गुरु गोबिन्दसिंह की वर्तमान प्रासंगिकता / लालचंद गुप्त 'मंगल'

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गुरु गोबिन्दसिंह (संवत् 1723, पौष-शुक्ला सप्तमी से संवत् 1765, कार्तिक-शुक्ला पंचमी तक) का मात्र 42 वर्षीय जीवन संघर्ष, त्याग और सेवा कि त्रिवेणी था। देश के महानतम वीरों और राष्ट्रभक्तों में आपका नाम प्रथम पंक्ति में आता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, "गुरु गोबिन्दसिंह का नाम लेते ही, आज का भारतीय एक अपूर्व गौरव और उल्लास का अनुभव करने लगता है। 'वीर' शब्द के अन्दर जितनी भी गरिमा, परम्परा-क्रम से, हमारे चित्त में संचित है, वह सब साकार हो उठती है। पवित्र चरित्र, अडिग उत्साह, अकुण्ठ साहस, अकृत्रिम औदार्य, अकुतोभय मनोबल, दीन-दुखियों का निश्चित सहाय, अत्याचार का असन्दिग्ध प्रतिरोध, विद्या और तपस्या का नियत संरक्षण और मनोबल का अक्षय भण्डार ही 'वीर' है। गुरु गोबिन्दसिंह इन सब गुणों के मूर्तिमान रूप थे।" भगवान राम (लव) के इस वंशज में तलवार और लेखनी, शस्त्र और शास्त्र, दुर्गा और सरस्वती, संत और सिपाही तथा धर्म और वीरता का मणि-कांचन संयोग हुआ है। डॉ. मनमोहन सहगल के शब्दों में ... "वे भारतवर्ष के इतिहास में ऐसा अद्वितीय व्यक्तित्व थे, जिसमें भक्ति और शक्ति, उदात्तता और तेजस्विता, कविता और कर्त्तव्य तथा मीरी और पीरी, सब एक स्थान पर समन्वित हो गये थे।"

गुरु गोबिन्दसिंह सर्वस्व बलिदानी और निष्काम कर्मयोगी के रूप में विश्वविख्यात हैं। डॉ. रामप्रसाद मिश्र के अनुसार, "संसार के इतिहास में जैसी बलिदान-विभूति गुरु गोबिन्दसिंह को प्राप्त हुई है, वैसी किसी अन्य व्यक्ति को नहीं।"

गुरु जी का मानववादी-मानवतावादी जीवन-दर्शन अत्यंत स्पष्ट था-"मानस की जात सबै एकै पहचानबो ... एक ही सरूप सबै, एकै जोत जानबो।" अल्लाह-ईश्वर और कुरान-पुराण में उनके लिए कोई भेद नहीं था। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द को यह कहना पड़ा था कि "हिन्दू और मुसलमान, दोनों उनके पैरोकार बने। ऐसे उदाहरण भारत के इतिहास में बहुत-कम मिलते हैं।" अपनी इसी अवधारणा को क्रियान्वित करते हुए उन्होंने जाति-वर्ण एवं ऊँच-नीच के भेद को समाप्त करते हुए, पाँच प्यारों (दयाराम-लाहौर का खत्री; धर्मदास-दिल्ली का जाट; हुकुमचन्द-द्वारिका का धोबी; हिम्मतराय-जगन्नाथ का कहार और साहबचंद-विदर का नाई) पर आधारित 'खालसा' की स्थापना की, जिसका उद्देश्य था—

हम इह काज जगत मो आए, धरम हेतु गुरुदेव पठाए।

जहाँ तहाँ तुम धरम विथारौ, दुष्ट दोखयनि पकरि पछारौ॥

ध्यातव्य है कि गुरु गोबिन्दसिंह ने कभी-भी धन-धरती पाने, भौतिक सम्पदाओं को हस्तगत करने अथवा किसी साम्राज्य की स्थापना करने के लिए युद्ध का आह्वान नहीं किया। वे तो अपनी शिष्य-मण्डली को अन्याय-अत्याचार का सक्रिय प्रतिरोध करने के योग्य बनाना चाहते थे; धर्मयुद्ध (सामाजिक न्याय) के लिए प्रस्तुत करना चाहते थे। भागवत के दशम स्कन्ध की भाषा उन्होंने किसी-और वासना से नहीं की। उनका उद्देश्य धर्मयुद्ध का चाव पैदा करना ही था-

