गुरूरे-इश्क़ का बाँकपन (मनमोहन) / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और उनकी शायरी की ज़गह और उसका मूल्य ठीक-ठीक वही बता सकते हैं जो उर्दू ज़ुबान और अदब के अच्छे जानकार और अधिकारी विद्वान हैं। मेरी समाई तो सिर्फ़ इतनी है कि अपने कुछ ‘इंप्रेशन्स’ (या इस कवि के साथ अपने लगाव की कुछ तफ़सीलें) रख दूँ, सो यहाँ मैं इन्हीं को रखने की कोशिश करता हूँ।

7 वीं दहाई के जनवादी उभार के वर्षों में ख़ास तौर पर, और उसके बाद लगातार, हमारी पीढ़ी की हिंदी रचनाशीलता को हमारे जिन बुज़ुर्ग उस्तादों का ख़ामोश लेकिन मजबूत साथ और सहारा मिला; उनमें जर्मनी के बर्तोल्त ब्रेख़्त, तुर्की के नाज़िम हिकमत और हमारी उर्दू ज़बान के फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ शायद सबसे अहम थे। शायद इस पूरे दौर में नई रचनाशीलता को ब्रेख़्त की कठोर आलोचनाशीलता और द्वंद्वात्मकता ने देखना सिखाया है और फ़ैज़ या नाज़िम हिकमत की खरी क्राँतिकारी रूमानियत ने मौजूदा रणक्षेत्र में अपने पक्ष के साथ खड़े रहने का हौसला दिया है और पराजय और अलगाव के कठिन क्षणों में अपनी स्वप्नशीलता और स्वाभिमान की हिफ़ाज़त करना सिखाया है। यह बात भी ग़ौर करने लायक है कि पुराने प्रगतिशील आंदोलन की अत्यन्त सम्पन्न विरासत में भी क्यों फ़ैज़ की उपस्थिति हमें सबसे जीवित और दमदार लगती रही है। वे आज भी लगभग हर तरह से हमारे समकालीन हैं। बल्कि मैं सोचता हूँ, 1990 के बाद नव-साम्राज्यवादी बर्बरता के नये आलम में फ़ैज़ की शायरी में हमारे दिलों की धड़कन और ज़्यादा साफ़ सुनाई देने लगी है। मुझे याद है कि इमरजैंसी के ख़ौफ़नाक दिनों में जब सव्यसाची द्वारा सम्पादित ‘उत्तरार्द्ध’ का पहला अंक (वैसे अंक-11) छपा और पत्रिका की पीठ पर फ़ैज़ की नज़्म ‘लहू का सुराग़’ (‘कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं लहू का सुराग़’) छपी तो कितना बुरा-भला सुनना पड़ा। एकाध क्राँतिकारी दोस्तों ने यहाँ तक कहा कि फ़ैज़ ‘भुट्टो के एम्बेसडर’ के सिवा क्या हैं। इनकी कविता आपने क्यूँ छापी और ‘दस्ते-नाखुने-क़ातिल’ या ‘ख़ूंबहा’ जैसे लफ़्जों को कितने लोग समझते हैं? लेकिन मेरा ख़याल है कि यह नज़्म और इसके अलावा उन दिनों इसी पत्रिका में छपीं ‘बोल के लब आज़ाद हैं तेरे’ और ‘निसार मैं तेरी गलियों पे’ नज़्में न सिर्फ़ समझी गईं, बल्कि इन्होंने उस कठिन समय में अजीब सी ताक़त दी और हमारे नैतिक-भावनात्मक विक्षोभ को स्वर दिया।

यह मेरी ख़ुशनसीबी है कि मुझे फ़ैज़ साहब को सुनने का और उनसे छोटी सी मुलाक़ात का मौक़ा मिला। शायद यह 1978-79 के बीच की बात है। एक दिन सुनाई दिया कि फै़ज़ हिंदुस्तान ही में हैं और (शायद ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ हो कर?) कुछ दिन के लिए जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में ही चले आए हैं। हम लोग बड़े खुश थे। फिर एक दिन उनका काव्य-पाठ हुआ। शायद उस वक़्त के ‘डाउन कैंपस’ की क्लब बिल्डिंग के पास की खुली ज़गह में कुछ क़नातें खड़ी की गई थीं और मंच भी बाँधा गया था। उस धूप वाले दिन का खुला नीला आसमान अभी भी याद है। फै़ज़ साहब ने जम कर अपनी ढेर सारी नज़्में, ग़ज़लें कही थीं। जब वे खड़े हुए और उन्हें पहली बार देखा तो थोड़ा अजीब सा लगा।

सिर्फ़ उन्हें देख कर एक बार उस छवि को कुछ धक्का सा लगता था जो उनका पढ़ते-सुनते हुए मन ही मन बन गई थी। सफ़ारी सूट पहने (शायद एकाध अँगूठी भी), कुछ भारी-भारी सा डील-डौल लिए यह गंजे से सर वाला लम्बा-चौड़ा शख़्स देखने में कतई स्टेट बैंक या जीवन बीमा निगम का ‘टिपीकल’ अफ़सर या मैनेजर लगता था। लेकिन जब फ़ैज़ साहब ने सुनाना शुरू किया तो उनकी आवाज़ ने दिल को छू लिया, बल्कि सीधे पकड़ लिया।

