करना था। वह आँगन के पास जाकर दीवार की तरफ मुँह करके दस तक की गिनती गिनता, इस बीच में सभी लोगों को अपनी-अपनी जगह पर छुप जाना था। छिपने की गिनी-चुनी जगहें थीं घर में। उसी में बदल-बदल कर कोई कहीं तो कोई कहीं छिप जाता था। जल्दी ही सब लोग ढूँढ़ भी लिए जाते। जिसे देख लिया जाता उसे जाकर आइसपाइस बोल देते। सबसे पहले जो आइसपाइस में पकड़ाया, अगली बार बाकी लोगों को ढूँढ़ने की जिम्मेदारी उसकी हो जाती।
नीतू स्पाई बनी थी। बाकी लोगों को ढूँढ़ रही थी। नई जगह की तलाश करते-करते तनु लकड़ी की सीढ़ी पर पैर रखकर ऊपर टाँड़ पर चढ़ गई। टाँड़ पर लगाए गए पर्दे के पीछे वह चुपचाप अपनी साँस रोककर बैठ गई। इसी बीच उसकी निगाह यहाँ पर रखे एक गत्ते के डिब्बे पर पड़ी। यह डिब्बा उसने पहले तो यहाँ देखा नहीं था। उसके अंदर हाथ डाला तो अंदर टाफी के पाउच जैसे ढेर सारे छोटे-छोटे पाउच दिखे। हाँ, ये टाफी की तरह गोल-मटोल नहीं बल्की पतले-पतले थे। लेकिन उसके अंदर कुछ बंद तो ज़रूर था। उसने अपनी उँगलियों से टटोलकर देखा। कुछ तो ज़रूर है। तनु पढ़ना सीख ही रही थी। ज्यादातर चीजें वह जोड़-जोड़कर पढ़ लेती थी। होंठों से थोड़ा बुदबुदाहट तो होती थी लेकिन वह मन में पढ़ लेती थी। पर कई बार मात्रा अलग-अलग लग जाती और अक्षर ग़लत हो जाते।
नि-धो-र। पहले उसने पढ़ा। फिर उसे अपनी गलती का अहसास हुआ। नहीं, नहीं। न, फिर छोटी ई की मात्रा, र फिर र में ओ की मात्रा फिर ध। नि-रो-ध। पूरा पढ़ने के बाद भी उसे कुछ खास समझ में नहीं आया तो उसने एक पाउच हल्के से फाड़ लिया। पाउच के अंदर से एक चिकना-चिकना सा, सफेद रंग का गुब्बारा निकल आया। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। इतने में ही पाउच के फाड़े जाने की आवाज सुनकर नीतू ने उसे ढूँढ़ लिया।
उसने तुरंत ही आइस-पाइस बोल दिया।
पर अब आइस-पाइस बोले जाने की परवाह किसको थी।
अपने हाथ में गुब्बारे के चार-पाँच पाउच लेकर तनु नीचे उतर आई। उसके हाथ में गुब्बारा देखकर बाकी सहेलियों की भी खुशी और हैरत का ठिकाना नहीं रहा। हालाँकि गुब्बारे की चिकनाई और उसमें लगा हल्का पाउडर सा, उसे थोड़ा संदिग्ध भी बना रहा था। ऐसा लगता कि जैसे कि उसमें कोई रहस्य-सा छुपा हुआ है। पर कुछ ही देर में शुरुआती हिचक दूर हो गई और उस पर जिज्ञासा हावी हो गई। उन्होंने गुब्बारे को फुलाना शुरू किया। अभी तक उनके हाथ लगने वाले गुब्बारों से तो यह बहुत बड़ा था। उसे फुलाने में उनकी खुद की साँसें ही फूलने लगीं।
गुब्बारों की कमी तो थी नहीं। सबने एक-एक पाउच ले लिया और उसमें से गुब्बारे बनाकर फुलाने लगी। गुब्बारे में ढेर सारी हवा भरकर किसी तरह से उसमें गाँठ भी लगा दी। गुब्बारे का मुँह सामान्य गुब्बारों से बड़ा था, इसलिए उसमें गाँठ लगानी थोड़ी कठिन थी। पर थोड़ी कोशिश से क्या नहीं हो सकता। गाँठ बांधी और उसके बाद उसे उछाल-उछालकर लगे खेलने। कभी गुब्बारे से एक-दूसरे को मारने का भी खेल चला। कभी गुब्बारे को तलवार या लाठी पकड़कर युद्ध भी हो जाता। गुब्बारे की फुटबाल तो सबसे मजेदार। कोई आम दिन होता तो वे कुछ देर आइस-पाइस खेलने के बाद घर-घर खेलने लगतीं। जिसमें कोई एक मम्मी-पापा बन