गुलशन बायोपिक और संगीत बाजार / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :18 मार्च 2017
टी सीरीज नामक संगीत कंपनी के संचालक गुलशन कुमार की हत्या दिनदहाड़े मुंबई कर दी गई थी। इस अपराध के लिए पकड़े गए कुछ लोग बरी हो चुके हैं अैौर अपने ही बनाए हव्वे से डरकर संगीतकार नदीम लंदन जा बसे हैं। अगर वे भावना वेग के उस क्षण में भारत में ही बने रहते तो रिहा भी हो जाते। उनके जाते ही उनके संगी-साथी श्रवण सृजन क्षेत्र में सुन्न हो गए और एक सफल जोड़ी की सृजन कथा अधूरी ही रह गई। नदीम आज भी स्वयंरचित वनवास भोग रहे हैं और श्रवण गुमशुदा से हैं। यह पूरा मामला अधूरे गीत की तरह है, जिसका अंतरा तो है परंतु मुखड़ा ही नदारद है। याद आती है निदा फाज़ली की पंक्तियां, 'तेरे घर आंगन जो खिला नहीं वह तुलसी की रामायण है, तेरा राम नहीं जो बीत गया वह इतिहास है तेरा, जो काटना है वह वनवास है तेरा।'
बहरहाल, ताजा खबर यह है कि गुलशन कुमार का बायोपिक बनाया जा रहा है और अक्षय कुमार ने नायक की भूमिका स्वीकार कर ली है। अक्षय कुमार गहरे सोच-विचार के बाद फिल्म करते हैं। उन्हें भली-भांति ज्ञान है कि बाबा रामदेव के व्यापार संस्थान के बाद सबसे अधिक व्यापक बाजार टी सीरीज का है। बाबा का माल उसे धार्मिकता से चतुराई से जोड़े जाने के कारण लोकप्रिय है परंतु टी सीरीज अपने कम दाम में माधुर्य बेचने के लिए प्रसिद्ध है। आप बस में यात्रा करें तो छोटे से छोटे स्टॉप पर भी टी सीरीज व बाबा रामदेव की दुकानें आपको हर बस स्टॉप के क्षेत्र में मिलेंगी। बाबा के धर्म आवरण के कारण उनके माल की गुणवत्ता का परीक्षण नहीं किया जा सकता है और 'टी सीरीज' के कम दामों के कारण उनके माल को जांच के दायरे से मुक्त रखा गया है। धर्म और दाम जीवन से गहरे जुड़े हुए हैं।
दरअसल, टी सीरीज के जन्मदाता गुलशन कुमार दिल्ली में फलों का रस बेचते थे। उन्हें स्वयं संगीत सुनने का शौैक था तो कैसेट रिकॉर्डर साथ रखते थे। कुशाग्र व्यापार बुद्धि के गुलशन कुमार ने शीघ्र ही समझ लिया कि उनके रस से अधिक राग के कारण ग्राहक आते हैं। प्रारंभ में उन्होंने उन फिल्मों के संगीत कैसेट बेचे जिनके संगीत अधिकार उनके पास नहीं थे परंतु बाद में उन्होंने संगीत अधिकार खरीदने शुरू कर दिए। त्वरित धन की चाह में फिल्मकारों ने अधिकार बेचे और सदियों से एकमात्र संगीत कंपनी हिज मास्टर्स वॉयस (एचएमवी) की नींव हिला दी। दरअसल, भारतीय फिल्मकारों, संगीतकारों तथा गीतकारों को कभी उनका ज़ायज़ हक मिला ही नहीं। पुराने कॉपीराइट एक्ट में इतना झोल था कि किंचित परिवर्तन से ही नकल को असल मान लिया जाता था। कुछ वर्ष पूर्व ही जावेद अख़्तर ने निरंतर घनघोर प्रयास करके कॉपीराइट एक्ट में संशोधन कराकर सृजनशील लोगों को उनका हक दिलाया।