हालाँकि हमने मुशायरे की परम्परागत धज़ में तरन्नुम के साथ ‘जलद-मंद्र-स्वर’ में किया हुआ मज़रूह सुल्तानपुरी का प्रभावशाली पाठ सुना है; धारावाहिक वक्तृता की शैली में क़ैफी आज़मी या सरदार ज़ाफरी का नज़्में पढ़ना देखा है; बाबा नागार्जुन की बाँध लेने वाली ‘थियेटरीकल’ प्रस्तुतियाँ देखी हैं; आलोकधन्वा का अविस्मरणीय काव्य-पाठ सुना है; और तो और जे० एन० यू० के ‘स्पेनिश सेंटर’ की मेहरबानी से ‘रिकॅर्डेड’ आवाज़ में नेरूदा के स्पेनिश पाठ की एक बानगी देखने और आरोह-अवरोह के साथ उनकी नाद-गुण सम्पन्न गहिर गंभीर वाग्मिता की स्पंदित स्वर लिपि को सुनने का सौभाग्य भी मिला है। लेकिन फ़ैज़ का अंदाज़ इन सबसे अलग था। यह किसी भी तरह की ‘परफोरमेंस’ से कोसों दूर था। फिर भी उनकी आवाज़ में एक जादुई छुअन थी, जिसमें अपने कमाए हुए गहरे दर्द के एहसास के साथ एक ठहरी थकान और अनमनेपन में लिपटी विलक्षण कोमलता और आत्मीयता का मेल था। यह एक दुख उठाए हुए, अनुभव सम्पन्न, उम्रज़दा शख़्स की दिलासा और भरोसा दिलाती हुई आवाज़ थी। ऐसी आवाज़ शायद अब कुछ पुरानी बूढ़ी, घरेलू स्त्रियों के पास ही बची मिलगी। फै़ज़ इतने बेबनाव और सादे तरीके से कविताएँ कहते थे कि कोई भी काव्य-रसिक उसे ख़राब तरीके का काव्य-पाठ भी कह सकता था, लेकिन यह शायद ज़्यादा अच्छा तरीक़ा था। उनके अलावा यह चीज़ रघुवीर सहाय के काव्य-पाठ में भी मिलती थी, बल्कि वे तो इसका उपयोग एक सचेत युक्ति की तरह करते थे। शमशेर का कहने का अन्दाज़ भी गुफ़्तगू ही का अन्दाज़ था जो उनकी कविताओं के मिज़ाज में ढ़ला हुआ था और ग़ज़ल तो अपनी परिभाषा में ही दिल से दिल की गुफ़्तगू है।

ख़ैर, फ़ैज़ साहब ने जम कर सुनाया। वह नज़्म भी - ‘कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया’। फरमाइशें भी खूब हुईं। जो किसी ने कहा ‘फ़ैज़ साहब, ‘गुलों में रंग भरे’ भी सुनाइये’, तो फ़ैज़ साहब ने हँस कर कहा ‘कौन सी सुनाऊँ, नूरजहाँ वाली सुनाऊँ कि मेहंदी हसन वाली सुनाऊँ’ और सब हँस पड़े।

इस बात का कम महत्त्व नहीं है कि फै़ज़ की शायरी को नूरजहाँ, बेगम अख़्तर, अमानत अली खान, मलिका पुखराज, इक़बाल बानो, अली बख़्श ज़हूर, फ़रीदा ख़ानम, फ़िरदौसी बेगम, बरक़त अली खान, शान्ति हीरानंद और मेहदी हसन जैसी अद्भुत आवाज़ें नसीब हुईं। ग़ालिब की शायरी के बाद इतनी तादाद में अव्वल दर्जे़ के गायकों ने, किसी और शायर की चीज़ें शायद ही गायी हों। यक़ीनन इससे फै़ज़ की शायरी का दायरा विस्तृत हुआ है। उनकी शायरी के गूढ़ार्थ और अनेक अर्थछटाएँ उद्घाटित हुई हैं। फै़ज़ को पढ़कर हमने जितना जाना है, हिंदुस्तान और पाकिस्तान के महान गायकों से सुनकर कम नहीं जाना। गायक भी आखि़रकार अपने गाने से ‘टैक्स्ट’ की अपनी व्याख्या पेश करता है और एक प्रकार से कृति की पुनर्रचना करता है लेकिन शायद इसकी गुंजाइशें ‘टैक्स्ट’ में पहले से छिपी होती हैं।

एक दिन रूसी भाषा केंद्र के ऑडीटोरियम में फ़ैज़ ने अल्लामा इक़बाल पर अपना पर्चा पढ़ा, शायद अँग्रेज़ी में। यह विद्वत्तापूर्ण और जानकारी से भरा हुआ पर्चा उनकी शायरी के मिज़ाज से मेल नहीं खाता था। वैसे अँग्रेज़ी में उपलब्ध उनके ज़्यादातर गद्य में कई बार नवशास्त्राीय क़िस्म की अकादमिकता हावी दिखाई देती है। इक़बाल की शख़्सियत और उनकी शायरी में फै़ज़ साहब की कुछ ख़ास और बुनियादी क़िस्म की दिलचस्पी लगती थी। कुछ-कुछ वैसा ही रिश्ता था जैसा रवींद्रनाथ और निराला का या प्रसाद और मुक्तिबोध का। बाद में यह भी पता चला कि इक़बाल भी सियालकोट के ही थे और इक़बाल के प्रभाव की सघन छाया में ही एक नवोदित कवि के रूप में फ़ैज़ का विकास हुआ था।