जाता। तो कोई एक बच्चा। फिर कोई एक मेहमान बन जाता। फिर मम्मी-पापा के घर मेहमान आते। उनको चाय-नाश्ता बनाकर देने का सिलसिला चलता। कभी मम्मी के पेट में बच्चा भी आ जाता। तो डॉक्टर बुलाया जाता। डॉक्टर आला लगाकर देखता और कहता, हाँ बच्चा ठीक है। बस अब पैदा होने ही वाला है। जाहिर है कि प्रेगनेंट शब्द उनकी डिक्शनरी में शामिल हो चुका था। भले ही शरीर के सारे भेद उजागर नहीं हों। जब अड़ोस-पड़ोस की आंटियाँ आपस में बड़े रहस्यमय अंदाज में किसी के प्रेगनेंट होने के बारे में बात करतीं तो उन लड़कियों के भी कान खड़े हो जाते। तो उनके यहाँ भी जब डाक्टर आते तो वे भी बड़े रहस्यमय अंदाज में प्रेगनेंट होने की जानकारी का उद्घाटन करती।
पर उस दिन तो उनके लिए खेल का एक नया ही जरिया खुल गया। शाम को जब तक माँ-बाप के आने का समय होता तब तक लड़ाई-झगड़े में गुब्बारे फूट चुके थे। या पंचर होकर किसी किनारे सुस्त से पड़ गए थे। छुपा कर रखे गए गुब्बारे खुद निकालने के अपराध में मार खाने की प्रबल संभावना थी। उन लोगों ने तुरंत ही सभी गुब्बारों के अवशेषों को समेटा और उसे कचरे की टोकरी में डाल दिया।
किसी को पता भी नहीं चला। माँ-बाप भी आए। खाना-वाना बना। सोया-वोया भी गया। अगली सुबह भी हो गई। वैसे ही भागदौड़ भी शुरु हुई। पर स्कूल से आने के बाद इस बार फिर से गुब्बारे फुलाने और उसके साथ खेलने का खेल शुरू हो गया। जी भर कर गुब्बारे से खेलाई होती। हालाँकि उसे फुलाने में कई बार होंठों पर अजीब-सा चिकना-चिकना-सा लगने लगता। पर खेल के उत्साह में इस पर ध्यान कौन देता। बीच खेल में कोई गुब्बारा फट भी जाता तो गत्ते के डिब्बे से दूसरा निकाल लिया जाता। इस तरह से फिर खेल शुरू हो जाता। हाँ, इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी था कि इसका पता घर में किसी को न लगने पाए। तो माँ-बाप के आने के पहले ही गुब्बारे के सभी अवशेष कचरे के डिब्बे में पहुँच चुके होते।
यूँ तो घर-घर खेलने में भी कम मजा नहीं था। लेकिन वह तो सभी लड़कियाँ एक-दूसरे के साथ और एक-दूसरे के घर में खेल ही लेती हैं। लेकिन, गुब्बारे का नया खेल और घर में कोई रोक-टोक नहीं होने के चलते अब बच्चों के लिए तनु और नीतू का घर खेल के लिए सबसे उपयुक्त हो गया था। तनु और नीतू के स्कूल से आते ही उनके घर पर बच्चों का जमघट-सा लग जाता। कुछ देर तो कुछ खेल चलता, तो फिर खेल बदल जाता। फिर गुब्बारे फुलाकर उससे लड़ाई लड़ने का खेल शुरू हो जाता।
गत्ते से पाउच खतम ही नहीं होते थे। तनु को अंदाजा था कि मम्मी को ज़रूर कहीं से ये गुब्बारे मिलते हैं। फिर वह उन्हें छिपाकर इस गत्ते में रख देती है। एक रात तो अचानक नींद खुलने पर उसे लगा कि पापा हाथ डालकर उन्हें टटोल भी रहे हैं। कहीं गिन तो नहीं रहे। गुब्बारे कम तो नहीं हो गए। उन्हें पता तो नहीं चल जाएगा। जाहिर है कि उन्हें पता नहीं चलता। क्योंकि कुछ ही देर में वे गत्ते से हाथ निकालकर अपने कमरे में सोने चले जाते।
तनु को अपनी माँ पर गुस्सा भी बहुत आता। अरे जब इतने गुब्बारे हैं तो वे बच्चों को खेलने के लिए क्यों नहीं दिए जा रहे हैं। उन्हें छिपाकर कर क्यों रखा जा रहा है। पर इसपे बहस तो दूर उसने कभी इसकी भनक भी नहीं लगने की दी उसे गत्ते के डिब्बे में रखे गए गुब्बारों के बारे में जानकारी है।
