गुलजार, सत्यजीत रॉय और बाल फिल्में / जयप्रकाश चौकसे

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गुलजार, सत्यजीत रॉय और बाल फिल्में
प्रकाशन तिथि : 17 जून 2014



गुलजार का लिखा नाटक पंद्रह जून को मुंबई के पृथ्वी थियेटर में मंचित हुआ जिसे देखने का अवसर नहीं मिला। यह नाटक सत्यजीत रॉय की 1969 में प्रदर्शित संगीतमय फिल्म 'गोपी गायेन बाघा बाएन' से प्रेरित है। ज्ञातव्य है कि सत्यजीत रॉय ने यह फिल्म अपनेे दादा उपेंद्र किशोर राय चौधरी महोदय की कथा से प्रेरित होकर बनाई थी। इस परिवार की तीन पीढिय़ां बच्चों के लिए साहित्य रचती रही हैं। गुलजार भी बच्चों के वार्षिक मेले में जाते रहे हैं और उन्होंने बच्चों के लिए एक फिल्म 'किताब' भी रची थी। गुलजार के व्यक्तित्व और सिनेमा में बंगाल का प्रभाव हमेशा रहा है। उन्होंने विमलराय के सहायक के रूप में कॅरिअर प्रारंभ किया था और उन्हें 'बंदिनी' में एक गीत लिखने का अवसर भी मिला। ऋषिकेश मुखर्जी की अनेक फिल्में उन्होंने लिखी हैं और बतौर निर्देशक भी उनकी पहली फिल्म 'मेरे अपने' बंगाली फिल्म 'अपन जन' से प्रेरित थी। उनकी पत्नी भी बंगाली राखी हैं।

सत्यजीत रॉय की 'गोपी गाये' को हिंदी में बनाने का उन्होंने प्रयास भी किया है परंतु सत्यजीत रॉय पर लिखी अमेरिकन मैरी सीस की किताब, जिसे सारे सत्यजीत रॉय पर लिखने वाले एक विश्वसनीय किताब मानते है, में लिखा है कि राजकपूर 'गोपी गायन बाघा बाएन' को हिंदी में बनाना चाहते थे और उन्होंने सत्यजीत रॉय से ही इसे निर्देशित कराना चाहा था। यह बात आगे इसलिए नहीं गई क्योंकि रॉय महोदय इसे अपने बंगाली कलाकारों के साथ ही बनाना चाहते थे जिन्होंने उनकी बंगाली फिल्म में काम किया था। बहरहाल बंगाली, मराठी और मलयालम तथा तमिल भाषा में बाल साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है परंतु हिंदी में ऐसा नहीं है।

बकौल गुलजार साहब बच्चों के लिए किताब बुद्धि से नहीं वरन् दिल से लिखी जाती है। दरअसल सारे सृजनधर्मी लोग अपने हृदय में बचपन को अक्षुण रखते हैं। स्टीवन स्पिलबर्ग ने अपने बचपन में जो कॉमिक्स पढ़े, उसी की प्रेरणा से उन्होंने विज्ञान फंतासी रची और यह भी दावा किया गया है कि सत्यजीत रॉय की पटकथा 'एलियन', जो एक विज्ञान फंतासी थी, भी संभवत: स्पिलबर्ग ने पढ़ी है क्योंकि उसे बनाने के साधन जुटाने के लिए यह पटकथा अमेरिका भेजी गई थी। स्पिलबर्ग की 'ई.टी.' में जब अन्य ग्रह से आया प्राणी अपने ग्रह लौट रहा है तब उसकी आंख में आंसू हैं और दुनिया के जिन निवासियों ने उसकी रक्षा इस धरती के उन व्यवस्थाओं से की जो उसकी चीरफाड़ करके उस ग्रह के निवासियों की संरचना को समझना चाहते थे, वे भी रोते हैं। इसी दृश्य को राकेश रोशन ने भी 'कोई मिल गया' में इस्तेमाल किया है। दरअसल सिनेमा में आंसू के दृश्यों का संकलन व अध्ययन किया जाना चाहिए। मसलन 'जोकर' के एक दृश्य में 'आंसू' के मध्य से 'मुस्कान' दिखाने का प्रभाव पैदा किया गया है। स्पिलबर्ग की 'आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस' में एक विधवा निसंतान स्त्री द्वारा विशेष आग्रह पर बच्चे नुमा रोबो बनाया गया था और इस औरत तथा उस रोबो के रिश्ते का मर्म देखिए कि उस मशीनी उपकरण को यह मालूम होने पर की महिला को कैंसर है, उसकी आंख से आंसू टपकता है।

बहरहाल नेहरू युग में बाल फिल्म विकास आयोग का गठन हुआ था और कुछ फिल्में बनी भी थीं परंतु कई वर्षों से यह सिलसिला बंद हो चुका है। बच्चों के लिए सिनेमा या साहित्य रचना कठिन काम है। आज के बच्चों और अन्य काल खंड के बच्चों में भी बहुत अंतर आ चुका है। मौजूदा युग के बच्चे टेलीविजन पर अमेरिकन कॉमिक्स देखते हैं और उनकी रुचियां भी अलग हो गई है।

अब तो लगता है कि बच्चे वयस्क हो गए है और वयस्कों में बचपना नजर आता है। बाल सुलभ मासूमियत का लगभग अपहरण हो चुका है। यह बहुत चिंता का विषय है। आज के माता-पिता की जिम्मेदारियां बहुत बढ़ चुकी हैं। आज बच्चे कम्प्यूटर से खिलौने की तरह खेलते हैं और गटर गंगा में बहुत कुछ ऐसा है जो सर्वथा वयस्क है। इस खुलेपन के दौर में बच्चों को उनकी समझ और रुचियों के अनुरूप खिलौनों की आवश्यकता है और माता-पिता को उन्हें इस मूलत: आक्रामक काल-खंड में अपने प्रेम और समझदारी के कवच में रखना चाहिए। उनके लिए सिनेमा और साहित्य इस तरह रचना होगा कि उनकी विज्ञान फंतासी के प्रति रुचि के साथ भारतीयता का निर्वाह हो सके। कई लोग भारतीयता के नाम पर कूपमंडूकता परोस रहे हैं। बच्चों को अमेरिकन प्रभाव के साथ अपने आख्यानों के अतार्किक तौर पर परिभाषित स्वरूप से भी बचाना होगा।