1978 में मैं रोहतक आ गया था। लेकिन इसके बाद भी लगभग दो साल तक मेरा रिश्ता जे० एन० यू० के भारतीय भाषा केन्द्र से बना रहा। रोहतक में डॉ. ओमप्रकाश ग्रेवाल अँग्रेज़ी विभाग में प्रोफे़सर थे। उन्होंने और डॉ. भीम सिंह दहिया (जो उस वक्त विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार भी थे) ने मुझ से कहा कि मैं किसी तरह फ़ैज़ साहब को रोहतक लाऊँ। मैंने डॉ. मुहम्मद हसन (जो एम० ए० में मेरे शिक्षक भी रहे थे) से कहा कि फ़ैज़ साहब को मुझे रोहतक ले जाना है। उन्होंने कहा कि मैं अगले दिन 11 बजे सेन्टर में उनके कमरे में आ कर फ़ैज़ साहब से ख़ुद ही बात कर लूँ। शुरू में मुहम्मद हसन साहब से मेरा रिश्ता क़तई औपचारिक और नपा-तुला था, लेकिन गहरा था। यों वे बात करने में सख़्त, कंजूस और बेहद चौकन्ने शख़्स लगते थे लेकिन उनके अंदर बँटवारे का सच्चा दर्द और एक तरह का सात्विक विक्षोभ था। नामवर जी और मुहम्मद हसन के जे० एन० यू० में आने के बाद हिंदी-उर्दू के पाठ्यक्रमों को लेकर, खास तौर से हिंदी विद्यार्थियों को उर्दू का क्रेडिट-कोर्स करने या पाठ्यक्रम के एक हिस्से को दोनों भाषाओं के लिए समावेशी ढंग से तैयार करने को लेकर पहली स्टूडैण्ट फैकल्टी कमेटी में जो बहस हुई उसमें हसन साहब और हमारा एक ही पक्ष था। ‘प्रगतिशील लेखक महासंघ’ (जो उन्हीं दिनों नई शक़्ल में खड़ा किया गया संगठन था) के आपातकाल के समर्थन में निकले प्रपत्र पर छपे अपने नाम को लेकर उनके मन में घोर ग्लानि थी। उन्हीं दिनों आपातकाल को लेकर उन्होंने अपना बेहद अच्छा नाटक ‘ज़ेहाक़’ हमें सुनाया था।

खै़र, अगले दिन जब मैं 11 बजे मुहम्मद हसन साहब के कमरे में दाखिल हुआ तो फै़ज़ साहब उनकी ‘अध्यक्षीय’ कुर्सी के सामने की कुर्सी पर बैठे थे। हसन साब ने मुझे देखते ही उनसे कहा , ‘जनाब यही हैं, जिनका ज़िक्र मैं कल आपसे कर रहा था। मनमोहन साब हमारे शागिर्द हैं। इन दिनों रोहतक यूनिवर्सिटी में हैं और आपको रोहतक ले जाना चाहते हैं।’ फ़ैज़ साहब ने, जो अब तक खड़े हो गए थे, तपाक से हाथ मिलाया जैसे गले मिल रहे हों। उनकी आँखें झिलमिला रही थीं, बोले, ‘रोहतक! अरे भाई रोहतक तो हमारा वतन है, ज़रूर चलेंगे। वैसे मैं अभी कुछ दिन पहले ही चंडीगढ़ (या शायद कुरुक्षेत्र?) हो कर आया हूँ, लेकिन रोहतक ज़रूर चलना है। अभी तो बाहर (विदेश, फ्राँस या शायद सोवियत यूनियन?) जाना है, लौट कर प्रोग्राम बनाते हैं।’ मैं सोचता रह गया रोहतक और इनका वतन !

कुछ दिनों बाद समझ में आया कि उनके दिमाग़ में संयुक्त पंजाब का पुराना नक़्शा था, जिसका एक अहम शहरी केन्द्र शायद रोहतक भी रहा होगा।

ज़िया-उल-हक़ के पतन से पहले दसियों हज़ार लोगों की रैली में बुलन्द आवाज़ में फ़ैज़ का वो अविस्मरणीय तराना ‘हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’ की अद्भुत प्रस्तुति करने वाली प्रख़्यात पाकिस्तानी गायिका इक़बाल बानो मूलतः रोहतक की ही रहने वाली थीं। खै़र हम लोग कुछ देर उनके साथ बैठे और उन्हें बाहर टैक्सी तक छोड़ा। बाहर जो विदेशी मूल की महिला उनका इंतज़ार कर रही थीं शायद उनकी बीवी एलिस ही रही होंगी। अफ़सोस है कि फै़ज़ साहब से फिर कभी मुलाक़ात नहीं हो पाई और उन्हें रोहतक लाने का हमारा ख़्वाब जिसमें शायद उनका भी कोई ख़्वाब छिपा था, अधूरा ही रह गया।

इस बात पर जब ग़ौर करते हैं कि क्यों हमारे वक़्त में फ़ैज़ की उपस्थिति दिनोंदिन इतनी प्रबल, इतनी वास्तविक और इतनी अनिवार्य होती चली गई है तो सबसे पहले यही ख़याल आता है कि उनकी शायरी हमारे इस बैचेनी भरे ऐतिहासिक दौर में न्याय के कठिन संघर्ष में उलझी ताक़तों के भावनात्मक और नैतिक उद्वेगों को; उनकी व्याकुलता और आंतरिक विक्षोभ को; अपमान और पराजय के बीच भी उनकी उद्दीप्त आत्मगरिमा, अकूत धैर्य, साहस और सुंदरता को बेमिसाल ढंग से उद्घाटित करती है, सच्चाई और पूरेपन के साथ। यही एक चीज़ है जो फ़ैज़ को फै़ज़ बनाती है और उन्हें हमारी ‘आत्मा का मित्र’ बना देती है।