एक दिन दोपहर में तनु और नीतू के घर ढेर सारे बच्चे जमा थे। अचानक ही आसमान में काले-काले बादल छा गए। तेज-तेज हवा चलने लगीं। कुछ ही देर में बड़ी जोर की बारिश आई। मोटी-मोटी बूँदों वाली। बारिश की झड़ी लग गई। हवा के साथ पानी की मोटी बूँदों का राग-सा छिड़ गया। कभी तेज तो कभी और तेज। पानी के परनाले बहने लगे। आँगन में टखनों तक पानी जमा हो गया। घर के बाहर से भी टखने के बराबर तक पानी बहने लगा। इसी बीच किसी एक बच्चे ने खूब बड़ा-सा फुलाया हुआ गुब्बारा पानी में तैरा दिया। गुब्बारा पहले तो पानी में गोल-गोल घूमता रहा फिर घर के बाहर से बह रहे पानी की मुख्य धारा में मिल गया और तेजी से तैरता हुआ आगे चला गया। उसे इतनी तेजी से तैरता हुआ देखकर दूसरे बच्चों का भी उत्साह बढ़ गया। उन्होंने भी अपने-अपने गुब्बारे पानी में बहाने शुरू कर दिए। कुछ ने तो दोबारा गुब्बारे निकालकर बहाने शुरू किए। पूरी गली में बारिश के पानी में बहते गुब्बारों का रेला-सा निकल पड़ा। जैसे सफेद गुब्बारों का कोई मौन जुलूस-सा गुजर रहा हो। मौसम की पहली बाऱिश थी तो कई लोग अपने-अपने घरों से बारिश का मजा ले रहे थे। अचानक उनकी निगाहें सड़क के बीचों-बीच बह रहे सफेद रंग के चिकने-चिकने गुब्बारों पर पड़ी। तो उनकी हैरतों का ठिकाना नहीं रहा।
ये यू-ट्यूब और एचडी का जमाना तो था नहीं कि हीरो और हीरोइन एक-दूसरे के मुँह में मुँह घुसाए, अपनी-अपनी जीभों से एक-दूसरे का स्वाद चखने की कोशिश कर रहे हों। ये तो वह जमाना था कि जब रँगोली और चित्रहार आने से आधे घंटा पहले ही लोग पालथी मारकर टीवी के सामने जम जाते थे। गाने में हीरो-हीरोइन अचानक पेड़ के पीछे चले जाते तो गुलाब के दो फूलों को स्क्रीन लड़ाया जाने लगता। कभी-कभी दो तोते एक-दूसरे से अठखेलियाँ करने लगते। टीवी के स्क्रीन पर इधर दो फूलों के लड़ने का दृश्य दिखाई देता, उधर रँगोली और चित्रहार देख रहे सारे बड़े बगले झाँकने लगते और बच्चे सोचते कि अरे ये अभी गाना गाते-गाते हीरो-हीरोइन पेड़ के पीछे क्यों छिप गए।
पर बच्चे जिस पहेली को बूझने में सालों लगा देते हैं, पहले से जानने के चलते बड़े उस पहेली का भेद एक नजर देखते ही सुलझा लेते हैं। उन गुब्बारों का राज समझते उन्हें देर नहीं लगी। उन्होंने देखा कि गुब्बारे एक लाइन बनाकर ठाकुर साब के घर से निकल रहे हैं। उनकी दोनों बेटियाँ गुब्बारों को बड़े उत्साह के साथ पानी में तैरा रही हैं। उनकी बड़ी वाली बेटी तो किसी एक्सपर्ट की तरह ही गुब्बारे फुला रही है और उसे पानी में तैरा रही है। कभी गुब्बारा पानी की मुख्य धारा तक जाने का रास्ता भटकने लगता तो वह थोड़ा-थोड़ा पानी उलीचकर उसे रास्ता भी दिखाने लगती। जैसे ही गुब्बारा पानी की मुख्य धारा में शामिल होता बच्चे खुशी से चिल्ला पड़ते। हो-ओ। हो-ओ-ओ।
