गुलबिया, खण्ड-11 / आभा पूर्वे
सौंसे गाँव में कुकवारोॅ मची गेलै कि बसन्ता माय के पत रही गेलै। दादी बनैवाली छै बसन्ता माय। जत्तेॅ भी बड़ोॅ-बूढ़ी छेलै गाँव मेंµसब्भे के जुआनी पर एक्के बात।
हिन्ने बसन्त माय के गोड़ोॅ में तेॅ जेना पंख लागी गेलोॅ रहेॅ। पुरानोॅ मांस में जेना नया खून बहेॅ लागलोॅ छेलै। बूलै तेॅ जेना जुआन छौड़ी केॅ मात करी देतै।
µकी बसन्ता माय, अबकी तेॅ सौंसे गाँव के लुलुआ डुबौन करबैबौ। अंगना में सुरुज उतरै वाला छौं।
µयहू में की दू बात छै। सब बाकी बकाया अबकिये बार।
सचमुचे में ई अजीब बात छेलै कि जे गुलबिया गुमसुमे बनलोॅ रहै छेलै, वहू आबेॅ बोलबोॅ-चालबोॅ शुरू करी देलेॅ छेलै। घरे-ऐंगन के लोगोॅ सें नै, द्वारी-बहारी के जोॅन जनानी सें। बसन्ता माय के तेॅ जेना भागे लौटी ऐलोॅ रहेॅ।
मजकि एक बात पर घर-बाहर के जनानी केॅ बड़ा आचरज लागै कि जखनी गुलबिया केॅ कोय ओकरोॅ कोखी के बच्चा लेली बोलै, तेॅ ओकरा कोय खुशी आकि दुख नै हुऐॅ। चेहरा पर कोय भाव जेना उतरबे नै करै।
जोॅर-जनानी सोचै, शात, ढेर दिना के बाद गुलबिया के गोद भरै लेॅ जाय रहलोॅ छै, आरो कहीं बातोॅ के नजर-गुजर नै लागी जाय, यही लेली ई सम्बंध में केकरो संे बातचीत नै करै लेॅ चाहै छै।
समय बीतलोॅ जाय छेलै। तीन महीना, चार महीना, पाँच छोॅ, सात आठ आरो नौंवा महीना पूरा होय पर आबी गेलै। बसन्त के खुशी के ठिकानोॅ नै रही गेलोॅ छेलै।
घर-द्वार के सजावट में घोॅर भरी परेशान छेलै, मजकि गुलाबो जेना ई सब बातोॅ सें एकदम कहीं दूर छेलै, कुछ होन्है केॅ जेना ओकरा मालूमो नै रहेॅ कि ऊ गुलबियो छेकै। माय बनी रहलोॅ छेली, ऊ मजकि मनोॅ में कोय ममता नै।
ई बात केॅ लै केॅ बसन्त कभी-कभी परेशान भी होय जाय।
यहू बात नै छेलै कि गुलाबो ओकरा सें बात व्यवहार नै करै। सब कुछ होवैµहँसी-मजाक, सब्भे कुछ। लेकिन जबेॅ भी बसन्त आपना केॅ बाप आरो ओकरोॅ माय होय के याद ओकरा दिलावै तेॅ ऊ कहीं दूर खोय जाय, जेना बसन्त के बाते नै सुनलेॅ रहै।