मीर और ग़ालिब के बाद उर्दू ज़ुबान में शायद फ़ैज़ हमारी स्मृति में सबसे गहरे उतरने वाले शायरों में हैं। पिछली तीन शताब्दी में दूसरी भारतीय भाषाओं की कविता में भी इन तीनों जितनी पुख़्तगी कितने कवियों में मिलेगी, कहना कठिन है। इसकी वजह जो समझ में आती है वो ये कि ये तीनों कवि गहरे अर्थों में अपने-अपने वक़्तों की भीषण उथल-पुथल की उपज हैं। यह उथल-पुथल कोरा ‘ऐतिहासिक संदर्भ’ ही नहीं है, यह इनके भीतर से, इनके निजी जीवन और दिल-दिमाग़ के बीचों-बीच से इन्हें चल-विचल करते हुए कुछ इस तरह से गुज़री है कि इनके व्यक्तित्वों की अन्दरूनी बनावट में रच-बस गई है। इससे भी ज़्यादा अहम यह है कि तीनों अपने-अपने ढंग से घोर अवमूल्यनकारी, अपमानजनक और हृदयहीन परिस्थितियों में मनुष्य की गरिमा की प्रतिष्ठा करते हैं; भीषण आन्तरिक यातना और विक्षोभ से गुज़र कर इसकी पूरी क़ीमत चुकाते हैं लेकिन इसका पूरा दावा रखते हैं। इस तरह तीनों ही मनुष्य को तुच्छ बनाने वाली और कुचलने वाली परिस्थिति को मानने से इन्कार करते हैं। यही इनका प्रतिरोध है। यह प्रतिरोध फक़त इनके अपने सचेत चुनाव या पक्षधरता की वजह से पैदा हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। यह इनके लिए लगभग एक ‘बुलफाइट’ में उलझे, घिरे और आत्मरक्षा की कोशिश में लगे हुए शख़्स की मजबूरी की तरह निर्विकल्प और अनिवार्य था।

दिलचस्प तथ्य यह है कि तीनों ग़ज़ल के शायर हैं। ग़ज़ल एक किस्म का ‘लिरिक’ ही मान लिया गया है (हालाँकि यह धारणा पूरी तरह सही नहीं है)। लेकिन इन्होंने ग़ज़ल के आत्मपरक ढाँचे में एक ‘क्लासिकी’ अन्दाज़ पैदा किया। यह क्लासिकी क़िस्म की महाकाव्यात्मकता ‘फिनोमिनल’ कोण पैदा करने वाली उस विद्युत्धर्मिता और बुनियादी नज़र की मांग करती है जो महान त्रासदियों में हमें अक़्सर दिखाई देती है (मिर्ज़ा ग़ालिब के यहाँ शायद यह चीज़ सबसे ज़्यादा है)। इस खू़बी के बाद ग़ज़ल सिर्फ़़ एक आत्मपरक उच्छ्वास या कोरा ‘लिरिक’ नहीं रह जाती। वह चाहे एहसास के पर्दे पर ही सही अपने युग के महानाटक की अन्दरूनी कशमकश के जहाँ-तहाँ कौंदने वाले अक़्स फेंकती चलती है।

ख़ुद फ़ैज़ ने ग़ज़ल के काव्यरूप की इस विलक्षणता और चमत्कारिक लचीलेपन के बारे में कहीं लिखा है कि प्रतीक-व्यवस्था के सीमित प्रारूपों और एक रिवायत में बंधी-बंधायी पदावली और भंगिमाओं के दायरों के अंदर ग़ज़ल कैसे नये-नये अर्थ और एक साथ अनेक स्तरीय अर्थछटाएं पैदा करती और खोलती है और नये अवकाश रच लेती है। कैसे इसमें अर्थ की नयी अनुगूंजें पैदा होती हैं और सुनायी देती हैं। फै़ज़ ने यह भी बताया है कि शायद इसीलिये यह नाज़्ाुक काव्यरूप उठाईगीरी, फरेब और तरह-तरह के दुरुपयोग के लिए भी ज़्यादा खुला हुआ है। एक जैसी लगने वाली भंगिमाओं और पदावली की वजह से अच्छी ग़ज़ल और ख़राब ग़ज़ल के बीच फर्क़ की तमीज़ पैदा करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है। कुल मिलाकर यह कि मीर, ग़ालिब और फ़ैज़ इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि वे अपनी शायरी के ज़रिये न सिर्फ़ अपने निजी एहसास की बल्कि अपने-अपने बदलते वक़्तों की तज़र््ाुमानी करते हैं और उनकी नुमाइंदगी करने वाली प्रामाणिक आवाज़ बन जाते हैं। मानव स्थितियों की इसी बुनियादी और अस्तित्वमूलक पकड़ की वजह से उनकी अनुगूंजें उनके वक़्तों के बाहर भी जब-तब सुनायी देती हैं।

मीर का ज़माना एक बस्ती के उखड़ने का ज़माना है (‘कैसी-कैसी सोहबतें उखड़ गयीं!’)।

अंतःस्फोटों के बीच अपने ही मलबे में धंसते Ðासग्रस्त सामंतवाद के उन दिनों में तमाम लूटपाट, अफरा-तफरी और बदहवास आपाधापी के बीच शाही अभिजात वर्ग के एक नुमाइंदे के तौर पर मीर (किसी हद तक अपने उदार सूफ़ियाना मिज़ाज की वजह से भी) अपने युग की ज़लालत और क्रूरता के तीखे एहसास से गुज़रते हैं। उनकी शोकमग्न आत्मा इस हानि का बोझ उठाती है और इसे बताती है। यह भी एक प्रत्याख्यान ही है। अगली सदी में, औपनिवेशिक विजय के युग में, इसी पिटेपिटाये शाही आभिजात्य के आखि़री अवशेष की तरह मिर्ज़ा ग़ालिब एक ज़्यादा विडंबनामय ज़मीन पर खड़े हुए इसी तरह की आत्मपीड़ा, लांछना, नैतिकत्रास से गुज़रते हैं और तुच्छताओं में घिर कर घिसटते अपने अस्तित्व के साथ मनुष्य की उद्दीप्त आत्मगरिमा की लौ को बचाते और प्रतिभासित करते चलते हैं।

