गुरु दत्त की 'कागज के फूल' और चंदन राय सान्याल / जयप्रकाश चौकसे

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गुरु दत्त की 'कागज के फूल' और चंदन राय सान्याल
प्रकाशन तिथि :15 दिसम्बर 2015


चंदन राय सान्याल ने गुरु दत्त की 'कागज के फूल' पर 27 मिनट का वृत्तचित्र बनाया है, जिसे अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में दिखाया जाएगा। चंदन राय सान्याल 1959 में प्रदर्शित 'कागज के फूल' से प्रेरित फिल्म भी बनाना चाहते हैं। नीरज कबी और प्रियंका बोस नई फिल्म में गुरुदत्त और वहीदा रहमान अभिनीत भूमिकाएं अभिनीत करेंगे। चंदन की यह प्रिय फिल्म रही और इसका नशा उन पर कुछ ऐसा चढ़ा कि उन्होंने वृत्तचित्र बनाकर ही संतोष नहीं किया बल्कि अब कथा फिल्म भी बना रहे हैं। इस प्रयास को 'कागज के फूल' का रीमेक नहीं मानना चाहिए, क्योंकि मूल फिल्म की प्रेम कथा को वे अपने ढंग से कहना चाहते हैं। यह तो तय है कि वे अनुराग कश्यप के देवदास से तथाकथित तौर पर प्रेरित 'देव डी' की तरह कुछ फूहड़ता नहीं रचेंगे और न ही कश्यप की तरह सनसनीखेज बनाएंगे। कश्यप की पारो तो परिवार में विवाह उत्सव की भीड़ के कारण अपनी साइकिल पर बिस्तर लेकर अपने देवदास के साथ गन्ने के खेत में हमबिस्तर होने चली जाती है।

हर फिल्मकार का अपना दृष्टिकोण और कला बोध होता है और एक ही कथा को अलग-अलग फिल्मकार विविध रूपों में गढ़ सकते हैं। बरुआ की 'देवदास' से बिमल राय की देवदास अलग थी तथा संजय लीला भंसाली की 'देवदास' तो रंगों और ध्वनियों की ऑरजी ही थी। उनकी पारो और चंद्रमुखी एक साथ नाचती भी हैं और उसी तर्ज पर उन्होंने अपनी मस्तानी और काशीबाई को भी एकसाथ नचाया है। पेशवा वंशज इससे आहत हैं।

बहरहाल, गुरु दत्त की 'कागज के फूल' में उन्हें कैफी आजमी और सचिन देव बर्मन का सहयोग मिला और अमर गीतों की रचना हुई और आज यह संभव नहीं है। आज वीके मूर्ति की तरह कल्पनाशील फोटोग्राफर मिलना भी कठिन है। सबसे बड़ी बात यह कि 'कागज के फूल' श्वेत-श्याम फिल्म थी। यह श्वेत-श्याम रंग अांखों का मित्र है और इसे देखने पर अांखों पर वह दबाव या तनाव नहीं पड़ता, जो चटखदार रंगों से पड़ता है। श्वेत-श्याम फिल्मों में कैमरमैन अपने जादू से जिस गहराई को प्रस्तुत करता है, वह कलर में कुछ कम गहरी और अनाड़ियों के हाथ कैमरा हो तो खटकती भी है। चंदन तो कलर फिल्म ही बनाएंगे। आज के भड़कीले युग में कौन पूंजी निवेशक श्वेत-श्याम फिल्म बनाने देगा। गुरु दत्त का मिजाज भी श्वेत-श्याम ही था। 'प्यासा' की कथा 'कश्मकश' के नाम से वे अपनी पहली निर्देशित फिल्म के पहले ही लिख चुके थे और अपने इस सपने को दिल में ही संजोकर बैठे थे। अपनी व्यावसायिक हैसियत स्थापित करने के बाद उन्होंने 'प्यासा' बनाई और यह संभव है कि इस फिल्म में अपनी सृजन प्रक्रिया के अनुभव के आधार पर ही 'कागज के फूल' उनके मन में जन्मी हो। 'कश्मकश' केवल 'प्यासा' का नाम ही नहीं था वरन् उनके दुविधाग्रस्त अवचेतन का परिचय भी देता है। अपने मन के कुरुक्षेत्र के लंबे युद्ध ने उन्हें थका दिया था और फिर जीवन का खोखलापन उन्हें गहराई से कचोटता था। इसी की अभिव्यक्ति 'प्यासा' के गीत में हुई है, 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?' गुरु दत्त और गायिका गीता दत्त का प्रेम विवाह हुआ था परंतु दोनों के स्वभाव के अक्खड़पन के कारण शीघ्र ही प्रेम छापामार युद्ध में बदल गया और दोनों एक-दूसरे पर आक्रमण करके अपने अहंकार की पहाड़ियों में जा छिपते थे। यह सरासर गलत है कि इस विवाह की वेदना में वहीदा रहमान का हाथ था। दरअसल, गीता दत्त और गुरु दत्त एक-दूसरे को बेहतर जानते थे और वहीदा के आगमन के पूर्व ही उनके बीच दीवार आ गई थी।

वहीदा का हैदराबाद में क्लासिकल नृत्य देखकर गुरु दत्त ने उन्हें 'सीआईडी' और 'प्यासा' के लिए अनुबंधित किया और वे मन ही मन उसे अपनी प्रेरणा मानने लगे थे। उनकी 'कागज के फूल' ऊपरी सतह पर एक डायरेक्टर और तारिका की प्रेम-कथा है परंतु भीतरी सतह पर यह गुरु दत्त की सृजन प्रक्रिया की कथा है। उनके अंतस में कहीं न कहीं उनके प्रथम प्रेम गीता दत्त के लिए गहरी कसक ती, इसीलिए 'कागज के फूल के पार्श्व में गीता दत्त का आरपार के लिए गाया गीत गूंजता है- 'भीगी रात में पेड़ के नीचे, आंख-मिचौली खेल रचाया, प्रीतम याद करो जबतुमने प्रेम भरा एक गीत सुनाया।' यह धुन ओपी नैयर ने 1947 में सीएच आत्मा से गैर-फिल्मी रचना की तरह तैयार कराया था और आरपार में इसे गीता दत्त ने गाया।

सच तो यह है कि सृजन प्रक्रिया को एक प्याज मान लें तो और छिलके उतारे, जन्म का छिलका, स्वयं के अध्ययन का छिलका इत्यादि तो सारे छिलके निकालने पर प्याज ही नहीं रह जाता परंतु छिलके उतारने वाली उंगलियों को सूंघे तो एक गंध रह जाती है और वही प्याज का सार है, वही सृजन प्रक्रिया का केंद्र है और वही सूफी साहित्य तथा भक्ति साहित्य भी है।