दसम कथा भागौत की, भाषा करी बनाइ।

अवर वासना नाहिं प्रभ, धरमजुद्ध की चाइ॥ कृष्णावतार, छंद 2491

स्पष्ट है कि सामान्य जनता के प्रति उनके हृदय में अपार स्नेह, दया, करुणा और सहानुभूति की भावना विद्यमान थी। वे सही अर्थों में 'ग़रीबुलनिवाज़' थे। तथाकथित दासों को सम्मानित और शौर्य-सम्पन्न बनाना उनका लक्ष्य था। पहाड़ी राजपूत-राजा और उनके ब्राह्मण-सलाहकार गुरु गोबिन्दसिंह से इसीलिए तो रुष्ट थे कि ये तथाकथित नीची जातियों में आत्म-गौरव और शौर्य का भाव भर रहे थे और उनके उत्थान एवं उत्कर्ष के प्रति सचेष्ट थे। लेकिन गुरु जी ने इन तथा ऐसी अन्य विपरीत-विरोधी क्रिया-कलापों की चिन्ता किये बिना पतितों, दलितों, अनाथों, अपमानितों, शोषितों और पीड़ितों को सहारा दिया, ऊपर उठाया, उनमें प्राण-शक्ति संचारित करके उन्हें तनकर खड़ा होना सिखाया। कहना न होगा कि हाशिए पर पड़े धूल-धूसरित लोगों को देवता बना दिया। इस प्रकार, दशमग्रन्थ आम आदमी को परमुखापेक्षिता, भीरुता, कायरता, पस्तहिम्मती और निराशा से उबारकर गौरवमय आसन पर प्रतिष्ठित करने में पूर्ण सफल रहा है।

गुरु गोविन्दसिंह की लोकतांत्रिक तत्त्वों और मूल्यों में गहन आस्था थी। अनेक उदाहरणों में से यह एक तथ्य सर्वविदित ही है कि अपने शिष्यों को एक बार अमृतोपदेश (अमृतपान) कराने के बाद गुरु गोबिन्दसिंह ने उन्हीं शिष्यों से स्वयं अपने को दीक्षा देने की प्रार्थना कि थी। इस विलक्षण आचरण द्वारा उन्होंने अपने शिष्यों के साथ अपनी एकात्मकता को तो बड़ी योग्यता से प्रमाणित किया ही, साथ ही, यह भी बता दिया कि शिष्य यदि अन्तरतम से गुरु के प्रति सच्चा है और गुरु द्वारा प्रचारित सिद्धान्तो के प्रति सत्य-भाव से समर्पित है, तो वह शिष्य गुरु का स्थान ले सकता है। गीता में ऐसे लोगों को 'ज्ञानाग्निदग्धकर्मी' कहा गया है।

गुरु गोबिन्दसिंह ने कहा है कि जहाँ भी मेरे पाँच सिक्ख एकत्र हो जायेंगे, मैं स्वयं उनके बीच पहुँच जाऊँगा। यह आध्यात्मिक एवं गूढ़ कथन काफी महत्त्वपूर्ण है। भारतीय विश्वास के अनुसार, पंच में परमेश्वर का निवास माना जाता है। गुरु गोबिन्दसिंह का यह कथन इसी ओर इंगित करता है कि पंच ही परमेश्वर है और जनता ही जनार्दन है। स्पष्टतः लोकतंत्र की धारणा का मूल भी यही है। आज इस धारणा को अधिक-बलवती करने की महती आवश्यकता है।

गुरु गोबिन्दसिंह स्वयं तो सुकवि थे ही, अनेकानेक अच्छे कवियों के आश्रयदाता भी थे। जहाँ तक साहित्य के क्षेत्र में गुरु गोविन्दसिंह के योगदान का प्रश्न है, वह अत्यन्त स्पष्ट है—

(क) युद्ध-दर्शन (युद्ध-संहिता) का स्वरूप निर्धारित करना,

(ख) अनेक युद्धों के माध्यम से उसे क्रियान्वित करना, और

(ग) कलम द्वारा कागज़ पर उतारकर साहित्य की श्रीवृद्धि करना।

इस दृष्टि से दशमग्रन्थ हिन्दी-साहित्य के इतिहास में एक विरल महत्त्व का ग्रन्थ है। यद्यपि दशमग्रन्थ की भक्ति-भावना अत्यंत पुष्ट है, तथापि उसका मुख्य स्वर वीरता का ही है और इसीलिए उसका अधिकांश युद्ध-वर्णनों से परिपूर्ण है। जहाँ तक मेरी जानकारी है, शस्त्र-पूजा से ग्रंथारंभ (मंगलाचरण) करने वाले गुरु गोबिन्दसिंह अकेले कवि हैं—