फ़ैज़ का वक़्त और फ़ैज़ का जीवन क़तई अलग था। उनका रंगमंच और उस रंगमंच के क़िरदार अलग थे। कुल मिलाकर फ़ैज़ का युग इतिहास की ऊर्ध्वगति और भविष्यवादी प्रेरणाओं की क्रियाशीलता का युग है। फिर भी फै़ज़ का आयुष्यक्रम कभी-कभी ग़ालिब के विरोधाभासी जीवन की याद दिलाता है। पैतृक रूप से एक भूमिहीन परिवार में जन्मे फ़ैज़ के पिता ने भी अपनी ज़िंदगी की शुरुआत चरवाहे और कुली की तरह की थी, लेकिन किसी संयोग से उनके दिन फिरे और वे नाटकीय ढंग से अफगानिस्तान के बादशाह के यहां ऊंचे नौकरशाह बन गये। फ़ैज़ के ही लफ़्जों में उन्होंने काफ़ी ‘रंगीन’ जीवन बिताया। फिर एक दिन सांप-सीढ़ी के इस खेल में वापिस अपनी जगह पहुंच गये। मामूली देहाती मां के बेटे फ़ैज़ के हिस्से में ज़्यादा से ज़्यादा पिता के रुतबे की ‘जली हुई रस्सी’ के कुछ बल ही आये होंगे।

प्रथम महायुद्ध के बाद साम्राज्यवाद विरोध की उत्ताल तरंगों से आंदोलित दुनिया में फ़ैज़ ने होश संभाला। उनका बचपन और किशोरावस्था काल सोवियत क्रांति की विजय और असहयोग और खि़लाफ़त आंदोलनों की हलचलों के साक्षी बने और राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम के लोकव्यापीकरण के गहरे प्रभावों और ऊर्जाओं को जज़्ब करते हुए गुज़रे। 1930 के ‘ग्रेट डिप्रेशन’ का अपने संदर्भ में फ़ैज़ ने ख़ास तौर पर ज़िक्र किया है। वे तब 20-21 साल के नौजवान थे। इस सर्वग्रासी मंदी ने जहां एक तरफ़ उनके अपने परिवार को भुखमरी के कगार पर पहुंचा दिया और उनके सामने जीवनयापन का प्रश्न उपस्थित किया, वहीं दुनिया में इसने फ़ासीवाद के उभार के लिए ईंधन का काम किया। देश में आज़ादी की दिनों-दिन तेज़ होती जंग और योरप में युद्ध के खि़लाफ़ और अमन के हक़ में उठी प्रबल हिलोर के गहरे असर में फै़ज़ इन्हीं दिनों आये। इसी बीच कम्युनिस्ट आंदोलन और मार्क्सवाद से भी उनका रिश्ता जुड़ा। यह फै़ज़ के आत्मनिरूपण (ैमस.िवितउनसंजपवदद्ध के महत्वपूर्ण वर्ष थे। भारत में प्रगतिशील साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन और प्रगतिशील लेखक संघ की प्रतिष्ठा करने वाली अग्रणी शख़्सियतों में से एक फ़ैज़ भी थे। इस शुरुआती दौर की प्रेरणा, लक्ष्य और स्वप्न ही फ़ैज़ के अंतर्व्यक्तित्व की धुरी बन गये। फ़ैज़ की शायरी इस बात की गवाही देती है कि ये चीज़ें उनसे कभी दूर नहीं हुईं और उनके लिए कभी झूठी नहीं पड़ीं। इनके òोत उनके यहां कभी सूखे नहीं, कठिन से कठिन वक़्त में भी नहीं।

1941 में जब फ़ैज़ का पहला संकलन नक़्शे-फ़रियादी प्रकाशित हुआ तो उसमें उनके अंतर्जगत के मानचित्र की शुरुआती निशानदेही हो गयी। इस संग्रह में उनकी 1928 के बाद की प्रारंभिक रचनाओं से लेकर, प्रगतिशील आंदोलन की प्रेरणाओं से उनके रिश्ता बनाने तक की विकास यात्रा संचित है। सद्यःजात उच्छ्वसित रूमानी संवेगों की शुरुआती बेकली और तीव्रता इनमें से पहले दौर की अनेक रचनाओं की संचालिका शक्ति है जो ज़्यादातर निजी क़िस्म की है और तेज़ी से चढ़ती और गिरती है। इनमें लगता है कि कवि की एक उम्र है और ‘बाहर’ अभी ज़्यादातर बाहर ही है, ‘अंदर’ नहीं आया है। निजी अभी तक निजी ही बना हुआ है। हालांकि अपने दौर की मुख्य दिशा के मुताबिक कवि ने बाहर की दुनिया की कठोर हक़ीकत और नैतिक तक़ाज़ों से अपने भाव-संसार का मेल करना शुरू कर दिया है। लेकिन इस प्रक्रिया में कवि को खुद को बार-बार समझाना बुझाना पड़ता है ‘मेरा दिल ग़्ामगीं है तो क्या, ग़्ामगीं ये दुनिया है सारी’ और ‘ये दुख तेरा है ना मेरा हम सबकी जागीर है प्यारी’ इसलिए ‘क्यूं न जहां का ग़्ाम अपना लें, बाद में सब तदबीरें सोचें’। एक तरफ़ ‘अपनाने’ की यह ज़द्दोज़हद चलती है तो दूसरी तरफ़ एक और ही निजी उधेड़बुन चलती रहती है जो कभी भी कह उठती है, ‘हो चुका ख़त्म अहदे-हिज्रो-विसाल ज़िंदगी में मज़ा नहीं बाक़ी’ या ‘अपने बेख़्वाब किवाड़ों को मुक़फ़्फ़ल कर लो, अब यहां कोई नहीं, कोई नहीं आयेगा’।

