गुरु मिले तो / भगवान सिंह
वरुण एक जमाने में सबसे बड़े देवता थे। इन्द्र से भी बड़े। जिस काम के लिए बाद में इन्द्र बदनाम हुए उसका भी कुछ सम्बन्ध वरुण से था। नतीजा यह कि अनेक ऋषियों को वरुण की सन्तान होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इन्द्र के कुछ कारनामों में सक्रिय सहयोगी चन्द्रमा थे। वरुण के साथ सहयोग करने वाले मित्र थे। अतः कुछ ऋषि दोनों की सन्तान माने जाते थे। ये कहानियाँ निश्चय ही यह प्रणाणित करने के लिए गढ़ी गयी थीं कि ये ऋषि अन्य ऋषियों से अधिक श्रेष्ठ हैं अतः इनके विचार और विधान दूसरों से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें वसिष्ठ, अगस्त्य का नाम तो आता ही है, भृगु का नाम भी आता है। वरुण के प्रति अनन्य निष्ठा के दावेदार भृगु माने जा सकते हैं, क्योंकि इनके वंश में इन्द्र को घास नहीं डाला जाता था। ये लोग कहते हैं कि वे इन्द्र को नहीं जानते, न ही उनकी उपासना करते हैं। दूसरे किसी की गरज हो तो करे। वसिष्ठ वगैरह में इस तरह की निष्ठा नहीं थी। जाहिर है कि यदि सीधे वरुण से किसी को उपदेश मिल सकता था तो भृगु को ही। यही भृगु एक बार अपनी जिज्ञासा के कारण पिताजी के पास पहुँचे और कहा, “भगवन्, ब्रह्म को जानने की धूम मची हुई है, अतः जमाने को देखते हुए अपनी आबरू बचाने के लिए उसके विषय में मैं भी कुछ जानना चाहता हूँ। आप मेरे पिता और गुरु दोनों हैं। आप से अधिक जानकार भी कोई शायद ही मिले, इसलिए आप से सादर अनुरोध है कि मुझे ब्रह्म का उपदेश दीजिए।”
वरुण बोले, “अन्न, प्राण, नेत्र, श्रोत्र, मन और वाणी ये सभी ब्रह्म की सिद्धि के द्वार हैं। इन सभी को एकाग्र करके ही तुम ब्रह्म को जान सकते हो। यह समझो कि ब्रह्म वह है जिससे समस्त भूत जगत उत्पन्न होता है, उत्पन्न होकर जिसके भरोसे ही जीवित रहता है और अन्तकाल आने पर जिसमें ही लीन हो जाता है। उसे ही जानो। यही तुम्हारी तपस्या है।”
वरुण ने पिता के कथन के अनुसार अन्न को ब्रह्म मानकर चिन्तन आरम्भ किया। उन्होंने पाया कि अन्न से ही वीर्य उत्पन्न होता है जिससे प्राणी उत्पन्न होते हैं अतः ब्रह्म का प्रथम लक्षण तो इसमें है ही। फिर इसी से लोग जीवित भी रहते हैं। भोजन न मिले तो लोग मर जाएँ। मरने के बाद भी मनुष्य दूसरे जीवों का अन्न बनकर ही भूमि में समा जाता है। वह इस बोध के बाद वरुण के पास आये और बताया कि भगवन्, मैंने ब्रह्म को जान लिया है। वह अन्न ही है।
वरुण ने कहा, “और तपस्या करो। ब्रह्म को और गहनता से जानो।”
अब उसने चिन्तन करते हुए पाया कि प्राण ही ब्रह्म है। ब्रह्म के जो लक्षण पिताजी ने बताये थे वे सारे प्राण में पाये जाते हैं। सभी प्राणी प्राण से ही उत्पन्न होते हैं। प्राण के कारण ही जीवित रहते हैं और अन्त में प्राण के निकलने के साथ ही समाप्त हो जाते हैं। इस बोध के बाद वह पुनः वरुण के पास पहुँच गया और बोला, “भगवन्, इस बार तो मैंने ब्रह्म को सचमुच जान लिया। प्राण ही ब्रह्म है।”
वरुण ने वही जवाब इस बार भी दिया, “और साधना करो। ब्रह्म को और गहराई से जानो।”
