गुमनाम है कोई अनजान है कोई / जयप्रकाश चौकसे

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गुमनाम है कोई अनजान है कोई
प्रकाशन तिथि : 28 अप्रैल 2021


वर्तमान महामारी के दौर में अखबारों में बदलाव दिख रहा है। सामान्य दिनों में मृत्यु और उठावने के लिए आधा पृष्ठ ही यथेष्ट होता था। अब कई-कई जगह तो डेढ़ पृष्ठ भी कम लग रहा है। उचित वर-वधू की तलाश के विज्ञापन घटते दिख रहे हैं। इसी तरह चौपट हुए उद्योग- धंधों के कारण वस्तुओं के विज्ञापन कम होते जा रहे हैं, लेकिनमृत्यु सूचना की भरमार चल रही है। ज्ञातव्य है कि विज्ञापन द्वारा अर्जित धन ही अखबार व्यवसाय की प्राणवायु है। अखबार की एक प्रति की लागत लगभग 8 रु. होती है और वितरण व्यवस्था का कमीशन देने के बाद हर एक अखबार प्रति में 5 रु. की हानि होती है, जिसे विज्ञापन द्वारा ही पूरा किया जाता है।

पहले सिनेमाघरों में फिल्म प्रदर्शन के विज्ञापन से आय प्राप्त होती थी। एक अंग्रेजी के अखबार में अधिक विज्ञापन देने वाले निर्माता की फिल्म की प्रशंसा समालोचक करते थे। हालांकि, यह बात अलग है कि भारतीय दर्शक पर समालोचना का कोई प्रभाव नहीं होता। दर्शक का फिल्म चुनाव का अनुभव बहुत पुराना है और वह समालोचना से कतई प्रभावित नहीं होता। एक दौर में फिल्म की बुराई करने वाली समालोचना से दर्शक जान लेता था कि फिल्म मनोरंजक है या नहीं। फिल्मकार मनमोहन देसाई अपनी फिल्म की समालोचक द्वारा की गई कटु आलोचना पढ़ कर बहुत खुश होते थे। वे जान लेते थे कि फिल्म कमाई वाली सिद्ध होगी। इसी तरह रमेश सिप्पी की ‘शोले’ की कटुआलोचना हुई। पहले दो सप्ताह तक बहुत कम दर्शक फिल्म देखने आए परंतु तीसरे सप्ताह के बाद दर्शकों में फिल्म के लिए उन्माद जागा और तीन वर्ष तक बॉक्स ऑफिस तंदूर दहकता रहा।

एक दौर में रिश्तेदारों को मृत्यु की सूचना जिस पोस्टकार्ड पर भेजी जाती थी, उस पोस्टकार्ड का एक कोना काट दिया जाता था। मृत्यु के विज्ञापन में श्लोक भी प्रकाशित किए जाते हैं कि मृत्यु तो मात्र चोला बदलना है, नए कपड़े पहन कर फिर आना है। एक कल्पना इस तरह भी की जा सकती है कि राज कपूर की आत्मा उस गगनचुंबी इमारत में नजर आती है, जो उनके स्टूडियो की जमीन पर बनी है। यह आत्मा लोगों को डराती नहीं, वरन बिगड़ते रिश्तों को जोड़ देती है, प्रेमियों की मदद करती है। नकारात्मक और वैचारिक संकीर्णता वालों को डराती है। यह आत्मा प्राय: गीत गाती है, ‘हम ना रहेंगे, तुम ना रहोगे, फिर भी रहेंगी निशानियां। अखबार के शोक संदेश वाले पृष्ठों पर हम ध्यान देते हैं कि आज अपना कौन गया। कल हम जिससे फोन पर बतिया रहे थे वह आज नहीं रहा। पहले से ही सुन्न पड़ी व्यवस्था अब कोमा में चली गई है। ऑक्सीजन सिलेंडर की अफरा-तफरी में व्यवस्था को भी ऑक्सीजन की दरकार है। विदेश से दान में मिले वैक्सीनेटर और प्रतिरोधक दवाओं को भी अन्य देशों में दान देने का प्रयास किया जा रहा है ताकि विश्व गुरु कहला सकें। छवि का छलावा और प्रचार जारी है। कोरोना से मरने वालों के आंकड़े छुपाने के बचकाना प्रयास में एक बड़ी लाॅरी में मृत लोगों को भरकर किसी सुनसान जगह पर अंतिम क्रिया के लिए ले जाया जा रहा था। अचानक ब्रेक लगने के कारण एक शव नीचे गिर गया तो बात उजागर हो गई।

यह भी हो रहा है कि अनजान व्यक्ति की लाश लावारिस पड़ी है। उसे सुपुर्द-ए-खाक करें या अग्नि संस्कार करें इस तरह की दुविधाएं मुंह बाए खड़ी हैं। कबीर एक रचना में कहते हैं, ‘यह मुर्दों की बस्ती है, चंदा मरी है, सूरज मरी है...।’ इस रचना के समय कोई महामारी नहीं थी। कबीर का तात्पर्य है कि समाज मृत समान है। केवल कबीर की वाणी जीवित रहेगी। वर्तमान में व्यवस्था का मंसूबा है कि सभी समान सोचें, एक से कपड़े पहने, गोयाकि आदमी का नाम नहीं हो, वह मात्र नंबर से संबोधित किया जाए। जेल खाने और पागल खाने में नंबर से ही संबोधित किया जाता है।