नक़्शे-फ़रियादी में ही फ़ैज़ की बेहद लोकप्रिय नज़्म ‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मिरे महबूब न मांग’ संकलित है। यह नज़्म प्रगतिशील आंदोलन की तत्कालीन मुख्यधारा की उन ढेर सारी रचनाओं के नमूने में ही ढली हुई है जिनमें कई बार भावनात्मक अनुरोध अपनी जांच किये बग़ैर अति नाटक की मदद से और नैतिकीकरण की युक्ति का सहारा लेकर सहानुभूति का नया ढांचा खडा करना चाहते हैं और ‘न्याय-चेतना’ के अनुरूप स्थित होना चाहते हैं। नक़्शे-फ़रियादी में ही फ़ैज़ ने एक नये कवि की इस स्वाभाविक लड़खड़ाहट को पार कर लिया था। ‘बोल के लब आज़ाद हैं तेरे’ जैसे तराने या ‘दोनों जहान तेरी मुहब्बत में हार के’ जैसी मर्मस्पर्शी ग़ज़लें इसी संकलन में शामिल थीं। नक़्शे-फ़रियादी की एक ग़ज़ल में फ़ैज़ का यह शेर है:

फ़ैज़ तक़मीले ग़म भी हो न सकी
इश्क़ को आजमा के देख लिया

लेकिन हम जानते हैं कि इश्क़ की मुश्किल आजमाइश अभी शुरू ही हुई थी और ताजि़्ांदगी जारी रही। इसे अभी कई बीहड़ रास्तों से गुज़रना था। तक़मीले ग़म भी ख़ूब हुई लेकिन फिर भी कम ही ठहरी। आज़ादी के बाद राष्ट्रीय आंदोलन के बिखराव के वर्षों में, ख़ासकर 50 के दशक में प्रगतिशील आंदोलन की स्वतः स्फूर्त ऊर्जा ख़त्म होने लगी और धीरे-धीरे कम से कम एक बार पूरा आंदोलन ही बिखर कर विसर्जित हो गया। ‘आख़िरी शब के हमसफ़र’ अपना-अपना सफ़र ख़त्म करके सुस्ताने के अपने ठिकाने ढूंढ़ रहे थे। कोई किसी किनारे लगा, कोई किसी और किनारे। धीरे-धीरे अच्छी ख़ासी तादाद में लोग प्रलोभनों या पराये वैचारिक दबावों और प्रभावों में आये और ख़ामोशी से कहीं और चले गये। उर्दू-हिंदी के कितने ही तरक़्क़ीपसंद, ‘इप्टा’ और ‘पृथ्वी थियेटर्स’ की कितनी ही प्रतिभाएं जो कभी इस तहरीक़ का परचम उठाये गांवों-क़स्बों की ख़ाक छानती फिरती थीं, एक दूसरी ही दुनिया में जा बसीं। न जाने कितने कलाकार संस्कृति के व्यावसायिक ढांचों में जज़्ब हो गये या फिर फ़िल्म उद्योग के विशाल उदर में ठीक-ठीक समा गये। क्रांति का ख़याल अब कोई ख़ास ख़लल पैदा न करता था। इन प्रतिभाओं ने इन नयी ज़गहों को भी कुछ वक़्त के लिए अपनी जल्वाग़री से रौशन ज़रूर किया, लेकिन एक आंदोलन जिसकी जड़ें मामूली लोगों की ठोस ज़िंदगी में, उनके दुखदर्द में, उनके सपनों और दैनिक संघर्षों में थीं, एकबारगी ख़त्म हो गया।

लेकिन फ़ैज़ साहब का मामला कुछ अलग था। उनका दर्दभरा लंबा और मुश्किल सफ़र अभी बचा हुआ था जिसे उन्हें लगभग अकेले ही तय करना था। अलग पाकिस्तान के ख़याल को फ़ैज़ ने कुबूल कर लिया था और जनवरी ’47 में ही पाकिस्तान टाइम्स का संपादन करने लाहौर आ चुके थे। हालांकि अगस्त 1947 में फ़ैज़ लिख रहे थे, ‘ये दाग़-दाग़ उजाला, ये शबगज़ीदा सहर, वो इंतिज़ार था जिसका ये वो सहर तो नहीं’। लेकिन शायद तब उन्हें भी इस बात का इल्म न रहा होगा कि आने वाले दिन इस क़दर काले होंगे। फ़ैज़ की ज़िंदगी का एक बहुत ही अहम और पेचीदा पहलू यह है कि बंटवारे के बाद वे पाकिस्तान ही में रहे। लिहाज़ा आज़ादी की वे खुशफहमियां और झूठी तसल्लियां उनके हिस्से में नहीं आयी थीं जो प्रगतिशील आंदोलन से निकले उनके किसी ज़माने के संगी-साथियों को हिंदुस्तान में आसानी से नसीब थीं। ज़्यादातर वक्त उन्होंने पाकिस्तान में जनवाद को कुचल कर रखने वाले अमरीकापरस्त ज़ालिम भूस्वामी-सैनिक गठजोड़ की दमघोंट सुरंगों में घोर आत्मविच्छिन्नता से गुज़रते हुए या एक निर्वासित की ज़िंदगी जीते हुए बिताया। आज़ादी उनके लिए अभी भी एक सपना थी। सेना में शामिल होकर फ़ासीवाद के खि़लाफ़ लड़ने वाले फै़ज़ के लिए फासिज़्म लगभग तमाम उम्र एक ज़िंदा हक़ीक़त रहा, लेकिन बड़ी बात यह थी कि घोर अलगाव और अकेलेपन की इन मुश्किल परिस्थितियों में फ़ैज़ ने अपने निरूपण (formulation) काल की लौ की हिफ़ाज़त अपनी आबरू की तरह की, उसे न सिर्फ़ जिलाये रक्खा बल्कि इस पूरे दौर में उनके अंतःकरण में उसकी दीप्ति और भी ज़्यादा स्वच्छ, उदग्र और प्राणवंत हो गयी। ‘ग़ुरुरे इश्क़ का बांकपन’ कम न हुआ, उल्टा बढ़ता गया। यह नहीं भूलना चाहिए कि न्याय के लिए लड़ने वाले लोग वर्गारोहण और बूजऱ््वा सुखभ्रांतियों की भूलभुलैयों में ही गुम नहीं होते, दमनकारी परिस्थितियों में नृशंसीकरण और हताशा के सामने भी अलग-थलग और लाचार होकर टूट जाते हैं और समर्पण कर देते हैं। ख़ासकर तब जबकि परिदृश्य में संगठित प्रतिरोध के कोई विश्वसनीय लक्षण दिखायी न देते हों। इसलिए फ़ै़ज़्ा को ही इस बात का पूरा श्रेय दिया जाना चाहिए कि वे इश्क़ के इस कठिन इम्तहान में सुखऱ्रू हो कर निकले।

