गुरुदत्त की जयंती पर पुनरावलोकन / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 11 जुलाई 2013
गुरुदत्त की जयंती के अवसर पर अनेक फिल्मकारों ने उन्हें याद किया। आज के युवा फिल्मकारों में विगत समय के गुरुदत्त ही सबसे अधिक लोकप्रिय हैं, परंतु उनकी किसी फिल्म का नया संस्करण बनाने का साहस किसी में नहीं है। यहां तक कि बिमल राय की 'देवदास' का कूड़ा आधुनिकीकरण करने वाले नए सिनेमा के स्वयंभू मसीहा फिल्म 'देव-डी' के निर्देशक अनुराग कश्यप में भी यह साहस नहीं है। गुरुदत्त की 'प्यासा' को हम नायक के बदले नायिका लेकर इसलिए नहीं बना सकते कि तवायफ वहीदा द्वारा अपना सब कुछ बेचकर कवि का संकलन प्रकाशित करने वाले दृश्य के बदले क्या रखेंगे? पुरुष सेक्स बेचने वाले का चरित्र ही अमान्य होगा। यह भी आश्चर्य की बात है कि हास्य-व्यंग्य फिल्मों के दौर में किसी ने उनकी 'मिस्टर एंड मिसेज 55' का नया संस्करण बनाने का नहीं सोचा। इस फिल्म का नायक कार्टूनिस्ट है और बेकारी के दिनों में काम की तलाश में एक अमीर महिला उसे दो सौ रुपए मासिक वेतन पर अपनी इकलौती पुत्री से विवाह का प्रस्ताव रखती है, जो सिर्फ रस्मी विवाह होगा और पिता की वसीयत के अनुसार विवाह होते ही उन्हें जायदाद पर एकाधिकार होगा और नायक को तलाक देना होगा। इस तरह की कानूनी लिखा-पढ़ी भी हो जाती है। यह एक तरह से सुविधा की शादी है, परंतु नकली पति-पत्नी को असली प्रेम हो जाता है और नाटकीय स्थितियां बन जाती हैं। गुरुदत्त, ललिता पवार, मधुबाला और जॉनी वॉकर ने विश्वसनीय अभिनय किया था तथा ओपी नैयर ने मधुर गीत रचे थे।
यह कितने आश्चर्य की बात है कि अपनी पहली फिल्म 'बाजी' से लेकर 'सीआईडी' तक सारी फिल्में या तो अपराध कथाएं और अमेरिका के नोए(अंधकार) फिल्मों से प्रेरित हैं या यह हास्य-व्यंग्य रचना है और आप इस फिल्मकार से कोई महान फिल्म की उम्मीद ही नहीं रखते। यक ब यक वह 'प्यासा' बनाकर सबको अचंभित कर देता है। सच तो यह है कि 'बाजी' के पहले गुरुदत्त ने 'कशमकश' नामक कहानी लिखी थी, जो अपने रिश्तेदार श्याम बेनेगल को सुनाई भी थी और यही कहानी 'प्यासा' के नाम से बनाई गई। यह संभव है कि वह साधारण फिल्मों को बनाते हुए स्वयं को 'प्यासा' के लिए तैयार कर रहा था। वह जानता था कि व्यावसायिक क्षेत्र में स्वयं को स्थापित करने के पहले 'प्यासा' का जोखिम लेना गैरव्यावहारिक होगा। जब डॉक्टर की सलाह पर गंभीर फिल्म नहीं करने के कारण दिलीप कुमार ने 'प्यासा' करने से इनकार किया, तब गुरुदत्त ने स्वयं नायक की भूमिका की और बढिय़ा अभिनय किया, परंतु नैराश्य से घिरे शायर की भूमिका दिलीप कुमार करते तो बात कुछ और ही होती।
गुरुदत्त ने उदयशंकर के अल्मोड़ा स्थित नाट्यशाला में बाकायदा दो वर्ष तक नृत्य सीखा था और अपने मन से नृत्य रचने की परीक्षा में उन्होंने सर्प-नृत्य या कहें मृत्यु नृत्य प्रस्तुत किया था, जिसमें एक व्यक्ति के शरीर पर सांप लिपटा है और उसके जहरीले फन को हाथ से पकड़े नृत्य कर रहा है। सांप डसना चाहता है, नृत्य करने वाला नृत्य जारी रखते हुए उससे बचना चाहता है। यह गहरे अर्थ वाली प्रस्तुति थी और इसे ही हम गुरुदत्त के जीवन की थीम मान लें। मृत्यु के साथ नृत्य एक अद्भुत कल्पना थी और वह सांप उन्हें अंततोगत्वा दो दशक बाद डसता है, जब वे आत्महत्या कर लेते हैं। अपनी आत्महत्या का संकेत वे 'प्यासा' के एक गीत में देते हैं 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है'। सफलता और सांसारिक सुखों के प्रति ऐसी वितृष्णा तो आप अध्यात्म के राही में ही देखते हैं।
गुरुदत्त के पास पनवेल में एक फॉर्महाउस था और खंडाला में एक खेत, जिसमें स्वयं काम करने जाना उन्हें पसंद था। एक तरफ वे खाने और पीने के बहुत शौकीन थे तो दूसरी ओर उन्हें पैसे और भौतिकवाद से कोई लगाव नहीं था। गुरुदत्त को समझने की प्रक्रिया में सरलीकरण से बचना चाहिए, क्योंकि अवचेतन की स्याह कंदरा में किसी घटना का कोई जुगनू आपको मार्ग नहीं दिखा सकता। यह एक लोकप्रिय असत्य है कि वहीदा रहमान ने उनके प्यार की कद्र नहीं की। उनका प्रेम विवाह गायिका गीता राय से हुआ था, परंतु यह दो मूडी व्यक्तियों का एक तूफानी रिश्ता था। एक-दूसरे को बेइंतिहा मोहब्बत के बावजूद वे एक-दूसरे से लड सकते हैं और विवाह गुरिल्ला युद्ध में बदल सकता है, जहां मौका देखकर आक्रमण करके अपनी कमजोरियों और अहंकार के पर्वतों के पीछे छुप जाना एक कला का रूप ले लेता है। क्या इसका यह अर्थ है कि मात्र प्यार दो लोगों को नहीं बांध पाता और उनकी निजता तथा स्वतंत्र व्यक्तित्व बाधा बनता है। प्यार में आवेग होता है, परंतु आपसी समझदारी रिश्तों को थामती है। पूरा जीवन एक वेगवती पहाड़ी नदी की तरह नहीं होता और इस नदी को समतल पर आते ही मंथर गति से बहना चाहिए। कूल, किनारे तोडऩा ही नदी का स्वभाव नहीं है। हर रिश्ता एक अलग किस्म की भूलभुलैया होता है और इसे सुलझाने का कोई फॉर्मूला नहीं है। यह कोई बुखार या व्याधि नहीं है कि एंटी बायोटिक लेने से ठीक हो जाए। यह भी मिथ्या धारणा है कि दो कलाकारों के बीच उनके मिजाज और अहंकार के कारण विवाह टिकता नहीं है। आम आदमियों के विवाह में भी झगड़े होते हैं।
बहरहाल, गुरुदत्त सन् १९५६-५७ के सांस्कृतिक पतन से दुखी होकर 'प्यासा' बनाते हैं और अगर आज के सांस्कृतिक पतन पर फिल्म बनाते तो क्या होता? वह दौर तो पतन का शैशवकाल था, शिखर तो आज है और उन्हें प्रतिदिन आत्महत्या करनी पड़ती।