गुलशन कुमार ने नदीम-श्रवण को शिखर पर पहुंचाया और अनुराधा पौड़वाल को सितारा गायिका बनाया। सोनू निगम भी उन्हीं की खोज है। दरअसल, गुलशन कुमार ने मूल रचना में थोड़ा-सा परिवर्तन करके वर्जन रिकॉर्डिंग से ऐसा बाजार रचा कि मूल के गुम हो जाने का भय पैदा हो गया। इस तरह संगीत क्षेत्र को उन्होंने बीहड़ बना दिया। इसके साथ ही उन्होंने सस्ते 'टू इन वन' से बाजार को पाट दिया। उनके कैसेट लगातार सुनने पर उस रिकॉर्डर पर मूल रचना कार्य ही नहीं करती। गुलशन कुमार ने यह काम अच्छा किया कि संगीत बाजार को नगरों के साथ कस्बाई एवं ग्रामीण क्षेत्र में व्यापक बनाया। उनके प्रयास से फिल्म संगीत एवं भजन संगीत 'राग दरबारी अवस्था' से उठकर जन-जन तक पहुंचा और श्रोताओं की संख्या में वृद्धि हुई। एक तरह से उन्होंने संगीत बाजार को श्रेष्ठि वर्ग की कोठियों से निकालकर झोपड़पट्टी तक पहुंचा दिया गोयाकि इस क्षेत्र के 'सामंतवाद' को समाप्त करके उसे 'जनवादी' बना दिया परंतु इस क्रांति में रॉयल्टी के मूल्य नष्ट हो गए।
गुलशन कुमार ने फिल्म निर्माण में भी कदम रखा और रवींद्र पीपट ने उनके लिए 'लाल दुपट्टा मलमल का' बनाई और बाजार द्वारा हौसला अफजाई होने पर उन्होंने महेश भट्ट से 'आशिकी' नामक सफल फिल्म बनवाई, जिस कारण महेश भट्ट का भी स्वयं ओढ़ा हुआ वनवास समाप्त हुआ। आज भट्ट बधुओं की फिल्म कंपनी 'विशेष फिल्म्स' प्रसिद्ध संस्था है और वे फिल्म निर्माण में भी गुलशन कुमा के सीमित बजट की नीति पर डटे हैं। वे चार करोड़ के सीमित बजट में नए कलाकारों के साथ फिल्में बनाते हैं और स्टार सिस्टम को अस्वीकार करते हैं। जैसे गुलशन कुमार ने संगीत क्षेत्र में नए लोगों को अवसर दिए वैसे ही भट्ट बंधु भी नए कलाकार, तकनीशियन व संगीतकारों को अवसर देते हैं। 'आशिकी' परम्परा की तरह विकसित हुई है। याद आते हैं साहिर साहब, 'प्यार पर बस तो नहीं मेरा पर तू ही बता दे तुझे प्यार करूं या नहीं।' उस दौर में गुलशन कुमार और अनुराधा पौड़वाल की अंतरंगता सुर्खियों में थी। अत: गुलशन बायोपिक में प्रेम, हिंसा, हत्या और बाजार शामिल है, जिस कारण सनसनीखेज संगीतमय फिल्म बन सकती है।
गुलशनजी के सुपुत्र अपने पिता की कंपनी को व्यापार शिखर तक ले गए हैं। संगीत के घराने होते हैं और फिल्म संगीत बाजार में 'टी सीरीज' भी घराने की तरह जम गया है। भारतीय संगीत में जन्म से मृत्यु तक हर अवसर के लिए गीत है और आज के बेसुरे युग का भी अपना संगीत है। खामोशी का भी अपना संगीत होता है। आज के नक्कारखाने में भी तूती की आवाज मौजूद है, जिसे एक महफिल या मंच की तलाश है। तानसेन के युग में भी बैजू बावरा चमका था। अत: नैराश्य के लिए कोई स्थान नहीं है।