नक़्शे-फ़रियादी के बाद फ़ैज़ की शायरी को जैसे अपना आपा मिल गया। कवि जैसे अपने असलमैदान में आ पहुंचा हो। जेल की ज़िंदगी ने मंच को ठीक-ठीक बांध दिया और उन्हें अपने वक़्त के नाटकके बीचोंबीच उस केंद्रीय ज़गह ला खड़ा किया जहां से वे अपने भीषण आंतरिक संघर्ष के ज़रिये भी बीसवींसदी के अल्पविकसित नवस्वतंत्रा देशों के मुख्य संघर्ष की रूपरेखा को संकेतित कर सकते थे और आज़ादीऔर जनवाद के ज्वलंत प्रश्न की त्रासद विडंबना को ज़्यादा से ज़्यादा उद्घाटित कर सकते थे।दस्ते-सबा (1952) और ज़िंदांनामा (1956) और उसके बाद दस्ते-तहे-संग (1964) में फ़ैज़ कीशायरी की तमाम ख़ूबियां एक रचनात्मक संश्लेषण में ढल कर अपनी मौलिकता और उत्कर्ष के साथउभर कर आती हैं और अपनी पूरी आज़माइश करते हुए उनके कवि व्यक्तित्व को तमाम पहलुओं कोसमग्रता में सामने लाती हैं। यह चीज़ बाद तक आने वाले दूसरे संग्रहों में भी हम देखते हैं।इस पूरे लंबे दौर को एक साथ देखें तो फ़ैज़ की ताक़त इस बात में छिपी लगती है कि वे न्याय केबीहड़ संघर्ष की सच्चाई, सुंदरता और जटिलता को पूरी गहराई से समझते हैं, उसका सरलीकरण नहींकरते। इस इश्क़ के गुरूर, इसकी आबरू और शान को वे दिल से जानते और समझते हैं, इसके तमामबोझ और जानलेवा तक़ाज़ों के साथ। इस दर्द का सौदा उन्होंने अपनी इनसानी गरिमा की हिफ़ाज़त कीज़्यादा गहरी खुशी के लिए किया है, यह जानते हुए कि इस लड़ाई में कामयाबी की या मंज़िल पा लेने कीकोई गारंटी नहीं। इसमें बार-बार की नाक़ामी कोई ख़ास मानी नहीं रखती यह मश्क़ ही ख़ुद में कामयाबहै। फ़ैज़ ही कह सकते थे ‘फै़ज़ की राह सर-ब-सर मंज़िल, हम जहां पहुंचे कामयाब आये’। इस कठिनरास्ते का तमाम अधूरापन इसके तमाम पेच-ओ-ख़म के साथ उन्हें मंजूर है। बेग़ानगी, उदासी, अकेलेपन,विकलता और बेबसी के भयानक रेगिस्तान को वे जिस बड़प्पन, धीरज और साहस से पार करते हैं औरजिस संलग्नता और आत्मगर्व के साथ अपने स्वप्न की स्वच्छता और अपनी आशिक़ी की उत्कटता को हरक़ीमत पर बचाना चाहते हैं वह फ़ैज़ के कवि व्यक्तित्व की पुख़्तगी की ही एक मिसाल है।

अपनी एक नज़्म में फ़ैज़ ने कवि के अंतःकरण को ‘अत्याचार और न्याय का रणक्षेत्रा’ (‘तबअ-ए-शायरहै जंगाह-ए-अद्लोसितम’) कहा है। कहना ग़ैरज़्ारूरी है कि सबसे ज़्यादा ये फ़ैज़ के अपने भावजगतका ही बखान है। प्रामाणिक ढंग से वही कह सकते थे ‘दुख भरी ख़ल्क का दुखभरा दिल हैं हम’। हमआगे की उनकी तमाम शायरी में ‘अत्याचार’ और ‘न्याय’ के इस भीषण संग्राम की बदलती शक़्लों केसाथ कवि की दुर्द्धर्षता की अनेक सुंदर और शानदार छवियां देखते हैं। बार-बार हार कर भी इस ‘बदीहुई बाजी’ में कवि हारता नहीं; अपने शोक और एकाकीपन को एक ‘ट्रेजिक हीरो’ की शान, आत्मगरिमाऔर बड़प्पन के साथ धारण करता है, अपनी सज़ा को क़ुबूल करता है और समर्पण से इंकार करता है।दरअसल फ़ैज़ एक ऐसे कवि हैं, जिन्होंने मंसूर और फरहाद की पुरानी परंपराओं से लेकर कुर्बानियों सेभरी प्रतिरोध की तमाम साम्राज्यवाद विरोधी, फ़ासीवाद विरोधी मुक्तिकामी आधुनिक परंपराओं कोआत्मसात किया और उनकी क़ीमत समझते और चुकाते हुए उनके संवाहक बने। हम जानते हैं किएशिया, अफ्ऱीका, लातीनी अमरीका और तमाम दुनिया के मुक्तिकामी जनगण के संघर्षों के साथ कैसेउनके दिल की धड़कनंे पैबस्त थीं। वे सबसे अच्छी तरह यह जानते थे कि अंदर से यह एक ही लड़ाईहै। यह बात अलग है कि अपने इस सफ़र में फ़ैज़ को कभी यह लगा कि ‘उठेगा जब जम्म-ए-सरफरोशां/पड़ेंगेदार-ओ-रसन के लाले/कोई न होगा के जो बचा ले’ तो कभी ऐसा भी वक़्त रहा और ज़्यादातर रहा, किलगा, ‘न रहा जुनूने-रुखे-वफ़ा/ये रसन ये दार करोगे क्या’। लेकिन फ़ैज़ इन सब स्थितियों के बीच अपनीख़ुदी को बचाना जानते हैं। उनकी ख़ूबसूरत नज़्म ‘आज बाज़ार में पा-ब-जौलां चलो’ ज़ालिमों के निज़्ााममें अपने लांछित और अपमानित प्रेम की सुंदरता, शान और आत्मगर्व को जिस तरह पूरे क़द में सामनेलाती है और उसका ज़श्न मनाती है, उससे फ़ैज़ की आशिक़ी की गहराई और नैतिक तड़प का कुछअनुमान लगाया जा सकता है। यह कविता अत्याचार और न्याय के बीच के रणक्षेत्रा को उसी तरह एकऐतिहासिक थियेटर में बदलती है, जैसे मुक्तिबोध की कविता ‘भूल-ग़लती’।