कुछ ही देर में बच्चों के माँ-बाप छाता लेकर अपने बच्चों को ले जाने के लिए आ गए। माँ-बाप की आँखों में बसे क्रोध को बच्चे समझ भी नहीं पाए। बिट्टी के गाल पर तो वहीं पर तमाचे बज गए। अक्सर ही बच्चों को यह भी पता नहीं चलता कि उन्हें मार क्यों पड़ी है। उसकी वजह भी नहीं बताई जाती है। मार की सघनता और माँ-बाप के चेहरे पर चढ़ी त्यौरियों से उन्हें खुद ही अंदाजा लगाना पड़ता है कि आखिर उनसे गलती क्या हुई है और किस स्तर की हुई है। इसमें कई बार वे नाकाम ही साबित होते हैं। इस बार भी बच्चों को समझ नहीं आया कि आखिर ये कुटाई हुई क्यों। लेकिन, कुटाई हुई सारे बच्चों की।
इधर, जब सारे बच्चे चले गए तो तनु और नीतू भी अपना उत्साह बनाए नहीं रख सकीं। बच्चों के माँ-बाप की आखों में उन दोनों के लिए भी उलाहना और गुस्सा मौजूद था। अपने बालसुलभ भय से वे इसे तुरंत ही पढ़ चुकी थीं। इसलिए पानी में गुब्बारे तैराने का खेल छोड़कर वे भी चुपचाप अंदर आ गईं।
कुछ देर बाद बारिश बंद हो गई। पानी की धार बहनी भी बंद हो गई। पानी कई गुब्बारों को तो अपने साथ बहा ले गया। पहले नाली, फिर नाला और उसके बाद शायद पानी ने उन्हें नदी की भी सैर कराई हो। लेकिन, सारे गुब्बारे इतने खुशनसीब साबित नहीं हुए। कुछ गुब्बारे वहीं किसी नाली में अटके पड़े रहे। पानी की धार के साथ वे फड़फड़ा से जाते और मोहल्ले के कई शरीफ लोगों की शराफत को चुनौती-सी देने लगते। कई लोग उसे देख तो रहे थे लेकिन उस पर से अपनी निगाहें फेर लेते। अब कौन उसे जाकर हटाए। या हटाकर भी कहाँ रखे। उन गुब्बारो में कुछ ऐसी कैफियत आई हुई थी कि उनके अस्तित्व के बारे में जानकारी तो कई लोगों को थी लेकिन उसके अस्तित्व को स्वीकार कोई नहीं करना चाहता था।
शाम हो गई। बच्चे चले गए थे तो नीतू और तनु को भी नींद आ गई। मम्मी के आने से उनकी नींद खुली। दफ्तर से आने के बाद मम्मी अभी चाय पीकर हटी ही थीं कि पड़ोस वाली आंटी जो उनकी सबसे पक्की सहेली थी, घर आ गईं। बोली:
आ गइन, ठीक रओ सब।
हाँ। हाँ ठीक रहा सब।
खाना-वाना खाय लौ।
हाँ खाय लौ।
कछु बतानो हतो तुमे।
तुमाई मोढ़िन ने आज तो अति धरदई। हम तो मूड़ उठाय के चलै नई पा रऐ थे। पूरी गली में मोड़िन ने गुब्बारै पार दए। तुमने कछु सिखाओ नई इने। कछु नई समझाती। तेइंसो, बहुतै बदमास मोड़िन हैं।
का बात हुई।
आंटी ने मम्मी के कानों के पास अपना मुँह सटाकर कुछ खुसुर-फुसुर करना शुरू कर दिया। अब क्या बात हुई यह न तो तनु की समझ में आया और न ही नीतू की। लेकिन उस खुसुर-फुसुर के नतीजे फौरन सामने आ गए। आंटी के जाते ही मम्मी ने झाड़ू उठा लिया और उसी झाड़ू से दोनों को पीटना शुरू कर दिया।
बहुत हेर-ढूँढ़। हाँ। घर में क्या रखा है, क्या नहीं रखा है। किसी को ढूँढ़ने की क्या ज़रूरत है। घर की चीजों को किसी और के सामने दिखाने की क्या ज़रूरत है।
दोनों बहनें सफाई क्या देतीं। जब झाड़ू की बरसात होती हो तो कोई बात भी सुनता है भला। बुरी तरह से पिटकर दोनों अंदर वाले कमरे में जाकर एक-दूसरे से चिपककर लेट गईं। रुलाई पहले तो कोई बाँध-सा तोड़कर किलक-किलक कर बाहर निकलती रही। फिर बाँध का बहाव कम होने लगा। बीच-बीच में वे सुबक-सुबक पड़तीं। रोना बंद होने का नाम ही नहीं लेता।
