गुरुडम की माया / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
हम एक बात कहना भूल गए। असल में समय का नोट हमारे पास नहीं होने से यह बात हो गई। उज्जैन आने के पहले हम मध्यभारत की एक छोटी-सी रियासत राजकोट में पहुँचे।राजकोट कई होने के कारण उसके पास के ब्यावरा नामक स्थान को मिला कर उसे राजकोट ब्यावरा कहते हैं। ब्यावरा में हमने एक वैष्णव मठ में देखा कि एक साधु दिन में कभी भूमि पर बैठता या लेटता न था ─बराबर खड़ा ही रहता था। कहते थे कि बारह वर्ष तक ऐसा ही रखने का उसने संकल्प किया है। रात में सोने के समय एक ऊँचे चबूतरे पर सिर रख के गर्दन झुका देता और उसे हाथ से पकड़ के कुछ सो लेता। उसके घुटनों के नीचे स्थान-स्थान पर जख्म हो गए थे जिनसे पानी जैसा निकलाकरता था। वह स्थान फूले से थे। नश्तर के जरिए वह स्वयं उन भागों से खून या पानी निकलवाया करता था। उसके द्वारा प्रकृति पुकारती थी कि बैठो, सोओ। मगर उसका हठ था कि नहीं। सुनते हैं, बारह वर्ष तक बराबर खड़े रहनेवाले वैरागी साधु (ठड़ेसरी) कहे जाते और किसी महंत के मठ में अधिकारी होने के हकदार हो जाते हैं। इस तपस्या से मुक्ति तो निकट होई जाती है। कैसी मूर्खता और अंधभक्ति है। धर्म के नाम पर क्या नहीं हो सकता है।
जब हम राजकोट पहुँचे तो दैवात भोजन का समय होने से राजा के दीवान के घर जा पहुँचे। एक कायस्थ महाशय उनके दीवान थे। हमारे भोजनादि का प्रबंध उनने किया। उसके बाद कुछ धर्मचर्चा चली। उन्होंने हमसे पूछा कि गीता जानते हैं?हमारा उत्तर था कि वह तो हमारी खास चीज है। बस, अब क्या था, उन्होंने हमें बड़े प्रेम से रोका और कहा कि राज दरबार में गीता के एक श्लोक को ले कर परेशानी है। उर्दू, फारसी, अंग्रेजी आदि की कई टीकाएँ हैं। मगर राजा साहब को उनसे संतोष नहीं हो रहा है। काम रुका-सा है। मैं जा कर खबर देता हूँ। फिर आप लोग वहाँ बुलाए जाएगे। इतना कह के वे चले गए। पीछे हमारी बुलाहट दरबार में हुई। हम गए और बहुत आदर के साथ बैठाए गए। गीता के─ “कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:। स बुद्धिमान मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत” (4। 18) श्लोक पर ही वहाँ झमेला था। हम लोगों ने फौरन उसे सुलझा दिया और देर तक व्याख्या कर के सभी को संतुष्ट किया। फिर तो हमारी बड़ी प्रतिष्ठा हुई। दीवान जी को राजा साहब ने कहा कि महात्मा लोगों को आराम से यहाँ रखिए कुछ दिनों तक जरूर।
वहाँ से दीवान साहब के घर आए। वहाँ पर उनकी बूढ़ी माँ ने हठ किया कि मैं अभी तक गुरुमुख नहीं हुई हूँ। मुझे मंत्र दे दीजिए। घर के और लोग भी चाहते थे। धीरे-धीरे वह बाजार बढ़ता जैसे कि लक्षण थे। हम बुरी तरह घबराए और सोचा कि कहाँ आ फँसे। ख्याल आया कि अब तो राजधनी के बहुत लोगों के साथ और राजा के साथ भी फँस के यहीं रह जाना पड़ेगा। फलत: 'आए थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास' चरितार्थ होगा। दो-बार दिन तक हमने टालमटूल किया कि अब मंत्र देंगे, तब मंत्र देंगे। फिर एक दिन तड़के वहाँ से चुपचाप भाग निकले। इस प्रकार उस महाजाल से बचे।
उस दिन वहाँ से चल के कुछ दूर पर जालखेड़ी या कुछ ऐसे ही नाम के गाँव में जा पहुँचे। वहाँ एक वैश्य सज्जन वेदांत के सत्संगी थे। वह राजकोट से भी संबंध रखते थे। वहीं पर कुछ दिन ठहर गए। वहीं जाड़े की अधिकता के कारण चाय पीने की परिपाटी मालूम हुई। हमें भी कुछ कह-सुन के एक-दो बार चाय पिलाई गई। जीवन में यह चाय पीने का दूसरा अवसर था। आखिर जब हमारी पेशाब में सुर्खी नजर आने लगी तो सभी घबराए तब कहीं हमें चाय से फुर्सत मिली। फिर तो सुर्खी जाती रही, और हमने सदा के लिए चाय महारानी से असहयोग कर लिया।
हमने उधर यह भी देखा कि लालमिर्च लोग बहुत ही खाते हैं। एक आदमी के खाने में उसकी मात्रा एक छटाँक तो होती ही है। हम भी अपेक्षाकृत कुछ ज्यादा ही मिर्चा खा जाते थे। फलत: पाखाने के समय गुदामार्ग में एक प्रकार की जलन सी होती थी। हर चीज में वह पड़ती थी ही और कोशिश करने पर भी उससे बचना असंभव हो जाता था।