नमसकार स्री खड्ग कौ, करौं सु हितु चितु लाइ।

पूरन करौ गिरंथ इह, तुम मुहि करहु सहाइ॥

और भी

नमो खडगं कृपाणं कटारं।

सदा एक रूपं सदा निरबिकारं॥

अप्रतिम वीर, अनुपमेय योद्धा, सच्चे कर्मयोगी, अनन्य पुरुष-सिंह, सहृदय लोकनायक, भगवदर्पित जीवन और समग्र मानवता के गायक गुरु गोबिन्दसिंह, वास्तव में, एक पूर्ण पुरुष थे। पूर्ण पुरुष अर्थात्, ज्ञान-कर्म-प्रेम-भक्ति का समन्वित-संतुलित व्यक्तित्व। उनकी संगठन-शक्ति अद्भुत थी। इसीलिए वे इतिहास की धारा को अपने इंगित पर मोड़ने में सफल रहे।

वीरता के साथ धीरता कि चरम सीमा गुरु गोबिन्दसिंह के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग है। पिता, चारों पुत्रों और माता गूजरी को वार देने के बाद भी पत्नी सुंदरी के पूछने पर, अपने सैनिकों को लक्ष्य करके, उन्होंने सहज भाव से कहा था—

इन पुत्रन के सीस पै, वार दिये सुत चार।

चार मुए तो क्या भया, जीवत कई हजार॥

और जीवन के आखिरी क्षण तक रण में जूझ मरने की तमन्ना-

देहि शिवा वर मोहि इहै, शुभ करमन ते कबहूँ न टरौं।

न डरौं अरि सों जब जाय लरौं, निहचै करि आपनी जीत करौं।

अरु सिख हौं आपुने ही मन कौ, इह लालच हउ गुण तउ उचरौं।

जब आव की औध निदान बनै, अति रण महिं तबि जूझ मरौं॥

चण्डी चरित्रोक्तिविलास, छंद 231

डॉ. जयभगवान गोयल का निष्कर्ष है-"कभी-कभी ही ऐसा लोकनायक इस भूतल पर अवतरित होता है, जो अपनी अमृतवाणी एवं मंगलकारी कृत्यों से इतिहास को नया मोड़ देता है और संतप्त मानवता को अपने जीवन्त संदेश से सींचकर ज़िन्दगी के दरिया में एक नयी हिलोर उत्पन्न कर देता है। दसवें एवं अन्तिम गुरु गोबिन्दसिंह जी ऐसे ही युगपुरुष थे।"

'सर्वलोह' की स्वीकार्यता, 'खालसा' की स्थापना, प्रजातांत्रिक मूल्यों में आस्था और वीररस के सर्वांग निरूपण के कारण तो गुरु गोबिन्दसिंह चिरस्मरणीय रहेंगे ही; इसके साथ ही, जो लोग आज दलित-विमर्श की डुगडुगी बजा रहे हैं, उन्हें खालसा-सृजन की मूल चेतना और अवधारणा को देखना चाहिए तथा जो लोग तथाकथित नारी-विमर्श की चिन्ता में गले जा रहे हैं, उन्हें, चूड़ियाँ उतारकर तलवार उठाने वाली माई भागो और खालसे की माता साहिबकौर की चरण-वंदना करनी चाहिए।

ध्यातव्य है कि गुरु जी का जन्म बिहार में हुआ। पंजाब उनका कर्मक्षेत्र रहा और महाराष्ट्र में उनका स्वर्गारोहण हुआ। उनके 'पाँच प्यारे' देश के अलग-अलग राज्यों से थे। इस प्रकार, सिद्धान्त एवं व्यवहार, दोनों दृष्टियों से, सही अर्थों में, वे सच्चे भारतीय थे; महान् राष्ट्रवादी थे। उन्होंने मनुष्य की समानता पर बल दिया, त्यागमय जीवन का आदर्श प्रस्तुत किया, प्रेममय कर्म की प्रेरणा प्रदान की और कथनी-करनी को एक करके दिखाया।

संक्षेप में, आज, जब आतंकवादी-उग्रवादी, अन्यायवादी-असत्यवादी, मिथ्याचारी-दुराचारी, अहंकारी-अत्याचारी, जातिवादी-सम्प्रदायवादी तथा मदान्ध-धर्मान्ध शक्तियाँ सिर उठा रही हैं, तब गुरु गोबिन्दसिंह के जीवन, व्यक्तित्व, कृतित्व और दर्शन की सार्वकालिकता-सार्वभौमिकता एवं अर्थवत्ता-प्रासंगिकता का भान होना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। वस्तुतः, भारतीय संस्कृति और साहित्य में उनका योगदान स्वर्ण-अक्षरों में लिखा जायेगा।

"सौभाग्य से हमें ऐसा नेता मिला था। दुर्भाग्य से हमने उसके आदर्शों को भुला दिया। आज हमें अपने सौभाग्य पर गर्व करने और दुर्भाग्य को मिटा देने का अवसर मिला है।" (हजारीप्रसाद द्विवेदी) आइये, इस सुअवसर का लाभ उठाएँ।

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