आखिर मम्मी को भी दया आ गई। आखिर ये कोई बड़ी बात तो थी नहीं। उनके काम का हिस्सा ही था। अस्पताल की तरफ से उन्हें ढेर सारा मिलता था। परिवार नियोजन के फायदे बताते हुए उसको बाँटना होता था। बाँटते समय भी कई बार ऐसे-ऐसे सवालों के जवाब देने पड़ते हैं कि कोई भी आदमी बेशर्म हो जाए। कैसे इसका इस्तेमाल करना है, ये समझाने में तो कई बार सारे शरीर का खून मुँह पर आने को उतारू हो जाता है। कुछ औरतें तो इतनी जाहिल हैं कि समझ ही नहीं पातीं। आदमी समझना नहीं चाहते। खैर बच्चों को क्या पता।
अपनी दोनों बच्चियों को उन्होंने बाँहों में भर लिया।
जब कह दिया है कि घर का कोई सामान इधर-उधर मत किया करो तो तुम दोनों लोग ऐसा करती क्यों हो। कहना क्यों नहीं मानती हो।
अरे तो मम्मी कर क्या दिया। गुब्बारा रखा ही तो था। खेलने में लग गए। हमने सोचा कि मम्मी लाई हैं, हमें देना भूल गईं। इसलिए हम तो खेलने लगे। इसमें गलती क्या हो गई।
अब मम्मी को भी जवाब नहीं सूझा। बात बनाकर बोलीं, अरे बेटा, ये गुब्बारा गाँव-गिराम के बच्चों के लिए आता है। इसको सरकार भेजती है। खराब प्लास्टिक से बनता है। केमिकल लगा रहता है। बच्चों की सेहत खराब हो सकती है। इसीलिए मना करते हैं। इसे तो गाँव में जाकर बाँटते हैं। तुम्हारे लिए तो हम खुदै गुब्बारे वाले से अच्छा गुब्बारा नय खरीद देते हैं।
दोनों बच्चों ने इस बात के तर्क को समझा। कि गुब्बारा गरीब बच्चों के लिए आया है। उनके पास कुछ खेलने को तो रहता नहीं है। तुम्हारे पास तो देखो खेलने के लिए कितनी सारी चीजें हैं। गाँव के बच्चों के पास तो कुछ नहीं है। इसलिए अगर उनके गुब्बारों से भी तुम ही लोग खेलने लगोगी तो वे लोग बेचारे किससे खेलेंगे। कुछ बात समझ में आई तो उन्हें पछतावा भी हुआ। गाँव के बच्चों के कितने गुब्बारे उन्होंने यूँ ही बरबाद कर दिए। माँ ने गत्ते के डिब्बे को और ऊँचाई पर रख दिया।
इस घटना को दो-तीन दिन बीत गए। तनु और नीतू को देखकर अभी भी मोहल्ले में कई लोगों के चेहरे पर भेदभरी मुस्कान आ जाती है। ऐसा लगता है कि जैसे वे कोई रहस्य छिपाए हुए हैं। हाँ, तनु और नीतू इस भेद को भला क्या जानें।
तो, एक दिन पड़ोस वाली आंटी तनु और नीतू को मिल गईं। झाड़ू से पड़ी उस दिन की मार की याद तनु और नीतू को अभी भी ताजा थी ही। तो उन्होंने आंटी से तगादा कर लेना ही ठीक समझा।
क्यों, आंटी ऐसा क्या हो गया था कि तुमाई नाक कट गई उस दिन। हमने जरा-सा गुब्बारे से खेल ही तो लिया।
अरे तो तुमाई अम्मा ने न समझाई तुमे।
समझाई तो आंटी। गाँव के बच्चों के लिए आते हैं ये गुब्बारे। खराब प्लास्टिक के होते हैं। केमिकल लगा होता है। इसीलिए अम्मा मना करती हैं। बाकी और कोई बुराई नहीं है।
अरे, तुम मोड़िन लोग भी। बुराई-वुराई क्या है। तुम क्या समझोगी। तुमे तो कुछ भी ज्ञान नहीं है। माँ-बाप तो घर में रहते नहीं। चले जाते हैं कमाने। बेटियाँ घर में अकेले। बेकदरी तो होनी ही है। नाक कटाने पर तुली हैं।
अरे चाची। हमें कुछ मत कओ। अपने माँ-बाप पर लगने वाले आक्षेप से तनु का पारा भी सातवें आसमान पर पहुँचने लगा। तुमाई बिट्टी भी कम नहीं है। चार-चार गुब्बारे दिए हैं हमने। अपने बस्ते में लेकर फिरती हैं और भी माँगत रहीं। ई तो हमी हैं, मना कर दिए। न और न देते हम।
सत्यानाश। आंटी के मुँह से निकला। अबकी तो आंटी ने एकदम से अपना सिर ही पीट लिया।