गुरू गरिमा / सुधा भार्गव
एक शिक्षक थे उनका नाम था गगन तिवारी। इनके पास ज्ञान का असीम भंडार था। जो जितना ले सकता था उसमें से उतना उसको दे देते थे इसी लिए विद्यार्थी उनका आदर करते थे।
वे दिन –रात कहानी कविता लिखकर अपने रचना संसार में डूबे रहते थे। बच्चों को उनके कहानियाँ बहुत पसंद आतीं। वे हमेशा कहा करते –आप किताब छपवा लीजिये,हम उसको पढ़ेंगे। पर शिक्षक महोदय के पास इसके लिए पैसे नहीं थे।
शिक्षक तिवारी जी के पढ़ाए शिष्य बड़े हो गए और उनकी उम्र ढलने लगी पर लेखन की गति कम नहीं हुई।
एक दिन एक युवक उनसे मिलने आया। वह कीमती सूट पहने हुए था,हाथा में सोने की घड़ी बंधी थी। तिवारी जी अपने शिष्य को तुरंत पहचान गए। उसने श्रद्धा से गुरू के पैर छूए। उसे यह देख बड़ा कष्ट हुआ कि गुरू जी की चारपाई टूटी है,कपड़े भी गंदे व फटे हुए हैं। रसोई के नाम केवल दो- चार बर्तन !`
उसने तिवारी जी से कहा –आपने अपनी विद्यता से मेरे जीवन में रोशनी ही रोशनी भर दी। अब मेरे बारी है। मैं आपको इस हालत में यहाँ न रहने दूंगा।
मेरा घर बहुत बड़ा है। वहाँ रहने से आपको कोई असुविधा नहीं होगी और आप निश्चिंत होकर कहानियाँ लिखिएगा। पहले आपसे मैं सुनता था,अब मेरा बेटा सुनेगा।
गुरू जी उसकी बात सुनकर गदगद हो गए और बोले –मैं अवश्य तुम्हारे पास आऊँगा लेकिन उससे पहले मुझे अपने शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेने दो।
-क्या आप जैसे सज्जनों के भी दुश्मन होते हैं? युवक ने आश्चर्य से पूछा।
-पता नहीं पर मेरे हैं। शिक्षक ने सहजता से कहा।
युवक उनकी बात टाल न सका और अकेला ही घर लौट गया।
दो वर्षों के बाद अपने शिक्षक को दरवाजे पर खड़ा देख युवक के आनंद की सीमा नहीं रही। उसकी समझ में नहीं आ रहा था उनका कैसे आदर –सत्कार करे। उनकी एक कमरे में रहने की व्यवस्था की गई। युवक खुद बाजार गया और गुरू जी के लिए जूते,चप्पल आदि खरीदकर उन्हें अलमारी में करीने से सजा दिया । वैसे तो घर में नौकर-चाकर थे पर उसका अपनी पत्नी से विशेष आग्रह किया कि भोजन अपने हाथ से उसके गुरू को परोसे और उनकी अन्य जरूरतों का भी ध्यान रखे।
थाली में सब्जी –रोटी के अलावा नमकीन,चटपटा,चरपरा,मिठाई सभी होती थीं पर गुरू जी दो सब्जियाँ –दो रोटियाँ निकालकर सभी लौटा देते। इसी तरह कपड़ों के मामले में भी दो जोड़ी कपड़ों से गुजारा करते।
युवक को जब यह मालूम हुआ तो वह बेचैन हो उठा। उसने गुरू जी से पूछा –क्या मेरी सेवा में कोई त्रुटि रह गई हैं। मेरी पत्नी कह रही थी –न आप ठीक से खाते हैं और न ठीक से पहनते हैं।
-तुम्हें मालूम है कि मैं अपने शत्रु को जीतकर आया हूँ। उस दुश्मन का नाम है लालच। यदि मैं आराम दायक ज़िंदगी का आदी हो गया,जीभ का गुलाम बन कर रह गया तो चिंतन- मनन नहीं कर पाऊँगा। मेरी कलम भी सुस्त पड़ जाएगी। अपनी मंजिल पाने के लिए सादा जीवन उच्च विचार जरूरी हैं।
-सुख –सुविधाओं का उपयोग करके गुरू जी क्या मैं गलती कर रहा हूँ? युवक व्याकुल हो उठा।
-पुत्र,तुम्हारा उद्देश्य है गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए दूसरों की सुविधाओं का ध्यान रखना। यह कर्तव्य तुम अच्छी तरह निभा रहे हो। सबके जीवन के लक्ष्य अलग –अलग होते हैं। उनको पाने कि लिए उसी के अनुसार जीवन बिताना चाहिए।