गुरु बिन ज्ञान कैसे कहां पाएं? / जयप्रकाश चौकसे

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सोशल मीडिया के कुरुक्षेत्र में धुआं, बना भड़ास का मंच
प्रकाशन तिथि : 30 जुलाई 2020


बिहार के एक शिक्षक के जीवन और पढ़ाने के अभिनव तरीकों पर बनी बायोपिक ‘सुपर 30’ में ऋतिक रोशन ने अभिनय किया था। इसी तरह बुरहानपुर में माइक्रोविजन संस्था में शिक्षा नए ढंग से दी जाती है। हाल ही में घोषित परीक्षा परिणामों से ज्ञात होता है कि महंगे प्राइवेट संस्थानों से बेहतर परिणाम सरकारी स्कूलों के छात्रों ने दिए हैं। एक अखबार की हेड लाइन ने चीत्कार किया कि छात्र पास हुए हैं, प्रणाली असफल हुई है। सभी क्षेत्रों में व्यवस्थाओं की असफलता इस काल खंड को अनोखा अंधा युग नाम देती है। कुछ इसे खोखली गहराइयों की सूखी हुई नदी पुकारते हैं। जिन लोगों की पांचों उंगलियां घी में हैं व सिर कढ़ाई में है वे इसे धर्मयुग मानते हैं।

शिक्षा प्रेरित फिल्में बनती रही हैं। महान नेता तिलक के अखबार केसरी के सह संपादक भाले राव पेंढारकर ने ‘वंदे मातरम आश्रय’ नामक शिक्षा प्रेरित फिल्म बनाई थी। महात्मा गांधी ने शिक्षा का महत्व समझ, बुनियादी नव जीवन पाठशाला श्रृंखला स्थापित की, यहां छात्रों से फीस नहीं लेते थे, परंतु जाने क्यों प्रतिभाशाली छात्र इन संस्थाओं में दाखिला नहीं लेते। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित शांति निकेतन एक सफल सार्थक प्रयास है। सत्यजीत रे, चेतन आनंद व बलराज साहनी कुछ समय तक इससे जुड़े रहे।

शांताराम की जीतेंद्र अभिनीत फिल्म ‘बूंद जो बन गई मोती’ में एक शिक्षक, छात्रों को प्रकृति के बीच शिक्षा देता है। फिल्म का गीत है, ‘हरी हरी वसुंधरा पे नीला नीला ये गगन के जिस पे बादलों की पालकी उड़ा रहा पवन, ये कौन चित्रकार है।’ ‘जागृति’ भी शिक्षा श्रृंखला की फिल्म है। अश्विनी चौधरी की फिल्म ‘सेटर्स’ परीक्षा प्रणाली की पोल खोलती है। इमरान हाशमी अभिनीत ‘चीटर्स’ नकल टीपने पर केंद्रित है। राजकुमार हीरानी की फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ इस शृंखला की श्रेष्ठ फिल्म है। घोषित प्रणाली में छात्र की रुचि अनुसार शिक्षण का उल्लेख है। रुचि जानने की प्रक्रिया पर प्रकाश नहीं डाला गया है। लंबी उम्र के बाद भी मनुष्य अपनी रुचि नहीं जान पाता। फिल्म ‘काला बाजार’ के लिए शैलेंद्र रचित पंक्तियां इसी पर हैं- ‘ना मैं धन चाहूं, न रतन चाहूं..मोह मन मोहे लोभ ललचाए, कैसे-कैसे ये नाग लहराए।’

रूस में साम्यवाद के दिनों में रुचियां जानने की प्रणाली विकसित हुई। माता-पिता, संतान के भविष्य के सपने बदलते रहते हैं। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में संतान के वकील बनने की कामना होती थी, क्योंकि इसमें वकीलों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। अगले दौर में लड़की के डॉक्टर व पुत्र के इंजीनियर बनने की कामना हुई, परंतु कभी संतान के शिक्षक होने का सपना नहीं देखा गया। डॉ. राधाकृष्णनन व ए.पी.जे कलाम की सफलता के बाद भी यह स्वप्न नहीं देखा गया। समर्पित योग्य शिक्षक की पीढ़ियां तैयार करना कठिन है। कुरीतियों-अंधविश्वास में रमे समाज में योग्य शिक्षक भला कैसे मिलेंगे?

उम्रदराज होते हुए भी इन पंक्तियों का लेखक महसूस करता है कि उसके शिक्षक अब्दुल हकीम साहब, डॉ. के.के केमकर व प्रोफेसर ईसा दास पास ही हैं। जो छात्र अपने शिक्षक को अपने अवचेतन में हमेशा बनाए रखता है वह ताउम्र बेहतर होने का प्रयास करता है। सूर्य नमस्कार में भी यह है कि ‘हे सूर्य आज मैं कुछ बेहतर बनूं। प्रार्थना के केंद्र इस सूर्य पर कभी ग्रहण नहीं लगता।’

कौरव-पांडवों की गुरु द्रोणाचार्य से शिक्षा के दौरान, आचार्य छात्रों के साथ जंगल पहुंचे। उनका कोई शिक्षा संस्थान नहीं था। एक सुरम्य स्थान पर छात्रों ने परिश्रम सेे सुविधाएं जुटाकर भवन बनाया, तो गुरु बोले कि आधा पाठ्यक्रम तो भवन निर्माण में ही सिखा दिया गया। युद्ध की सारी ब्यूह रचना पशु-पक्षियों व जंतुओं की चाल व आत्मरक्षा प्रणाली से जन्मीं है। अध्यापन के बाद गुरु ने छात्रों से भवन तोड़ने को कहा। कौरवों ने आज्ञा नहीं मानी, परंतु पांडवों ने यह किया। गुरु ने कहा कि सबसे बड़ी शिक्षा माया-मोह का त्याग है। पांडवों ने इसे स्वीकार किया और कौरवों की हार उसी समय तय हो गई।