अब वह मन के विषय में उसी निष्कर्ष पर पहुँचा। उसी तरह भागता हुआ वरुण के पास पहुँचा। वही उत्तर इस बार भी मिला। लौटकर पुनः चिन्तन करता रहा। इस बार वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि विज्ञान ही ब्रह्म है पर इससे भी काम न चला। यदि वरुण को बताना ही था तो स्वयं बता देते कि ब्रह्म क्या है, पर वह लड़के को आत्मचिन्तन के माध्यम से ही सबकुछ सिखाना चाहते थे। इस बार भी वही उत्तर पाकर भृगु लौटे तो गहन चिन्ता में डूबे रहे और अन्ततः इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि आनन्द ही ब्रह्म है। आनन्द से ही सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं। आनन्दपूर्वक ही जीवित रहते हैं और अन्ततः आनन्द में ही लीन हो जाते हैं। इस बार वह अपने इस ज्ञान के विषय में इतने आश्वस्त थे कि उन्होंने वरुण से इसकी पुष्टि कराने की भी आवश्यकता न समझी। वह स्वयं इस निष्कर्ष पर पहुँच गये कि यही वारुणी विद्या है। जो इसे जान लेता है वह प्रतिष्ठित होता है। अन्नवान और भोग्य पदार्थों का सेवन करनेवाला होता है। उसकी हैसियत ऊँची हो जाती है। उसके बाल-बच्चे भी खूब होते हैं। पशुओं की भी कमी नहीं होती। उसका ब्रह्मतेज भी असाधारण होता है और चारों ओर उसकी कीर्ति फैल जाती है।
पर विचित्र बात यह हुई कि भृगु ने चुपके से यह निष्कर्ष निकाला कि क्या आनन्द भूखे को प्राप्त हो सकता है? क्या उनका यह सोचना गलत था कि अन्न स्वयं ब्रह्म है। प्राण, मन, ज्ञान आदि भी क्या अन्न के अभाव में सम्भव हैं? उन्हें हर बार इन प्रश्नों का उत्तर नहीं में ही मिला।
उन्होंने कहा, नहीं। अन्न को तुच्छ समझना गलत है। अन्न की निन्दा नहीं की जानी चाहिए। वही व्रत है। वही प्राण है। अन्नं न निन्द्यात्। तत् व्रतम्। अन्नं वै प्राणाः। अन्न के अभाव में शरीर का पालन नहीं हो सकता। शरीर में ही प्राण प्रतिष्ठित होता है। इस तरह अन्न अन्न में स्थित है। और जो इस तथ्य को जान लेता है उसे वे सभी लाभ प्राप्त होते हैं जो ब्रह्म को आनन्द रूप में जानने पर प्राप्त होते हैं।
मनुष्य को अन्न की अवहेलना नहीं करनी चाहिए। वही व्रत है। जल भी अन्न है। ज्योति आनन्द है। जल में ज्योति प्रतिष्ठित है। ज्योति में जल प्रतिष्ठित है। इस तर्क से भी अन्न अन्न में ही प्रतिष्ठित है। अतः मनुष्य को भौतिक विकास की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। अधिक से अधिक अन्न उपजाना चाहिए-अन्नं बहु कुर्वीत। यही व्रत है - तत् व्रतम्। पृथ्वी स्वयं अन्न है-पृथिवी वै अन्नम्। पृथ्वी में आकाश और आकाश में पृथ्वी प्रतिष्ठित है। यहाँ भी अन्न अन्न में ही प्रतिष्ठित है - तत् एतत् अन्नं अन्ने प्रतिष्ठितम्। सच बात यह है कि जो इस रहस्य को जान लेता है और भौतिक पक्ष की उपेक्षा नहीं करता वही प्रतिष्ठित होता है। वह भौतिक समृद्धि, महानता, पारिवारिक सुख तो प्राप्त करता ही है, वही तेजस्वी होता है और उसी की कीर्ति चारों ओर फैलती है - स य एतत् अन्नं अन्ने प्रतिष्ठितं वेद प्रतिष्ठति। अन्नवान् नादो भवति। महान् भवति प्रजया पशुभिः ब्रह्मवर्चसेन। महान् कीर्त्या।