फ़ैज़ सच्चे वतनपरस्त और सच्चे अंतर्राष्ट्रीयतावादी थे। दुनिया भर के जनसंघर्षों के साथ एकजुटताव्यक्त करके अंतर्राष्ट्रीयतावादी हो जाना आसान है लेकिन अंतर्राष्ट्रीयतावाद की असल परख तब होतीहै जब आपका मुल्क एक अविवेकपूर्ण युद्ध में झोंक दिया जाता है।

यह उल्लेखनीय है कि 1965 में भारत के साथ अनावश्यक जंग का और 1971 में बांग्लादेश परआधिपत्य बरकरार रखने के लिए फ़ौज़ी हुक्मरानों के द्वारा की गयी क़त्लोग़ारत का फ़ैज़ ने अपनीरचनाओं के माध्यम से प्रतिकार किया और अपने मुल्क की अंधराष्ट्रवादी धारा का विरोध मोल लियाजबकि 1962 में चीन के साथ भारत के युद्ध के हक़ में प्रगतिशील आंदोलन के उनके हिंदुस्तानी दोस्तोंका एक अच्छा खासा तबका अंधराष्ट्रवादी मुहिम का शिकार हुआ।

एक बात जो ख़ास तौर पर समझने की है, वो ये कि फ़ै़ज़ का ख़ुद के सरोकारों से रिश्ता कोरावैचारिक, नैतिक या कोई रस्मी रिश्ता नहीं है। वे उनके ख़ुद के सरोकार हैं, खु़द कमाये हुए, ‘ऑर्गेनिक’और अपरिहार्य। इनमें उनके वास्तविक और निजी ‘स्टेक्स’ थे। सामाजिक सरोकार और निजी सरोकारोंमें, ऐतिहासिक कार्यसूची और निजी कार्यसूची में उनके लिए कोई अंतर न था। इसीलिए ‘रेटरिक’ कासहारा लेने की ज़रूरत उन्हें कभी महसूस नहीं हुई जबकि उनके निरूपण (वितउनसंजपवदद्ध काल में इसकाचलन आम था। एक अमूर्त क्रांतिकारी रूमान, अमूर्त देशप्रेम या अमूर्त आवारगी और दीवानगी कीअनुष्ठानिक भंगिमाएं उकेरने के लिए यह काफ़ी मुफ़ीद है। ‘रेटरिक’ कई बार एक कर्मकांड के खोलया परिधान की तरह होता है जिसे पहन कर दिये हुए ‘पार्ट’ को अदा करने की सहूलियत काफ़ी मिलजाती है लेकिन उस कवि का काम कोरे ‘परफारमेंस’ से कैसे चल सकता है जिसका अपना अनुभव औरबोध एक बाध्यकारी और निर्विकल्प अस्तित्वमूलक संघर्ष के ज़रिए परिभाषित हो रहा हो और इसी कोचलाने के लिए उसे भाषा की ज़रूरत पड़ती हो। फ़ैज़ के शब्द अगर बजने के बजाय गूंजते हैं, सच्चेलगते हैं और दिल में उतरते हैं तो उसकी बड़ी वजह यही है कि वे असल की ताक़त लेकर आते हैं। उनमें वही उत्कटता और मार्मिकता है जो फै़ज़ की अपनी जद्दोज़हद में थी।

जिस चुनौती से फ़ैज़ का सामना था, वह आज और भी विकराल हो कर सामने है। उनका सपनाचाहे ऊपर-ऊपर टूट गया लगता हो, किंतु इसके बावजूद वह इतिहास के गर्भ में फिर से स्पंदित औरजीवित है। इस समय का संघर्ष ज़्यादा भीषण और जटिल है, लेकिन उसी अनुपात में प्रतिरोध कीसंभावनाएं ज़्यादा सघन, व्यापक और मूलगामी हुई हैं। इस लज्जित और पराजित युग में भी तमाम थकन,उदासी, विछोह और व्यथापूर्ण अकेलेपन के बीच फ़ैज़ का अंतःसंघर्ष, उनका जीवट, धैर्य, उनकी हठीपक्षधरता और उनका अप्रतिहत प्रतिरोध हमारी स्मृति में अपनी सच्चाई और प्राणमयता के साथ तब तकजीवित है, जब तक यह लड़ाई जारी है। कठिन आशिक़ी की फ़ैज़ की यह परंपरा आने वाले लंबे दौरमें हमारे साथ चलेगी।