गुरु / मृदुल कीर्ति

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गुरु शब्द नहीं एक सम्पूर्ण दर्शन है। यह गूढ़ गर्भा शब्द, ज्ञान की अंतरिम गहराइयों, ब्रह्मत्व की अंतिम ऊंचाइयों और आत्मतत्व की आंतरिक सच्चाइयों को बोध कराने वाले उद्बोधक का उद्बोधन ही 'गुरु' है, उसका सम्बोधन ही 'गुरु' है। इस एक शब्द में ब्रह्म का बोध ज्ञान और आत्मिक जागरण दोनों समाये हुए हैं। जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश के एकत्व का समीकरण है जिसका प्रमाण:

गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः
गुरुर्साक्षात परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुर्वै नमः

गुरु को ब्रह्मा,विष्णु, महेश और साक्षात परब्रह्म के तुल्य मान कर महिमा मंडित किया गया है. गुरु की महिमा मंडन में इससे ऊँची प्रार्थना,अभ्यर्थना सम्भव ही नहीं है।

ब्रह्मा सृजन के देव हैं इन अर्थों में गुरु ज्ञान परक पक्ष का जन्म दाता है।

द्विज --शब्द का अर्थ सामान्यतः ब्राह्मण वर्ग के लिए समझा जाता है किन्तु इसका द्विज --अर्थात-- द्वि -दुबारा, ज -जन्म।

पहला जन्म माता-पिता द्वारा और दूसरा जन्म ब्रह्म ज्ञान और आत्मिक विकास के लिए आध्यात्मिक जन्म, जिसका अधिष्ठाता भी गुरु ही है। इसीलिये द्विज शब्द दूसरे जन्म का द्योतक है। ब्राह्मण अर्थात ब्रह्म ज्ञान परायण होना, जो गुरु ही करता है। अतः द्विज या ब्राह्मण चित्त और मानसिक अवस्था का द्योतक है किसी विशेष वर्ण में जन्म लेने से ब्राह्मण होने का संकीर्ण अर्थ नहीं है। कर्म और वृति के आधार पर वर्ण का समर्थन श्री कृष्ण ने गीता में किया है।

विष्णु --के अर्थ में गुरु से मिले ज्ञान से ही धन का अर्जन करके अपना पालन करते हैं।

महेश --के अर्थ में गुरु सदा हमारा कल्याण ही चाहता है। गुरु शिवत्व भाव से परिपूर्ण होता है।

गुरु की गरिमा, महात्म्य और विशिष्ट स्थान तो और अधिक पुष्ट होते हैं जब हम पौराणिक ग्रंथों में पढ़ते है कि श्री राम और श्री कृष्ण भी ज्ञान के लिए गुरुकुल गए थे. श्री राम के गुरु वशिष्ठ और श्री कृष्ण के गुरु संदीपनी थे अर्थात धरती पर महान विभूतियों के अवतरित होने पर भी ज्ञान-गुरु की परम्परा का संवहन किया है। गुरुवर के आदर सम्मान और विशिष्ठ स्थान के लिए रामायण में बहुत दृष्टांत तुलसी ने दिए हैं। कबीर दास ने तो गुरु और गोविन्द दोनों में गुरु को प्राथमिकता दी है।

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय
बलिहारी गुरु आपकी, गोविन्द दियो मिलाय

गुरु: गु -अन्धकार, रु -प्रकाश... अधकार से प्रकाश की ओर अर्थात अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाने वाली शक्ति गुरु है।

गुरु: गु -गुणातीत, रु -रूपातीत = गुरु है।

गुरु: रहस्य, मर्म को जानने वाला, तत्वज्ञ ही गुरु है

गुरु: निपुण, अध्यात्म ज्ञान का ज्ञाता गुरु है।

गुरु: जो गूढ़ विषयों का ज्ञाता है।

गुरु: जो गुरुता अर्थात जड़ता के निवारण का ज्ञान दे।

गुरु --जो गुरुत्वाकर्षण की परिधि से जीव को पार ले जाए वह सच्चा गुरु है। यह गुरु के मर्म को उजागर करने वाली अर्थ गर्भिता परिभाषा है। जीव जब तक जगत के आकर्षणों से बंधा और आसक्तियों बंधा है तो यही जड़ता उसे सूक्ष्म नहीं होने देती है, गुरु ही ज्ञान से सांसारिक आसक्तियों और बंधनों को शिथिल करता है और उर्ध्वगामी होने योग्य बनता है।

गुरु ही सिखाता है कि आस्था परमात्मा में, विश्वास स्वयं में और इच्छा शक्ति कर्म में लगाओ। सद्गुरु अपनी बोधगम्यता, सारा ज्ञान, सारी शक्ति योग्य शिष्य को देकर पूरा ही रूपांतरण कर देता है. कभी ज्ञान से, कभी दृष्टी से तो कभी केवल छूकर ही। रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद को केवल छुआ भर था और रूपांतरण हो गया।

अतः

सद्गुरु मिला तो सब मिला, बाकी मिला न कोय,
मात-पिता बंधू सखा, ये तो घर-घर होय